मैं मुनाबाव हूँ। भारत का आखिरी रेलवे स्टेशन, कहो तो पहला भी कह सकते हो। पर तुम आखिरी ही कहोगे क्योंकि आज़ादी के बाद से अब तक मेरे साथ जो व्यवहार हुआ है वो अंतिम छोर जैसा ही हुआ है। भूला बिसरा और उपेक्षित।
कहने को मैं अंतरराष्ट्रीय रेलवे स्टेशन का दर्जा रखता हूँ। मुझसे कुछ ही मीटर की दूरी पर पाकिस्तान है। पहले जीरो पॉइंट आता है फिर पाकिस्तान का पहला या आखिरी स्टेशन खोखरापार है। खोखरापार को देखता हूँ तो जरूर अपनी हालत पर खुशी होती है।
मैने लाखों परिवारों को हिंद से सिंध और सिंध से हिंद आते जाते देखा है। जब दो मुल्क एक हुआ करते थे और कोई सरहद नहीं होती थी तब भी मैं तो था ही। हाँ तब मेरा दर्ज़ा अंतरराष्ट्रीय नहीं था और न ही मैं अंतिम भी था।
चलो जब बात निकल ही पड़ी है तो मैं अपनी कुछ यादें तुमसे साझा करता हूँ।
एक राजा की रेल
तुम्हें पता है कि आज से कोई सवा सौ बरस पहले 22 दिसंबर 1900 को यहाँ से एक राजा की रेल चलती थी। ब्रिटिश काल में जोधपुर रियासत के महाराजा सरदार सिंह ने अपनी “जोधपुर-भुज रेलवे” बनाई थी, जो आगे चलकर सिंध प्रांत के मार्ग से कराची बंदरगाह तक जुड़ती थी। यह गाड़ी माल ढुलाई (कपास, ऊन, अनाज) और यात्री परिवहन के लिए थी। जोधपुर से शुरू होकर बालोतरा, मुन्धवा, मुनाबाव, खोखरोपार, मीरपुर खास, हैदराबाद (सिंध) होते हुए कराची पहुंचती थी।
ये धोरों वाली धरती, जहां सिर्फ ऊंट और बैल गाड़ी ही आसानी से चल पाए, वहां काला धुआं उड़ाती,छुक–छुक करती रेलगाड़ी का चलना कौतूहल का विषय था। लोग दौड़े दौड़े आते थे इसे देखने।
निस्संदेह इस गाड़ी ने थार के कठिन जीवन को थोड़ा सरल बनाया। आवागमन के कोई साधन नहीं थे। थोड़े सी दूरी के लिए ऊंटों पर कई दिन का सफर करना पड़ता था। कोई हारी बीमारी हो जाए तो फिर दुआओं का ही आसरा था। ऐसे में इस गाड़ी ने एक उम्मीद जगाई।
थार के लोग काफी अंतर्मुखी और भावनाओं को अमूमन अपने तक ही रखने के स्वभाव वाले थे, इसलिए आज की तरह ज्यादा हल्ला नहीं था, बस उनके चेहरों पर हल्की सी मुस्कान ही काफी थी यह बताने को की कुछ अच्छा घटित हुआ है।
फिर अंग्रेजों की विदाई का समय आया। और साथ ही समय आया बंटवारे का। इसमें जमीन के साथ ही रिश्ते नाते और परिवार भी बंट गए।
तब भी थार में नहीं बही थी खून की एक बूंद
सुनो यहाँ मैं तुम्हे एक महत्वपूर्ण बात बताता हूँ जिससे तुम्हे यहाँ की प्रजा और राजा दोनों की सीरत के बारे में मालूम चलेगा। बंटवारे के वक्त पंजाब, बंगाल, कश्मीर सहित अनेकों स्थानों पर खूब खून खराबा हुआ। लाशों से भरी रेलगाड़ियां इधर से उधर सफर करती थी। लेकिन थार में एक भी बूंद खून नहीं बहा। जो जहां था वहीं रहा, पूरे विश्वास के साथ। मारवाड़ के तत्कालीन शासक हनवंत सिंह ने मुस्लिम इलाकों में स्वयं जाकर उन्हें निश्चिंत किया कि “घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है, जैसा पहले था वैसे ही अब भी ये आपका घर है और आप लोग यहाँ सुरक्षित है।”
इतनी भली और मानवीय करुणा से भरी बातें कौन जानता है ? पंजाब, बंगाल और कश्मीर की बातें सब करते है, थार के इस रेगिस्तान की उपेक्षा से दिल भर आता है।

नए बने पाकिस्तान के सिंध प्रांत में जो हिंदू परिवार रह रहे थे उन्होंने भी 1947 में अपनी जगह नहीं छोड़ी। उन भोले लोगों को तब एहसास ही नहीं हो पा रहा था कि सिंध और हिंद अब एक ही देश नहीं है। वहां अक्सर लोग कहते थे कि
“घर मागे बाड़ कोनी, मुलक मागे कदे होवे”
मतलब घर के चारों तरफ तो बाड़ कर ही नहीं पा रहे देश के बाड़ कब होनी है।
खैर, 1947 में विभाजन के बाद सिंध मेल कुछ समय बंद रही। फिर कभी चालू कभी बंद ये सिलसिला चलता रहा। अनिश्चितता हावी रही।
इसके बाद भारत-पाक 1965 के युद्ध के समय इस रेल की पटरियों को उखाड़ दिया गया। पूरा ट्रैक बर्बाद हो गया। खास बात यह रही इस युद्ध में भारतीय रेल भी शामिल हुई। भारत के इतिहास का एकमात्र युद्ध होगा जिसमें रेलवे सक्रिय रूप से युद्ध में शामिल हुआ। इस दौरान बाड़मेर से सरहद तक गोला बारूद की सप्लाई रेल से ही हुई। रेल पर भी बंब बरसाए गए। बाड़मेर रेलवे स्टेशन पर भी पाकिस्तान द्वारा बंब गिराए गए, जिसके निशान आजतक मौजूद है। इस युद्ध में रेलवे के 19 कार्मिक शहीद हुए। इनमें एक प्रताप चंद भार्गव भी थे जिनके अदम्य साहस और बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत “अशोक चक्र” से सम्मानित किया गया। यह भारत का सर्वोच्च शांतिकालीन वीरता पुरस्कार है (युद्धकाल में परमवीर चक्र के समकक्ष)। साथ ही यह किसी नागरिक (non-military person) को मिलने वाला पहला अशोक चक्र था।
1971 में भी मैने एक और युद्ध देखा। इसके बाद 1972 में शिमला समझौता हुआ जिसके तहत 22 जुलाई 1976 से दिल्ली से लाहौर तक रेल चली। नाम रखा “समझौता एक्सप्रेस”। पर मैंने इस थार के लोगो की सहूलियत के लिए कुछ होते नहीं देखा।
1990 तक तो मेरे यहाँ तारबंदी भी नहीं थी। बॉर्डर खुला था।
फिर सम्बन्धों में कड़वाहट आती गई,बॉर्डर और मजबूत होता गया। अमरकोट और थारपारकर सरीखे जिले जहां बहुसंख्यक हिंदू आबादी निवास करती है तथा जिनके हिन्दुस्तान के बाड़मेर और जैसलमेर जिलों में सात पीढ़ी के रिश्ते है वो कुछ किलोमीटर ही दूर है। किन्तु रेल सेवा बंद होने के कारण उन्हें लाहौर, अटारी बॉर्डर,अमृतसर फिर दिल्ली होते हुए मारवाड़ आना पड़ता है। कुछ दूरी का सफर अब उनके लिए 2500 किलोमीटर का हो जाता है।अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में 1999 में दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा भी शुरू हुई नाम रखा सदा–ए–सरहद। पर इस बार भी मेरे लोगो के बारे में विचार नहीं किया गया। मैं इतना निराश हो गया था कि आखिर दिल्ली में बैठे लोग हम थार के वासियों को अपना मानते भी ये या नहीं ? इतना बेगाना व्यवहार हमसे क्यों ?
थार एक्सप्रेस की शुरुआत
आखिरकार 41 साल बाद किसी को इस रेगिस्तानी मरुस्थल की याद आई। 2006 में “थार एक्सप्रेस” शुरू की गई। इस समय देश के मुखिया मनमोहन सिंह थे। यह जोधपुर से चलकर वाया बाड़मेर होते हुए मेरे यहाँ आती थी। फिर आगे खोखरापार,मीरपुर खास होते हुए कराची तक जाती। यह साप्ताहिक ट्रेन थी और तकरीबन 700 किलोमीटर का सफर 18 घंटे में पूरा करती थी। चार दशक बाद ही सही इस भुला दिए गए क्षेत्र की किसी से सुध ली। मैने फिर से थार के बाशिंदों के चेहरे पर मुस्कुराहट देखी।
मेरे इस सुने से आंगन में फिर से रौनक होने लगी। सिंध के लोग अपनी बहन बेटियों से मिलने थार एक्सप्रेस से बाड़मेर और आस पास के इलाको में आने लगे। यहाँ से भी लोग पाकिस्तान में रह गए अपने माता पिता और रिश्तेदारों से मिलने जाने लगे। सोना,चांदी, पोलिएस्टर कपड़ा,मिर्ज़ा सैंडल, देग आदि सामान का भी आवागमन शुरू हुआ। हजारों किलोमीटर का सफर काफी छोटा हो गया।

पर मेरी खुशियां किसे सुहाती ? पुलवामा आतंकी हमले के बाद फ़रवरी 2019 में इसे बंद कर दिया गया। तबसे यह बंद ही है।
ये तो दो देशों की बात है। देश के अंदर भी बाड़मेर और जैसलमेर को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ने वाली रेलगाड़ियां बहुत कम है। जसवंत सिंह जी जसोल के प्रयासों से बाड़मेर से दिल्ली तक “मालाणी एक्सप्रेस” शुरू हुई। बाड़मेर से शाम 6.30 बजे रवाना होकर सुबह 4.30 बजे जयपुर और सुबह 11 बजे दिल्ली पहुंच रही थी। इतनी सही सुविधा भला बाड़मेर वालो को कैसे मिलने लगी ? सो कोरोना के बहाने इसे भी बंद कर दिया गया।
एक रेलगाड़ी बाड़मेर से कालका चलती थी, जिससे थार का क्षेत्र उत्तरी भारत से आसानी से जुड़ रहा था, उसे भी बदल दिया गया।
1996 से जैसलमेर–बाड़मेर–भाभर(गुजरात) के लिए 380 किलोमीटर रेल मार्ग बनाने की मांग की जा रही है। 2003 में सर्वे भी हुआ, 2013 में इसे घाटे के सौदा कहकर खारिज कर दिया। अब फिर सर्वे के लिए 10 करोड़ दिए है। इस गति से काम हुआ तो शायद आने वाली पीढ़ी ही इसमें सफर कर पाएगी।
सरहदी जिले होने के नाते बाड़मेर–जैसलमेर का अपना सामरिक महत्व है। आर्मी और सीमा सुरक्षा बल के हजारों जवान यहां रहते है। युद्ध की स्थिति में रेलसेवा संजीवनी है। सोनू माइंस का लाइमस्टोन,कोयला,क्रूड ऑयल और जीरा आदि के परिवहन में सहायता मिलेगी। बाड़मेर के सैकड़ों व्यापारी रोज जान हथेली पर रखकर निजी बसों से खरीददारी हेतु अहमदाबाद जाते है। मेडिकल सुविधा के अभाव में सैकड़ों लोग प्रतिदिन बसों में अहमदाबाद जाते है।
उपरोक्त मजबूत कारणों के बाद भी नई रेलगाड़ियां मिलनी तो दूर, जो थी उन्हें भी बंद किया गया।
जो हो सो हो, मैं यहीं का यहीं हूँ। कहाँ जा सकता हूँ ? मेरी नियति में यहीं सब सुख दुःख देखने का विधान है।
हमारे यहाँ कहते है “आशा अमर धन है” उसी आशा में मैं मुनाबाव आने वाले हर राहगीर से अपनी कहानी कहता रहूंगा।

