नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर अपनी राय देते हुए गुरुवार को अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल राज्य के विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते, लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका इसे स्वीकृति देने या नहीं देने के लिए निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकती। कोर्ट ने कहा कि ऐसा करना शक्तियों के अलग-अलग बंटवारे के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
भारत के चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर की संविधान पीठ ने कहा कि पिछले फैसले में निर्धारित की गई समय-सीमा और राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा ऐसी समय-सीमा का पालन न करने की स्थिति में विधेयकों को ‘मान्य स्वीकृति’ बता देना, न्यायालय द्वारा राज्यपाल/राष्ट्रपति की शक्तियों का अतिक्रमण करने के समान है और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
‘देरी पर दखल दे सकता है न्यायालय’
प्रेसिडेंसियल रेफरेंस के संदर्भ पर अपनी राय देते हुए कोर्ट ने साथ ही कहा कि एक निश्चित अवधि के बाद किसी विधेयक को स्वतः स्वीकृत मान लेना संविधान की संरचना के विपरीत है और विधायी जाँच-पड़ताल और संतुलन को कमजोर करता है।
पीठ ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल विधेयकों पर लंबे समय तक नहीं रुक सकते, फिर भी उन्हें एक उचित समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करनी चाहिए। अगर लंबे समय तक निष्क्रियता विधायी प्रक्रिया को प्रभावी रूप से बाधित करती है, तो अदालतें सीमित न्यायिक समीक्षा के जरिए राज्यपाल को विधेयक के गुण-दोष की जाँच किए बिना ही निर्णय लेने का निर्देश दे सकती हैं। पीठ ने कहा कि न्यायालय केवल तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब अत्यधिक और बिना ठोस वजह के विलंब हो रहा हो और ऐसा प्रत्येक मामले के आधार पर अलग-अलग किया जाना चाहिए।
राज्यपाल सुपर सीएम नहीं बन सकते: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल सुपर चीफ मिनिस्टर के रूप में कार्य नहीं कर सकते और एक राज्य में दो कार्यपालिकाएं नहीं हो सकतीं। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मामले पर 11 सितंबर को अपनी राय सुरक्षित रखने से पहले दस दिनों तक मामले की सुनवाई की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्यपाल के लिए समयसीमा तय करना संविधान की ओर से दी गई लचीलेपन की भावना के खिलाफ है। साथ ही पीठ ने कहा कि राज्यपाल के पास केवल तीन संवैधानिक विकल्प हैं- बिल को मंजूरी देना, बिल को दोबारा विचार के लिए विधानसभा को लौटाना या उसे राष्ट्रपति के पास भेजना।
कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक रोककर विधायी प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि न्यायपालिका कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, लेकिन साथ ही कहा कि- ‘बिना वजह की अनिश्चित देरी न्यायिक दायरे में आ सकती है।’
प्वाइंट में जानिए कोर्ट ने फैसले में क्या कहा?
- राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती।
- ऐसे विधेयकों को इस आधार पर स्वीकृत नहीं माना जा सकता कि राज्यपाल/राष्ट्रपति ऐसी निर्धारित समय-सीमा के भीतर फैसला करने में विफल रहे।
- किसी विधेयक के संबंध में राष्ट्रपति/राज्यपाल की कार्रवाई को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
- न्यायालय के समक्ष कार्रवाई/न्यायिक समीक्षा तभी होगी जब विधेयक कानून बन जाएगा।
- यदि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत उचित समय-सीमा के भीतर कार्य नहीं करते हैं, तो संवैधानिक न्यायालय सीमित न्यायिक समीक्षा कर सकता है। न्यायालय तब राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत बिना विवेकाधिकार के गुण-दोष पर टिप्पणी किए उचित समय-सीमा के भीतर फैसला लेने का सीमित निर्देश दे सकते हैं।
क्या था ये पूरा मामला?
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा दिए गए रेफरेंस पर दिया गया। संविधान का अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति को कानूनी और सार्वजनिक महत्व के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने का अधिकार देता है।
राष्ट्रपति के संदर्भ में जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ द्वारा तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल एवं अन्य मामले में 11 अप्रैल को पारित निर्णय पर सवाल उठाया गया था।
उस फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपालों को उचित समय सीमा के भीतर कार्य करना चाहिए। उस निर्णय में कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा अपने कार्यों के निर्वहन के लिए कोई स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट समय सीमा नहीं है। लेकिन अनुच्छेद 200 को इस तरह नहीं पढ़ा जा सकता कि राज्यपाल को उन विधेयकों पर कार्रवाई न करने की अनुमति मिल जाए जो उनके समक्ष स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किए गए हैं, और इस तरह राज्य में कानून बनाने की प्रक्रिया में देरी हो और अनिवार्य रूप से बाधा उत्पन्न हो।
कोर्ट ने तब कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को पारित बिलों पर तय अवधि में निर्णय लेना होगा। इसे फैसले को लेकर बहस शुरू हो गई थी कि क्या कोर्ट राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए ऐसी डेडलाइन रख सकता है। बाद में इस पर राष्ट्रपति ने संवैधानिक सीमाओं के उल्लंघन की चिंता जताई थी और 14 सवालों के जरिए सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी।

