समाजवादी नेता और चिंतक डॉ.राम मनोहर लोहिया के बचे-खुचे मित्र, साथी, पड़ोसी वगैरह 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड के सरकारी बंगले को बहुत शिद्दत के साथ याद करते हैं। राजधानी में लोहिया जी का कोई स्मारक तो नहीं है, पर उनके बंगले को उनकी मृत्यु के दशकों गुजरने के बाद भी उनके साथ जोड़कर ही देखा जाता है। आप पांच-सात मिनट में ही राम मनोहर लोहिया अस्पताल से 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड पैदल ही पहुंच सकते हैं। लोहिया जी को यह बंगला सन 1963 में फर्रुखाबादसे लोकसभा का उप चुनाव जीतने के बाद अलॉट हुआ था।
लोहिया के पहले पड़ोसी
लोहिया जी जब 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड में रहने लगे तो उस समय 6 नंबर के बंगले में रहते विलिंग्डन अस्पताल (अब राम मनोहर लोहियाअस्पताल) के प्रख्यात ह्दय रोग विशेषज्ञ डॉ.आर.के.करौली रहते थे।
उन्होंने बताया, ‘मैं सन 2003 तक 6 गुरुद्वारा रकाबगंज में रहा और रोज लोहिया जी के घर को देखकर उनके साथ बिताए दिन याद आ जाते थे। लोहिया जी फक्कड़ किस्म के शख्स थे। वे कई बार सुबह ही मेरे पास आ जाते थे। हमारी बातचीत ज्यादातर रामायण पर केन्द्रित रहती थी। चूंकि मैं शुरू से ही राम-हनुमान का अनन्य भक्त रहा हूं तो लोहिया जी से कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण, कृत्तिबासकी बंगला रामायण पर भी बात करता था। उनका रामायण को लेकर ज्ञान अद्भुत था।’
डॉ. करौली का भी पिछले साल निधन हो गया था। वे 92 साल के थे।
रमा मित्रा और लोहिया की कहानी
लोहिया जी के घर में राजनीतिक लोग ही नहीं आते थे। उनकी मित्र मंडली में कवि और चित्रकार जे.स्वामीनाथन, कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति, रघुवीर सहाय, वेदप्रताप वैदिक भी शामिल थे। चित्रकार एम.एफ.हुसैन भी 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड में आते थे। हुसैन साहब तब युवा थे। लोहिया जी की सलाह पर ही उन्होंने रामाण और महाभारत पर अपनी बेहतरीन पेंटिग्सकी सीरिज बनाई थीं।
मिरांडा हाउस में टीचर रमा मित्रा भी उनके घर में ही मिलती थीं। कहने वाले कहते हैं कि राम मनोहर लोहिया और रमा मित्रा के बीच प्रेम संबंध थे। लेखक अक्षय मुकुल ने एक जगह लिखा है कि दोनों के प्रेम संबंधों के बारे में लोहिया के खतों से पता चलता है। कई बार तो दिन में तीन-तीन खत लिखते। उनके खत उनकी राजनीति की तरह ही खुले और स्वच्छंद होते थे। उस समय बिना शादी के एक व्यक्ति के साथ खुले तौर पर उस तरह रहना जैसा कि लोहिया और मित्रा रहते थे, वह साहस और दृढ़ विश्वास का काम था।
लोहिया राजनीति और व्यक्तिगत जीवन दोनों में जुनूनी थे। मित्रा को लिखे पत्रों में वे एक ऐसे व्यक्ति दिखाई देते हैं, जो प्यार में पागल है।
लोहिया जी के कई करीबी बताते हैं कि उन्हें याद नहीं आता कि उन्होंने अपने घर में कभी अपने जन्म दिन 23 मार्च पर कोई कार्यक्रम रखा हो। वैसे, 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड पर आने वाले हर शख्स का मुंह तो मीठा करवाया जाता था। वहां पर मिठाई हमेशा रहती थी। लोहिया जी को रसगुल्ले खाने और खिलाने का बहुत शौक था।
‘दाम बांधों’ और ‘जाति तोड़ो’
लंबे अरसे तक रफीमार्ग स्थित यूएनआई बिल्डिंग लॉन या विट्ठल भाई पटेल हाउस के लॉन में बैठकर राजनीतिक चर्चा करने वाले समाजवादी लोहिया जी के ‘दाम बांधों’ और ‘जाति तोड़ो’ जैसे नारों तथा तमाम किताबों पर चर्चा करते हुए 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोज का जिक्र करना नहीं भूलते। एक बार समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा बता रहे थे कि लोहिया जी के घर में उनके द्वारा शुरू की गई पत्रिका ‘जन’में लिखने वाले भी खूब पहुंचते थे।
लोहिया जी तमाम मसरूफियतके बावजूद ‘जन’की टीम के साथ उसके कंटेट पर बात करते थे। तब ‘जन’से ओमप्रकाश दीपक और अशोक सक्सेरिया जैसे जन धड़कन से जुड़े पत्रकार जुड़े थे। अशोक सक्सेरिया हिन्दुस्तान अखबार में भी रहे थे।
दिल्ली कब आए थे लोहिया?
लोहिया जी संभवत: पहली बार रहने के लिए 1963 में दिल्ली आए थे। वे तब फर्रुखाबाद से लोकसभा का उप चुनाव जीते थे। पर उनका दिल्ली आना-जाना पहले से ही था और वे दिल्ली को करीब से जान-समझ रहे थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी में दशकों पढ़ाते रहे प्रो. राजकुमार जैन का भी डॉ. लोहिया सेघनिष्ठ संबंध था।
उन्होंने बताया कि लोहिया जी ने सितंबर 1959 में एक लेख “दिल्ली जो देहली भी कहलाती है” शीर्षक से लिखा था। उसमें लोहिया जी ने लिखा- “मैंने एक रात भारतीय इतिहास के इस सुनसान खंडहर (तुगलकाबाद के किले) में बिताई और मै एक बार फिर ऐसा करना चाहता हूं ताकि मैं उसके रहस्य को खोज सकूं। तुगलकाबाद सबसे बड़ा नगर था। हालांकि यह आज खंडहर बना है, आज भी वह बेजोड़ है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने सारी दुनिया में इतना विशाल किला देखा।”
लोहिया घुमक्कड़ थे। उनके दिल्ली पर लिखे निबंध से साफ है कि उन्होंने इस शहर की बहुत खाक छानी थी। वे इसके इतिहास, वैभव, विदेशियों के हमले, यहां के किलों, संस्कृति के बारे में दूसरे देशों की राजधानियों से तुलना करते हैं। डॉ. राजकुमार जैन बताते हैं कि लोहिया जी दिल्ली के इतिहास और समाज को करीब से जानने की कोशिश करते थे।
लोहिया जी ने दिल्ली पर लिखा- “इतिहास पूर्व की कृष्ण कथाओं में दिल्ली के पूर्व रूप इंद्रप्रस्थ को वैभवऔर छल- बल की नगरी कहा गया है, जिसका निर्माण ही वर्तमान शासक को छोड़ अन्य सभी को नीचा दिखाने के लिए हुआ है। दिल्ली का इतिहास लगभग 750 वर्ष पूर्व शुरू होता है। दिल्ली ने अपने हर नए विजेता के लिए अपना स्थान बदला। संभवत: वह पुरानी यादों से अपने को परेशान नहीं करना चाहती थी। आठ से कम शताब्दियों में 15 मील के घेरे में सात दिल्ली या सात दिल्लीया’ बसी और कुछ के अनुसार आठ।”
सप्रु हाउस से कॉफी हाउस
लोहिया जी जब दिल्ली में होते थे तब वे सप्रु हाउसलाइब्रेरी और कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस में मित्रों के साथ बैठकी के लिए जरूर जातेथे। कभी-कभी तो वे कॉफी हाउस में जाने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ पैदल ही अपने घर से कनॉट प्लेस निकल लेते थे। वेकनॉट प्लेस के कॉफी हाउस में जाकर वहां के मुलाजिमों से बात करते थे। लोहिया कॉफी हाउस की बहस-मुबाहिसा से भी काफी जानकारी पाते थे।
यहाँ तक भी कि, पानवाला, सड़क के किनारे चाय बेचनेवाले, जूते की मरम्मत पालिश करने वालों के साथ बातचीत से उन्हें वैचारिक मंथन में मदद मिलती थी।
राज कुमार जैन बताते हैं- कनॉट प्लेस का कॉफी हाउस, जहाँ अब नई दिल्ली का भूमिगत पालिका बाज़ार है, पहले वहाँ पर थियेटर कम्यूकेशन बिल्डिंग होती थी, उसकी बगल में यह कॉफी हाउस होता था। 1976 के आपातकाल में इसे तोड़ दिया गया था। कॉफी हाउस दिल्ली का सबसे बड़ा राजनीतिक वैचारिक मुठभेड़ों का अड्डा होता था।
वे बताते हैं, ‘कई मेजें बिना रिजर्व किए भी एक प्रकार से रिजर्व होती थी, कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों तथा कुछ पुराने प्रगतिशील कांग्रेसी वहाँ नियमित रूप से आते थे वे अलग-अलग अपने और साहब ग्रुपों में बैठते थे। सम-सामयिक विषयों पर ज़ोर-शोर से बहस चलती रहती थी। दिल्ली के बाहर से आनेवाला लगभग हर सोशलिस्ट नेता, कार्यकर्ता, अगर कॉफी हाउस न आए तो समझो कि उसका दिल्ली आगमन निरर्थक है।’
लोहिया जी अपने घर से कॉफी हाउस से कई बार पैदल ही हुसैन साहब, प्रो॰ रमा मित्रा, साहित्यकार श्रीकांत वर्मा, प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट राजेन्द्र पुरी के साथ पहुंच जाते थे। लोहिया साहब के कॉफी हाउस में आते ही वहां हलचल बढ़ जाती थी। उनकी मेज के इर्द-गिर्द जमघट हो जाता था। कॉफी हाउस के कामगारों को जैसे हीपता चलता कि लोहिया जी आये है वे अपना काम छोड़कर उन्हें नमस्कार करने तथा उनके पैर छूने का प्रयास करते थे परंतु लोहिया जी पैर छूने को सख्ती से मना करते थे।
जब निकली लोहिया जी की शवयात्रा
कॉफी हाउस के बाद वे पैदल ही 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड चल कर जाया करते थे। लोहिया जी की अंतिम यात्रा 12 अक्तूबर,1967 को 7 गुरुद्वारा रोडसे जब कनॉट प्लेस होकर निकली तो कॉफी हाउस के तमाम मुलाजिम उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए पहुंच गए थे। कौन सा दिल्ली वाला होगा जिसका कभी ना कभी राम मनोहर लोहिया अस्पताल (आरएमएल) में अपने या अपने किसी खासमखास के इलाज के लिए आना ना हुआ हो। अब भी 55-60 पार कर गए दिल्ली वाले इसे विलिंग्डन अस्पताल ही कहते हैं।
इसका 1977 में नाम बदला था। इस अस्पताल में राम मनोहर लोहिया का 1967 में इलाज चल रहा था जब उनकी मृत्यु मौत हुई थी। जनता पार्टी की 1977 में सरकार बनने के बाद विलिंग्डन अस्पताल का नाम कर दिया गया राम मनोहर लोहिया अस्पताल। 7 रकाबगंज रोड से करीब ही तो है आरएमएल।