Sunday, November 9, 2025
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कहानीः कांस की उजली पात

सविता पाठक की कहानी ‘ कांस की उजली पात‘ में दृश्य- चित्रण और संयोजन बहुत खूबसूरत हैं। कहानी की भाषा भी एकदम कलकल बहती हुई सी…रामलीला का माहौल, ध्वनि, सुरभि, और नींद में डूबी लड़की की आँखों में चलती कहानी से शुरू यह कथा बाद में एकदम से यथार्थ में जा खड़ी होती है, जो पारिवारिक, सामाजिक और वर्ग-वैषम्य की स्थिति और यंत्रणाएं कम या जियादा तय करती है। बेटा पैदा करने को मजबूर मां अपनी सयानी होती बेटियों से दूर कहीं शहर में रहती है। तीन लड़कियां जो गांव और घर में अकेली हैं, और जो अपने तईं घर ,समय, समाज और स्त्री जीवन की विसंगति और नियति को देख और झेल रहीं। इस कहानी में स्त्री-जीवन की विडंबनाओं की कई- कई परते हैं जो दरअसल स्त्री जीवन की अनंत वीभिषिकाओं की बात करती हैं

‘हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तुम देखी सीता मृगनयनी।’

राम का विलाप हो रहा था। वो पेड़-पौधे नदी सबसे सीता का पता पूछ रहे थे। परदे पर बना पेड़ और हिरन रह रह कर हिला दिये जा रहे थे। इसी बीच किसी ने उसका पैर जोर से हिलाया। लड़की को जोर की नींद आ रही थी। रामलीला के टेंट से शीत टपक कर नीचे गिर रही थी। आस-पास लोग खचाखच भरे थे। बांस की बाड़ी लगाकर औरतों और मर्दों के लिए अलग अलग बैठने की व्यवस्था की गयी थी। छोटे लड़कों को दोनों घेरे में कूद-फांद की आजादी थी। ज्यादा कूदने वाले बंदर जैसे बच्चे अपने माँओं से चांटा खा रहे थे। परदा खुल रहा था और ढ़ोल की थाप के साथ बंद हो रहा था। आस पास लोगों की भीड़ से गर्माहट बढ़ गयी थी। लड़की को जैसे ही लोगों की गरमाहट मिली, उसकी आंख लग गयी। वैसे उसको राम का विलाप सुनायी दे रहा था और मुंदी आंखों से ही सही लेकिन परदे पर हिलता हिरन भी दिख जा रहा था।

 ‘अरे उठो सब लोग जा रहे हैं’। गाँव की एक लड़की ने उसको कस कर चिकोटी काटी।

‘हां..मुँह खोले उसने पूछा ‘अभी क्यों अभी तो पूरा सीन भी नहीं हुआ है’।

‘लेट कर सो रही हो और सीन पूरा नहीं हुआ है’। लड़की रामलीला में आयी इस नींद पर लज्जित सी हो गयी।

‘हां नींद तो नहीं आनी चाहिए थी।’

वो उठ गयी। कुल सात किलोमीटर गांव वापस जाना था। पूरा रास्ता नहर के किनारे सरपत से सजा था। यही मौसम था जब सरपत का चीरा लड़की को खूब लगता था। वो कभी मूंज सुरकने जाती तो कभी उसे कांस के उजले फूल बुलाने लगते। एक ही पौधा उसके हाथ चीर देता था और उसी के फूलों को लेकर वह रानी बनकर चंवर डुलाने लगती।  ललाने यानि लाला लोगों की यह रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी। दूर दूर से लोग देखने आते थे। कहते हैं कि लाला लोग बड़े लोग हैं। कोई पुलिस है तो कोई जज लेकिन जब लाला यानि श्रीवास्तव-सिन्हा लोगों की रामलीला होती थी तो उनके गांव में बड़ा जुटान होता था। रावण तो जज साहब थे। एक महीने तक गांव में ही रहते थे। रामलीला के दौरान आगे की जगह लाला लोगों के परिवार के लिए रिजर्व रहती थी। उनके गाँव की लड़कियां बाकि लड़कियों के मुकाबले बहुत ही आधुनिक दिखायी पड़ती थी। यहां तक कि कई सुन्दर सा सूट पहन कर गजरा भी लगाती थी। आगे बैठी उन लड़कियों के गजरे की महक पीछे बैठी लड़कियों को भी आती थी। वो लड़कियां मन मसोस कर रह जाती थीं। लाला लोगों के अलावा बाकी गाँवो में लड़कियों का बाल में फूल लगाना निषिध्द था। बालों में फूल लगाने का मतलब मर्दों को रिझाना होता है और अगर उसके गाँव की कोई लड़की गलती से यह करे तो उसकी सबके सामने कुटाई भी हो जाती थी। लाला लोगों के गांव में अलग ही रिवाज था। दूसरे यहां कि लड़कियों की जल्दी शादी भी नहीं होती थी। वो कालेज भी जाती थी। बाभनों और अहीरों की लड़कियों की तरह उनकी मांग कच्ची उमर में भरी नहीं रहती थी। बहरहाल जो भी हो वो लड़की रामलीला देखने गयी थी और उसके गाँव की बाकि बड़ी लड़कियां ललाने की लड़कियों को। वो पूरे समय यही देखती थीं कि इनकी लड़कियों ने क्या कपड़ा पहना है और कैसे ये अपने यहाँ के लड़कों से बातें कर रहीं हैं।

 लड़की अपने गाँव के कुनबे के साथ रामलीला देखने गयी थी। कुनबे को ले जाने का काम गाँव के ही बम्बई से लौटे एक चाचा करते थे। वो बड़ी सी लठ्ठ लेकर आगे आगे चलते थे। उन्होंने बताया कि उन्होंने सेना ज्वाइन किया है, उनकी लम्बाई खूब थी। लड़की को लगता था कि उन्होंने सचमुच में सेना ज्वाइन की है, बाद में पता लगा कि उन्होंने शिवसेना ज्वाइन किया है। उन्ही के नेतृत्व में घर पहुंचते पहुंचते पौ फट गयी। भास्कर देव तेजी से शीत समेट रहे थे। लड़की को फिर तेज नींद ने घेर लिया।

पूरे इलाके के अलग अलग गांवों में राम की ही लीला चल रही थी। कहीं की रामलीला पूरी हो गयी तो किसी के यहां सूर्पनखा का नाच होना बाकी है। कल सूर्पनखा का नाच है मिसराने की रामलीला में सब जगह एक ही चर्चा थी। गाँव की औरतें जम कर तैयारी कर रही थीं। सूर्पनखा गांव के ही सुधीर चाचा बनते हैं क्या गजब नाचते हैं। धर्ममंडल पर इतना रूपया गिरता है कि क्या कहें, इतना तो शायद ही किसी दिन रूपया चढ़ता हो। सूर्पनखा कम से कम ढ़ेढ घंटा नाचती है। ऐसी लचक, ऐसी अदा की हर कोई मोह जाता है बस राम लखन को छोड़कर। औरतों का बस चले तो वो उठकर सूर्पनखा को गले लगा लेतीं। उस दिन औरतें अपने रेडियो के खोल से तुड़े-मुड़े नोट निकाल लेती थीं। चायपत्ती के डिब्बे से दस बीस के नोट से लेकर टांड़ के कोने के टूटे बक्से में बड़ा सौ रूपया का नोट भी जग दर्शन करता था। यह दिन होता था जब धर्ममंडल पर औरतें रूपया गिराती थीं। मारे लाज के वो कहती कि सूर्पनखा के पाठ पर मोहित होकर फंलाने गांव की फंलाने की अम्मा धर्ममंडल को फलां रूपया रूपया दान करती हैं। एकाधी औरतें ही अपने नाम से रूपया दान करती थीं। बिना बच्चों वाली औरतें तो गुप्त दान भी करती थीं। वह नाच था ही ऐसा सम्मोहित करने वाला।

  मर्द तो रामलीला में रूपया लुटाते हैं, वैसे इस दिन को कभी कभी टक्कर रावण का दरबार भी देता है। जब रावण कहता है कि ‘मंत्री शराब लाओ और जाओ किसी गाने वाली को बुला लाओ।‘ फिर क्या रामनयन बौना की ढोलक तड़ाक-तड़ाक,धिन-धिन और उसी समूह से उछलकर टोपी को तिरछा करके महबूब पान भंडार के बब्बू अलग अवतार में आ जाते थे। टोपी टेढ़ी करके शुरू हो जाते– झूम बराबर झूम शराबी। उनके गले की नस बहुत फूली हुई थी। लड़की को लगता था कि वो बहुत देर तक आआँआआँ गाते हैं शायद इसीलिए नस इतनी फूली है। रावण के साथ पूरा गांव दरबार बनकर झूमने लगता था। वैसे रावण के दरबार में गाने-बजाने वालों बब्बू को छोड़कर कोई लाला नहीं है। लड़की ने यह बात सुनी हुई है। मिसराने की सूर्पनखा और ललाने के रावण के दरबार का नाच एकदूसरे के टक्टर में खड़े हो जाते थे।

लेकिन पिछले चार साल से सूर्पनखा का नाच सब पर भारी है। उस दिन मिसराने में विशेष इंतजाम होता था। जगह ज्यादा बनायी जाती थी। सूर्पनखा बनते थे लड़की के गाँव के सुधीर चाचा, उनके जैसी कमर शायद ही किसी की लचकती हो। उनकी आँखें,उनकी ऊँगलियां, उनकी ढोढीं सबकुछ ऐसे लगती जैसे स्वर्ग से कोई अप्सरा उतर आयी हो। ढ़ेरों घूंघरू बांधे वो पूरे स्टेज पर अपने पैर थरथराते थे। देर तक घूंघरू और ढ़ोलक। जैसे दो बड़ी चादरें बांध कर हौंक लगायी जा रही हो। हवा का एक झोंका उत्तर से आ रहा हो दूसरा दक्खिन से। दोनों के बीच पड़ी हर चीज उड़ने लगे। औरतें टूट पड़ती थीं। औरतों की ये आतुरता गाँव के पुरूषों को बहुत अखरती थी। सुधीर चाचा की महिलाओं में बड़ी पैठ थी इसका नतीजा ये हुआ कि जलनखोरी में उनका एक नाम मेहरा भी हो गया। आखिर औरतों जैसा कोई गुण होना तो खराब बात है ना।

लड़की आज बहुत खुश थी आज नार पर का मेला है। नार यानी खाई और खोह वाली जगह। यहां यादव लोग रामलीला खेलते हैं। यहाँ हर जाति की अपनी रामलीला थी। बस ब्राह्मण ठाकुरों की एक ही रामलीला थी। पिछले साल उनके बीच जम कर मारपीट हुई। गौरा बने बाले ठाकुर को खुजली हो रही थी वो रह रह कर दृश्य के बीच हाथ खुजा रहे थे, दर्शकों के बीच से मुक्कु यानि मुकूल तिवारी ने भुट्टे की ठेठी फेंकी और कहा ‘लो ठीक से खुजाय लो’ फिर क्या था जमकर मारपीट हुई।

हर किसी को लगा कि रामलीला नहीं होगी लेकिन जैसे तैसे करके एका हो ही गयी और मंडली फिर सज गयी। दूसरी जाति के लोग दूसरे गांव की रामलीला देखने जरूर आते थे। कभी कभी मार भी हो जाती थी। रामलीला के साथ मार का रिश्ता वैसे ही था जैसे रामलीला का परदा गिरते ही चोबदार की तोंद गिर जाती थी और लोग हंसते हंसते लुढ़कने लगते थे।

रामलीला में जाकर सोने वाली लड़की को इस दशहरे पर नयी फ्राक मिली थी। मां ने शहर से भिजवाया था। लड़की बहुत खुश थी। फ्राक में एक लटकन लगी थी। जिसमें दो मोती के दाने और छोटा सा कांच लगा हुआ था। कुल जमा ग्यारह बरस पार किये ये लड़की बारहवें साल में पांव धर रही थी। लड़की के पैर खुशी से सीधे नहीं पड़ रहे थे। उसकी बड़ी बहन का पन्द्रहवां साल लगा था और उससे छोटी बहन आठ साल की थी। घर पर यही तीनों रहते थे। मां, पिता के साथ शहर में थी। वहां उन्हें डाक्टर को दिखाना था। मां को क्या तकलीफ थी ये लड़कियों को नहीं पता था। कोई बताता कि अबकी बार उनकी माँ के पेट में लड़का आये इसीलिए डाक्टर और पंडित दोनों ने कहा है कि जगह बदल दो।

ये तीनों लड़कियां कभी चूल्हा तो कभी बुरादे की अँगीठी तो कभी स्टोव जलाकर खाना बना लेती थी। गाँव के बच्चों के लिए उनका घर अड्डा था। इकलौता यही घर था जहाँ कोई बड़ी उम्र का नहीं रहता था। तीनों लड़कियां खुद मुख्तार और अलग अलग स्वभाव की थी। बड़ी बहुत ही चंचल थी और गांव भर में घूमकर नये कपड़े दिखा चुकी थी। बीच वाली लड़की सबसे नाराज रहती थी,अकसर ही उसकी किसी न किसी से लड़ाई होती रहती थी और सबसे छोटी वाली लड़की बस अपने बाल खुजाती थी और फटी आंखों से हां में हां मिलाती थी। बीच वाली लड़की अभी अपनी फ्राक पर इतरा ही रही थी कि भटहा रंग की फ्राक पर बड़ी बहन की सहेली का दिल आ गया। उसने बड़ी बहन से कहा कि ‘मुझे ये फ्राक आज नार पर का मेला देखने के लिए पहनने दो। तुम्हारी बहन ललाने के मेले में पहन लेगी’। बड़ी लड़की पशोपेश में पड़ गयी। गांव भर में यही उसकी पक्की सहेली थी। उससे वो न मालूम कितने जहान की बातें करती थी और वो किसी से बताती भी नहीं थी। उसने न मालूम क्या सोच कर हामी भर दी।

सांझ गांव में उतरी। उसने चूल्हों की आग सुलगा दी और बर्तनों में लेवार लगा दिया। इतना करके सूर्य देवता बांस के कोटर में जाकर फंस गये। और वही कसमसाने लगे। बीच वाली लड़की ने बड़ी बहन से फुदकते हुए कहा  कि ‘वो भी बड़ी बहन के साथ नार पर मेला देखने जायेगी’। बड़ी बहन ने कहा कि ‘चलो लेकिन नयी वाली फ्राक आज नहीं पहनना वो अंजू पहनेगी। तुम ललाने के मेले के समय पहन लेना’। लड़की रोने लगी।

बड़ी बहन वैसे भी मेले को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं थी। कल सबके साथ वह भी ललाने की रामलीला देखने गयी थी। वो कल के रामलीला के बाद से ही कुछ उदास थी। वजह उसने नहीं बतायी। जब भी वो ललाने की लड़कियों को देखती थी तो कुछ उदास हो जाती थी। उन्हें देखकर उसके भीतर एक जलन भी होती थी। उसकी शादी हुए दो साल बीत चुके थे तीसरे बरस यानी अगले साल उसका गौना था। वो खीज कर बोली ‘मैं भी नहीं जाऊंगी, तुम लोग भी नहीं चलोगे’। तीनों लड़कियां उदास थी। बीच वाली गुस्सैल लड़की छुपकर दक्खिन वाले कमरे में रोने लगी। उसने कहा कि- मम्मी आयेंगी तो वो उसकी शिकायत करेगी। उसके पास यही इकलौती धमकी थी।

आज तीनों लड़कियों को अलग अलग वजह से माँ की याद आ रही थी। दक्खिन वाले कमरे में बड़े बड़े तीन घड़े रखे थे। उनका शायद ही इस्तेमाल होता हो लेकिन घर में ऐसी कई चीजें थी जिनका शायद ही कभी इस्तेमाल होता हो। तभी बड़ी लड़की को न जाने क्या सूझी। उसने मां की साड़ी को लपेट लिया। हाथ में बांस का एक कईन ले लिया। सुनो यहां आओ। छोटी बहनें उसके नजदीक आ गयीं।

‘चलो, हम लोग एक खेल खेलते हैं, मैं मम्मी हूं। तुम लोग मेला देखने की जिद कर रहे हो,तुम लोग मान नहीं रहे हो फिर मुझे गुस्सा आ गया और मैं तुम्हारी पिटाई कर रही हूं’।

छोटी लड़कियों को कुछ समझ नहीं आया लेकिन रोने का नाटक करना कहां कठिन है। लड़की ने जोर जोर से घड़े पर बांस की डंडी मारना शुरू कर दिया। लड़कियां चिल्लाने लगी- अरे चाची बचाओ! अरे मम्मी छोड़ दो!

बड़ी लड़की उनके चिल्लाते ही और जोर से कईन की सटाक लगाती। दोनों छोटी लड़कियां जोर जोर से चीखने चिल्लाने लगी। ‘अरे चाची, मम्मी मार रही है, अरे चाची बचाओ!

तभी पड़ोस की चाची ने जोर जोर से दरवाजा पीटना शुरू कर दिया।

बड़ी बहन को लगा कि उसका नाटक सफल हो रहा है। एक दर्शक ने उसे असली मान लिया है। वह और जोर जोर से घड़ा पीटने लगी। छोटी बहन चुप होने लगी तो उसे खींच कर एक चांटा मारा ‘चिल्ला जोर से’। दोनों बहनें और जोर से रोने लगी। दरवाजे पर तीन चार लोग आ गये थे और जोर जोर से पीटने लगे।

दरवाजा खोल! दरवाजा खोल!

लेकिन बड़ी लड़की पर मानो भूत सवार हो गया हो। वो और चीखने लगी और घड़ा पीटने लगी। तभी गांव के सुमेर चाचा पीछे के दरवाजे से आंगन में कूदे। उनके आते ही तीनो लड़कियां सन्न पड़ गयी। उन्होंने बड़ी बहन को खूब कस कर चांटा मारा। दरवाजा खुला जो भी अंदर आता सिर्फ लड़कियों को कोस रहा था।

मेला कोई नहीं गया। बीच वाली लड़की दक्खिन के कमरे में ही पड़ी रही। वहां एक डारा पड़ा था। बांस के डंडे पर रजाई-गद्दा चादर में बंधा था। अगर कोई उजाले से सीधे कमरे में आये तो सबसे पहले वही डारा टकराता था। बीच वाली लड़की के भीतर एक तुफान मचा था,ऐसे जीने से अच्छा है, मर जाऊं। मरने का ख्याल भी  ग्यारह साल की उम्र में नया नया आया था। उसने डारे पर मां की साड़ी बांधी। उसने सुना था कि लोग फांसी लगा लेते हैं। गांव में अभी कुछ ही दिन पहले एक बहू को मार कर टांग दिया गया था। उसको छत की कड़ी से लटकाया गया था। बीच वाली लड़की ने भी जाकर देखा था। उस दिन से उसे लगा कि वो ऐसे भी मर सकती है।

 वह क्यों मरना चाहती थी, उसे स्पष्ट नहीं था। ठीक वैसे ही जैसे बड़ी लड़की को ठीक ठीक नहीं पता था कि वो क्यों उदास है। ठीक वैसे ही जैसे तीसरी कोई बात पर सिर्फ हां हां क्यों करती है, नहीं स्पष्ट था। फिलहाल वो दुखी थी कि उसकी बहन ने उसकी फ्राक किसी और को दे दी या हो सकता है वो इस बात पर भी दुखी हो कि उसकी बहन को किसी और ने पीटा। उसने साड़ी बांधी। कमरे में अंधेरा भरा था। एक छोटा सा रौशनदान था, जहां रोशनी भी लकीरों में आती थी। लड़की ने जैसे ही लटकना चाहा। डारा टूट गया। लड़की घबरा गयी और जोर जोर से रोने लगी। रजाई-गद्दा गिर कर नीचे आ गया। बीच वाली बहन ने सोचा कि अब सचमुच में बड़ी बहन बहुत मारेगी कि तुमने डारा तोड़ दिया।

इस बीच सूरज बांस के झुरपुट से निकल कर कहीं छुप गया था। उसका नामोनिशान भी गायब हो गया था।

उसके जोर जोर से रोने पर भी बड़ी बहन कमरे में नहीं आयी। बीच वाली लड़की के आंसू सूख गये और गाल पर सफेद रंग की एक पांत सी बन गयी थी। वो खुद ही उठकर दूसरे कमरे में आयी। बड़ी लड़की वहीं चुपचाप बैठी थी। दोनों बहनों को पास बैठे देखकर तीसरी भी वहीं आ गयी।

बड़ी लड़की ने कहा ‘मैं तो मम्मी बन रही थी, उनकी याद आ रही थी। सच में तुम्हें नहीं मार रही थी’। कहकर वह रोनें लगी।

तीनों बहनें चिपक कर एक हो गयीं। उनके दुख से अंधेरा और घना हो गया जैसे रौशनी की एक फांक भी उस शाम की गवाही न देना चाहती हो।

आसमान पर नीम के पत्तों की चाँदनी तनी है। हवा हल्के से तस्वीर में सिहरन पैदा कर देती है। एक थरथराहट पूरे कैनवास पर होती है। हर वक्त नाराज रहनेवाली लड़की अब भरी पूरी औरत है। मौसम में बेवजह एक बेकरारी है। सांझ जल्दी घिरती है और इंतज़ार का दिया मध्यम सी रोशनी की आवर्ती बना देता है। हवा में एक खुनक है जो उसकी पलकों को सहला रही है। भादो बीत गया है। कुवार या अश्विन लग गया है-इसे मलय भी कहते है। हवा की पाती आती-जाती है। कभी पिछला तो कभी अगला… बार-बार उसे अपनी दोनों बहनें याद आ रही हैं। बड़ी बहन अब बहुत चुप रहने वाली औरत हो गयी है। कितना कम मिल पाती है वो उससे। और हां में हां मिलाने वाली उसकी छोटी बहन अब अपनी उम्र से बहुत बड़ी दिखने लगी है। इस मौसम में जो घास में नीले लौंग जैसे फूल खिल उठे हैं, वो उसकी बहनों की याद है। 

आज सुबह से ही वो अपनी बेटी को कभी कुछ बता कर तो कभी चुप रह कर अपनी बहनों को याद कर रही है। बेटी भी उससे कभी कुछ तो कभी कुछ पूछती जा रही है। अचानक से उसकी बेटी ने उससे  पूछा ‘माँ तुमने तो कांस के फूल देखे हैं ना। पता है, मैंने पहली बार ट्रेन रूकने पर देखा..’। उसने जवाब दिया ‘हाँ देखा है’।

वो मन ही मन सोचने लगी है कि गाँव में खिले सफेद कांस के फूल उसकी बहनों के सूखे आंसुओं की पांत है। 

—————————–समाप्त—————————

सविता पाठक की ये कहानी भी पढ़ सकते हैंः कहानीः सोनचंपा की पंखुड़ी

सविता पाठक
सविता पाठक
परिचय- सविता पाठक का जन्म जौनपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ है। शिक्षा विभिन्न शहरों से हुई है। हिन्दी की कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में लेख और कहानियाँ प्रकाशित। इसके अलावा सविता अनुवाद करती है। डा आंबेडकर की आत्मकथा वेटिंग फार वीजा का अनुवाद। क्रिस्टीना रोसोटी की कविताओं के अलावा कई लातीन अमरीकी कविताओं का अंग्रेजी से अनुवाद। पाखी के सलाना अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित। वीएस नायपाल के साहित्य पर शोध। हाल में ही इनका उपन्यास ‘कौन से देस उतरने का’ लोकभारती प्रकाशन से आया है जिसकी काफी चर्चा हुई। हिस्टीरिया और अन्य कहानियाँ नाम से कहानी संग्रह। फिलहाल सविता पाठक दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध एक कालेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन करती हैं।
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