Tuesday, October 28, 2025
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विरासतनामा: वीरान शहरों की हूक से जागता इतिहासबोध

ये टूटी हुई दीवारें और खाली आँगन हमें सिखाते हैं कि मानव जीवन और सभ्यताएँ परिवर्तनशील हैं, लेकिन कला, वास्तुकला और उनसे जुड़ी कहानियाँ समय के चक्र को पार कर अमर हो जाती हैं।

इतिहास के पन्नों में झाँकना, विशेषकर उन गलियारों की ओर जहाँ कभी जीवन का कोलाहल गूँजा करता था और आज केवल सन्नाटा पसरा है, ऐसा है मानो इतिहास के ज़ख्मों को कुरेदना। भारत ऐसे अनगिनत ‘मौजा-बेचिराग’ यानि निर्जन शहरों की कहानियाँ समेटे हुए है, जो अपने अतीत की भव्यता का मौन बखान करते हैं। ये निर्जन, वीरान शहर, जैसे विजयनगर साम्राज्य की गरिमामयी राजधानी हम्पी, मुग़ल वैभव का केंद्र रहा फ़तेहपुर सीकरी, मोहम्मद बिन तुग़लक़ द्वारा बसाई गई विवादास्पद राजधानी दौलताबाद, बाज़ बहादुर और रूपमती के अमर प्रेम का साक्षी मांडू, बेतवा नदी के किनारे बुंदेलों का ऐतिहासिक गढ़ ओरछा, जैसलमेर की तप्ती रेत में रहस्यमय तरीके से विलीन हुआ कुलधरा गाँव, वाणिज्य का ध्रुव रहा समुद्री पत्तन लखपत, या सुदूर दक्षिण तट पर चक्रवात की मार झेल चुका धनुषकोडी; ये सब गवाही देते हैं कि हादसे और हालात के हमलों ने इनकी मज़बूत बुनियादें इस कदर हिला दीं कि आज इनकी पहचान महज़ भव्य खंडहरों से ज़्यादा कुछ नहीं रही।

हैरिटेज की तख्ती थामे सैलानियों की बाट जोहते खंडहर

इन गैर-आबाद शहरों ने एकांत की चादर ओढ़ रखी है। ये आज अपनी गिरी हुई इमारतों और ढहे हुए किलों की सोहबत में रहने को मजबूर हैं। कल्पना कीजिए उन बरामदों की जहाँ कल तक महफ़िलें सजा करती थीं, आज वही आँगन सिर्फ हवा की सायं-सायं से गूँजते हैं। जिन दरबारों में हर ख़ास-ओ-आम की सुनवाई होती थी, आज वही दीवान-ए-आम और दीवान-ए-ख़ास एक ही तरह से जर्जर पड़े हैं, समय की मार के आगे सब समान। जिन पर्दानशीं झरोखों से कभी प्रतीक्षारत नज़रें झाँका करती होंगी, आज उन्हीं झरोखों पर पड़ी दरारों से लाखौरी ईंटें और सदियों पुराने पत्थर झाँकते हैं। तारीख़ गवाह है कि ये शहर कभी शान-ओ-शौक़त के गढ़ थे, हज़ारों लोगों का घर थे मगर आज हैं केवल खण्डहर। दीवारों में बने ताक़ अब हमेशा बेचिराग पड़े रहते हैं और अंधेरों की बुनियाद यहाँ गहरी हो गई हैं। मगर इंसानी आबादियों से महरूम यह गलियाँ अब भी हैरिटेज की तख्ती थामे आने वाले सैलानियों की बाट जोहते रहते हैं, उन्हें इतिहास के सफर पर ले जाने को आतुर।

काल के चक्र के मूक गवाह

हम्पी की सभ्यता का इतिहास सुनहरे अक्षरों से दर्ज हुआ, एक ऐसा शहर जो कला, वास्तुकला और समृद्धि का केंद्र था। लेकिन आततायियों के हमलों ने इस खूबसूरत शहर को खंड-खंड कर दिया। यह काल का कैसा खेल है कि आज भी यहाँ मंदिर, मंडप, और महलों के अवशेष ज्यों के त्यों मौजूद हैं, लेकिन आबादी सिर्फ काई लगी शिलाओं की ही बची है, पत्थर की खामोशी में डूबी हुई।

इसी तरह, शहंशाह अकबर ने बड़ी मुहब्बत और दूरदर्शिता से लाल पत्थर से फ़तेहपुर सीकरी में अपना गढ़ बसाया और दुनिया के सामने अपनी हुकूमत की बुलंदी का नमूना पेश किया। इसका वास्तुशिल्प मुग़ल और स्वदेशी शैलियों का अद्भुत संगम है, जिसने अपनी भव्यता से दुनिया को चकाचौंध किया। मगर विडंबना देखिए, पानी की किल्लत के चलते मुग़लिया सल्तनत को इस नायाब शहर से मुँह फेरकर जाना पड़ा और यह थोड़े ही समय में वीरान हो गया।

उधर, बुंदेला स्थापत्य की उत्कृष्ट मिसाल रहे ओरछा नगरी के ऐतिहासिक किले और मंदिर किसी परीकथा का सजीव चित्रण मालूम पड़ते हैं। मगर राजनीतिक कारणों के चलते बुंदेलों को इस धरोहरनुमा शहर को निर्जन छोड़ना पड़ा, जिसने पीछे अपनी समृद्ध विरासत की एक उदास छाप छोड़ दी।

मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने एक सनकी निर्णय लेते हुए दिल्ली छोड़ दौलताबाद को अपनी राजधानी बनाने के लिए कूच तो किया, एक ऐसा कदम जिसने इतिहास में उन्हें ‘पागल सुल्तान’ के रूप में प्रसिद्ध किया। मगर यह नया शहर उसे और उसकी आवाम को रास नहीं आया। नतीजतन, दिल्ली दोबारा राजधानी बनाई गई, मगर पीछे छूट गया वीरान दौलताबाद, तुग़लक़ की महत्त्वाकांक्षा का एक खंडित स्मारक।

गुजरात में सिंधु नदी के किनारे बसा शहर लखपत कभी व्यापार का एक फलता-फूलता केंद्र हुआ करता था, जो जलीय व्यापार से धनवान था। मगर 1819 के विनाशकारी भूकंप के बाद सिंधु नदी ने अपना रास्ता बदल लिया और नदी द्वारा होने वाला व्यापार ठप्प पड़ने के कारण ये शहर भी धीरे-धीरे वीरान पड़ गया और आज केवल अपनी मजबूत किलेबंदी की दीवारों के साथ खड़ा है।

लखपत किला

मांडू के हिंडोला महल, जहाज़ महल, बावड़ियाँ और हमाम गुज़रे दौर की शान-ओ-शौक़त के प्रमाण हैं। लोक-कथाओं के मुताबिक, अकबर की मांडू पर चढ़ाई और रूपमती की खुदखुशी के बाद बाज़ बहादुर का हमेशा के लिए मांडू को छोड़ जाना ही इस नगरी की वीरानी की वजह बना।

राजस्थान में बसा कुलधरा गाँव, जो सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों जैसा दीख पड़ता है, यह भी सालों से इसी तरह निर्जन पड़ा है। कहा जाता है कि पालीवाल ब्राह्मणों ने इस गाँव को रातोंरात छोड़ दिया था, जिसके बाद से यहाँ कोई बस नहीं पाया और यह रहस्य और लोककथाओं का गढ़ बन गया।

दक्षिण में, रेत पर बाकी बचे धनुषकोडी के खँडहर, 1964 के भयानक चक्रवात की गवाही देते हैं, जो इस शहर की सब रौनकें लील गया। आज भी बीते कल के निशान लिए ये शहर सुनसान खड़ा है, जहाँ एक ओर बंगाल की खाड़ी और दूसरी ओर हिंद महासागर का संगम होता है, और सैलानियों को स्मृतियों के सफर पर ले जाता है।

इतिहासबोध के जीवंत प्रतीक

दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने लिखा था, “मवेशियों को देखो; वे नहीं जानते कि कल या आज का क्या मतलब है। वे इसी क्षण में जीते हैं।” मानव को उसका ‘इतिहासबोध’ ही उसे मवेशियों से अलग बनाता है। इतिहास के ये खंडहरनुमा शहर दो ताकतों का विरोधाभास हैं: निर्माण और विध्वंस। इन बियाबानों की बुनियाद में दफ़्न हज़ार किस्से और बेशुमार कहानियाँ हमें यही बोध करवाते हैं कि समय ही सबसे शक्तिशाली है, जिसके पास वीराने को आबाद करने और बसे-बसाये शहरों को सुनसान बनाने की क़ुव्वत है। ये शहर हमें याद दिलाते हैं कि हर उत्थान का एक पतन निश्चित है, और हर महान सभ्यता अंततः रेत या मलबे में विलीन हो जाती है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक गहन शिक्षा छोड़ जाती है। ये वीरान शहर केवल ईंटों और पत्थरों का ढेर नहीं हैं; ये समय के दर्शन का मूर्त रूप हैं। हर टूटा हुआ स्तंभ, हर जर्जर बुर्ज, मानव महत्वाकांक्षा और प्रकृति की अविनाशी शक्ति के बीच के शाश्वत संघर्ष को दर्शाता है।

फतेहपुर सीकरी

फ़तेहपुर सीकरी की खाली चौखटें हमें शासक अकबर की दूरदर्शिता और उसकी एक शहर को केंद्र बनाने की तीव्र इच्छा की याद दिलाती हैं, जो एक साधारण पानी की कमी के कारण धराशायी हो गई। यह दर्शाता है कि कैसे महानतम साम्राज्य भी सबसे बुनियादी प्राकृतिक संसाधनों के आगे घुटने टेक सकते हैं। वहीं, धनुषकोडी की रेत में दबे अवशेष हमें प्रकृति के आकस्मिक और विनाशकारी प्रकोप की याद दिलाते हैं, जहाँ एक ही रात में एक पूरा शहर स्मृतियों के पन्नों में सिमट गया। मनुष्य इन खंडहरों को देखकर ही अपने और अपने पूर्वजों के बीच एक अदृश्य पुल स्थापित करता है। हज़ारों साल पहले हम्पी के बाजारों में हुई चहल-पहल या दौलताबाद की सड़कों पर चली लंबी यात्राओं का एहसास हमें अपने वर्तमान अस्तित्व के क्षणिक होने का बोध करवाता है।

वीरानों को मिलता नया जीवन

विडंबना यह है कि इन शहरों के वीरान हो जाने ने ही इन्हें एक नया जीवन प्रदान किया है: पर्यटन से मिला पुनर्जन्म। ये ‘मौजा-बेचिराग’ अब दुनिया भर के सैलानियों के लिए हेरिटेज स्थल बन चुके हैं, जो अपने अतीत की कहानी सुनाना चाहते हैं। मांडू का हिंडोला महल अब प्रेम और वास्तुकला के जिज्ञासुओं को आकर्षित करता है। कुलधरा की रहस्यमय वीरानियाँ रोमांच प्रेमियों के लिए एक आकर्षण का केंद्र हैं। ओरछा के मंदिर अपनी जटिल नक्काशी के कारण कला प्रेमियों को अपनी ओर खींचते हैं। इस प्रकार, ये शहर अपने पतन के बाद भी जीवित हैं। वे अब आर्थिक गतिविधि का केंद्र भले न हों, लेकिन वे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पूंजी का भंडार हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और अन्य संरक्षण संस्थानों द्वारा किए जा रहे प्रयास यह सुनिश्चित करते हैं कि समय की मार झेलने के बावजूद, इन खण्डहरों की आवाज़ें भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचती रहें। ये टूटी हुई दीवारें और खाली आँगन हमें सिखाते हैं कि मानव जीवन और सभ्यताएँ परिवर्तनशील हैं, लेकिन कला, वास्तुकला और उनसे जुड़ी कहानियाँ समय के चक्र को पार कर अमर हो जाती हैं। यही वह अमरत्व है, जो इन वीरान शहरों को केवल एक भूतपूर्व शहर से कहीं अधिक, बल्कि भारतीय विरासत के जीवित स्मारक में बदल देती है।

ऐश्वर्या ठाकुर
ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट और लेखक; वास्तुकला, धरोहर और संस्कृति के विषय पर लिखना-बोलना।
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