Monday, November 3, 2025
Homeकला-संस्कृतिकहानीः सोचनेवाला जीव

कहानीः सोचनेवाला जीव

विगत कुछ वर्षों में हिंदी कथा परिदृश्य पर जिन युवा कहानीकारों ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है, प्रीति प्रकाश उनमें प्रमुख हैं। कामकाजी स्त्रियों की सामाजिक- राजनैतिक चेतना को दर्ज करती इनकी कहानियों ने स्त्री कहानी के फलक का अर्थपूर्ण विस्तार किया है। इनकी नवीनतम कहानी ‘सोचनेवाला जीव’  पशुपक्षी और मनुष्य के जीवन की सनातन पारस्परिकता को तो रेखांकित करती ही है, समकालीन चुनावी राजनीति की दुरभिसंधियों को भी पहचानती है। लगभग नीतिकथा के पारंपरिक शिल्प में लिखी गई यह कहानी अपने समकाल में सार्थक और जरूरी हस्तक्षेप करती है।

सत्येन्द्र सुमित ने जब बत्तख पालन का सोचा तो किसी ने उसका मजाक नहीं उड़ाया। चाय बेचने से तो यह बेहतर ही था और बेरोजगार होने से ज्यादा सम्मानजनक। पुश्तैनी जमीन भी थी, सो तय हुआ कि एक कोने वाली जमीन को ही बत्तख फ़ार्म में बदला जाएगा। इस जमीन पर झाड झंखाड़ उग आये थे और तल ज़रा नीचे होने से अक्सर पानी जमा रहता।  जल्द ही उस जमीन की घास फूस को आग लगाकर जलाया गया, फिर पुराने टीन की चादर से उसे घेरा गया, टीन की चादर को ही बांस के सहारे खड़ा करके एक शेड बनाया गया। जमीन पर कंकड़ पत्थर बिछा दिए गए और फिर बगल वाली राइस मिल से सत्येन्द्र ने धान की भूसी, बोरे में लाकर जमीन पर बिखेर दी। इससे बत्तख हमेशा दाना चुग सकते थे।  जिस दिन सत्येन्द्र बत्तख के दस चूजों को खरीद कर वहां लाया, उसकी माँ ने फ़ार्म पर दिया जलाया और बत्तख के बच्चों के माथे पर तिलक लगाया। सत्येन्द्र की पत्नी अपने बच्चे को गोद में लिए वही खड़ी रही और उसका बच्चा, बत्तख के बच्चों को देखकर खुश होता रहा।

                               2

शुरु-शुरू में बत्तख के बच्चों को यहाँ अजीब लगा।  वो शेड में एक कोने में दुबके रहते।  कई बार सत्येन्द्र की पत्नी जब स्टील की बाल्टी में जूठन लेकर उन्हें देने आती तो उसे वो नजर ही नहीं आते।  जब वो खाना रखकर चली जाती तो भी वो डरते-डरते डब्बे तक आते और थोडा बहुत खाकर ज़रा सी आहट पर फिर शेड में जा छुपते। 

धीरे-धीरे बरसात आ गयी।  आस पास के पेड़ों पर रहने वाले दूसरे पक्षियों को खाना ढूँढने में दिक्कत होने लगी लेकिन बत्तख फार्म पर खाना भरपूर था। काले कव्वे, चितकबरे कबूतर, नन्ही गौरैया और नखरीली मैना सब बत्तख फ़ार्म पर सुबह शाम धमकने लगे। सबसे ज्यादा चांदी तो कबूतरों की थी। वो पास ही बरगद के पेड़ पर रहते थे बारिश के मौसम में जब उन्हें लम्बी उड़ाने भरनी होती हो आसमान के छोर नापने लगते और  भूख लगने पर सीधा बत्तख फार्म में उतर कर दाना टूंगने लगते। पर जैसे ही बारिश शुरू होती तुरत फुरत में अपने घोंसले में जा छुपते।

बत्तख के बच्चे शुरू-शुरू में इन पड़ोसी पक्षियों से घबराते थे। कौवे की आवाज भयावह थी, तो मैना के नखरे खतरनाक लगते। पर कबूतर उन्हें ज्यादा लुभाते थे।  वे उन्हें ज़रा पहचाने से लगते, जरा अनजाने से। रंग तो उनसे मिलता जुलता ही था, पर मुंह खूब फुलाते थे और गर्दन खूब हिलाते हैं। तो एक दिन शेड़ में छुपे-छुपे उबांसी भर रहे बत्तख के बच्चों ने तय किया – चलो इनसे मिलकर आते हैं, थोड़ी जान पहचान बढ़ाते हैं।

 वो बहुत धीरे-धीरे एक लाइन में शेड से बाहर निकले। कबूतरों  उन्हें इस तरह निकलते देखा तो हंस पड़े।

‘अरे, ऐसे तो स्कूल के बच्चे निकलते हैं!’

बत्तख के बच्चों ने जवाब देने के बजाय सवाल किया- ‘क्या हम भी दाना खा सकते हैं?

अबकी सारे कबूतरों की हँसी छुट गयी।

‘अरे, ये सब तो तुम्हारे लिए ही हैं ।खाओ खाओ खूब खाओ।’

तभी दो तीन कौवे, कांव कांव करते वहाँ आ गए। बत्तखों ने उनकी कर्कश आवाज सुनी तो एक कोने में जाकर फिर से दुबक गए।थोड़ी देर में कबूतरों का भी पेट भर गया और वो भी उड़ गए।

अगले दिन भी ऐसा ही हुआ और उसके अगले दिन भी।अब रोज बत्तख के बच्चों और कबूतरों के बीच थोड़ी गुटुर गू और क्वैक क्वैक होने लगी।

                                           3

एक दिन सुबह जब सत्येन्द्र सुमित खाना पानी लेकर शेड तक पहुंचा उसने देखा चावल की भूसी, आधी ख़तम हो चुकी है।

‘बत्तख के बच्चे तो इतनी जल्दी इसे ख़तम नहीं कर सकते। ये जरूर कुछ शैतान पक्षियों का काम है।’ उसने सोचा और वहीँ डंडा लेकर बैठ गया। कबूतरों के आने का समय हो रहा था, वो आये और अभी शेड पर  ही बैठे थे कि सत्येन्द्र सुमित ने उनकी तरफ एक कंकड़ दे मारा। फिर लाठी से उन्हें धमकाया।

सारे कबूतर उड़ गये।

अगले दिन भी यही हुआ और उसके अगले दिन भी।

चौथे दिन जब सत्येन्द्र सुमित नहीं था तभी कबूतर नीचे उतरे। दाना के साथ ही सत्येन्द्र की पत्नी ने रात का बचा खुचा खाना एक डब्बे में और पानी दुसरे डब्बे में भर दिया था।कबूतर मजे में खाने लगे।

बत्तख के बच्चे भी अब थोड़े बड़े हो रहे थे। कबूतरों को दाना चुगते देख उन्हें खुशी हुई।

‘चलो अच्छा हुआ, आज हमारा मालिक नहीं है।वरना होता तो तुम्हे उड़ा देता। ’ कबूतरों ने कुछ जवाब नहीं दिया।बस दाना चुगते रहे।

‘वैसे कितना अच्छा होता न, अगर तुम्हारा भी कोई मालिक होता। फिर तुम्हे भी दाने की खोज में भटकना नहीं होता।  पानी के लिए घड़े में कंकड़ नहीं डालना होता। पर तुम्हारी फूटी किस्मत!’  बत्तख के बच्चे को कबूतरों पर तरस आ रहा था।

‘ओ प्लीज, स्टॉप योर नॉनसेंस’ एक कबूतर ने बत्तख के बच्चों को झाड़ा।

 कबूतर की अंग्रेजी से सारे बत्तख सहम गए।

‘तुम्हे क्या लगता है कि ये खाना पानी और प्रोटेक्शन तुम्हारा मालिक तुम्हे ऐसे ही दे रहा है?’ दूसरा कबूतर आगे आया। 

‘हाँ, और नहीं तो क्या?’

‘अच्छा!  अगर तुम ऐसा सोचते हो तो मैं कहूँगा कि तुम सिर्फ फार्म के बत्तख नहीं, कुएं के मेढक भी हो’ तीसरे ने बात आगे बढ़ाई!

‘ भाईयो और बहनों, इस दुनियां में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता’ ये चौथा कबूतर था।

और हाँ घड़े में कंकड़, कबूतर नहीं कौवे डालते हैं’ पांचवे कबूतर ने अपनी बात कही और फिर सारे एक साथ उड़ चले।

                                         4

उस रात सारे बत्तख, कबूतरों की बात भूल कर एक दुसरे में चिपक कर सो गए। केवल भूरे बत्तख को नींद नहीं आ रही थी। भूरे बत्तख का रंग गाढ़ा भूरा था।  मालिक और मालकिन दोनों उसको देखकर चकित होते और उसका नाम भूरा रख दिया। भूरा बत्तख सोच रहा था-

‘मालिक और मालकिन उन्हें कितना प्यार करते हैं। उनके लिए शेड बनवाया ताकि वो धूप और बारिश से बचे। जमीन पर दाने बिखेर दिए ताकि वो कभी भूखे नहीं रहे। उनके लिए वो रोज खाना पानी लाते हैं। फिर कबूतर ऐसा क्यों कह रहे थें कि दुनियां में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता। भूरा रात भर सोचता रहा।

वह बार बार सोचता कि मालिक अगर उसे मुफ्त में दाना पानी नहीं दे रहा तो फिर क्यों दे रहा है? बदले में वो क्या लेगा ये सोच कर ही उसे बड़ी घबराहट होती।  अब उसे कुछ अच्छा नहीं लगता। मालिक का बेटा जब उसके साथ दौड़ता तो वो सहसा ठहर जाता। मालिक की पत्नी जब उसे पुचकारती तो वो गर्दन झुका लेता।  और वो कर भी क्या सकता था, आखिर था तो बत्तख का ही बच्चा। दिन गुजरने लगे, बरसात बीत गयी। अब बत्तख फार्म पर बत्तख के बच्चे नहीं, बड़े-बड़े आकार के बत्तख नजर आने लगे थे। सुडौल आकार में ढले बत्तख, बड़े- बड़े पंख फड़फड़ाते बत्तख। जब मालकिन खाना लेकर आती वो इतनी जोर से क्वैक क्वैक करते कि आस पास के दुसरे पक्षी-जानवर तक समझ जाते कि उनका खाना आया है। लेकिन भूरे बत्तख की हालत ठीक नहीं थी। वो न तो ठीक से खाता न सोता। दूसरे बत्तखो की तुलना में  वो मरियल सा था, और कमजोर लगता था।

                                            5

चुनाव आ रहे थे। भूतपूर्व विधायक जी के घर सुबह शाम भोज चल रहा था। कई सारे लोग बैठक जमाए बैठे रहते। कभी किसी बात पर ठठाकर हंस पड़ते, कभी किसी गहरी बहस में डूबे से लगते। बेरोजगार युवाओं की तो चांदी हो गयी थी। एक दिन का पांच सौ रुपया मिलता और मोटरसाइकिल की टंकी सुबह- सुबह नेता जी फुल करवा देते। दिन भर युवा जिला की सड़कों पर पार्टी का झंडा लगाए मोटरसाइकिल घुमाते। जब भूख लगती वापस नेता जी के डेरे पर धावा बोल देते और सुस्वादु व्यंजन का लुफ्त उठाते। नेता जी के आवास पर स्वर्ग उतर आया था, किसी चीज की कमी नहीं थी।

बीच बीच में जब कोई विशिष्ट व्यक्ति उनके डेरे पर आता तो उस दिन भोजन की गुणवत्ता में भी विशिष्टता आ जाती। एक दिन नेता जी ने कुछ अतिविशिष्ट दूसरे पार्टी के समर्थकों को खाने पर बुलाया था। आज कोई आम सा भोजन तो पक नहीं सकता था सो सत्येन्द्र सुमित को खबर और मनमाफिक पैसे भेजे गए। विधायक जी के चार आदमी आये, बत्तख के पैरों को रस्सी से बाँध कर साइकिल पर उल्टा लटका दिया। भूरे की हालत देख वो उसे नहीं ले जाना चाहते थे लेकिन सत्येन्द्र सुमित से तो हुंडा पर बात हुई थी। बत्तख क्वैक-क्वैक करते रह गए और सत्येन्द्र पैसे गिनता रह गया। उसने एक नजर भी बत्तखों पर नहीं डाली।

बत्तखों की बारात जब नेता जी के आवास पर पहुँची तो वहां काफी भीड़ सी लगी थी। पर उल्टे बंधे बत्तखों को सब उल्टे ही नजर आ रहे थे। आदमियों ने उन्हें वैसे ही जमीन पर पटका और एक बड़ी सी टोकरी से ढक दिया।

‘आज तो जबरदस्त दावत होगी’ लोगों में कानाफूसी होने लगी। कुछ उत्साही लोगों ने तो खानसामे के आस पास ही डेरा डाल लिया। खानसामा एक पुराना आदमी था, यूं तो उसे घर की रसोई से फुर्सत न मिलती लेकिन चुनाव भर उसकी रसोई बाहर मैदान में एक शेड में ही लगी रहती। मैदान में बैठे या घुमते लोगो को जब उसके व्यंजन की खुशबू आती तो उनकी भूख दोगुनी हो जाती और दिमाग ठस हो जाता। आज तो बिना खुशबू के ही सब रसोई के आस-पास डोल रहे थे। खानसामे ने एक-एक कर बत्तखों की गर्दन मरोडनी शुरू कर दी। यह तो उसका रोज का काम था। कुछ जानने वाले तो कहते कि वो अब उनकी भाषा भी समझने लगा था। गर्दन मुड़ने के ठीक पहले जब मुर्गे, तीतर या बटेर चीत्कार करते तो उसे बड़ा दुःख होता। वो इस पाप को मिटाने के लिए रोज पूजा करता और हर नहान, गंगा जी के दर्शन करता।

टोकरी में बंद बत्तखो को तो पता ही नहीं चला कि कब उनकी किस्मत पलट गयी। अन्दर अँधेरा था और उनके पाँव बंधे थे। जैसे ही खानसामा टोकरी में हाथ डालता वो एक कोने में छुपने लगते। खानसामा उन्हें जोर से खींचता तो वो शोर मचाते। एक चाकू से खानसामा उनके पाँव में बंधी रस्सी काटता और फिर चटाक से गर्दन मरोड़ देता। फिर अपने शागिर्द की तरफ फेंक देता जो धारदार चाकू से उनके पंख छील बोटियाँ काटने लगता। सबसे आखिर में भूरे बत्तख की बारी। वो बिना शोर मचाए टोकरी से बाहर निकला।

‘कुछ भी कहो, विधायक जी हैं तो दिलदार आदमी। डक मीट खिला रहे हैं।’ अचानक से पास खड़े एक आदमी ने कहा।

भूरे बत्तख ने उसकी तरफ मुंडी घुमाई और कुछ कहा। खानसामे का चाकू लिया हाथ हवा में ही ठहर गया।उसकी आँखे अचरज से फ़ैल गयी।

आदमी ने खानसामे से पूछा। इसने मुझसे कुछ कहा क्या?  मुझे ऐसा क्यों लगा कि ये मुझसे कुछ कह रहा था। इसने क्या कहा?

खानसामा थोड़ी देर चुप रहा, फिर गंभीर आवाज में बोला- ‘सिर्फ कहा नहीं है, सवाल किया है इसने। तुमसे पूछा है कि मुफ्त खाने की कीमत मैं जान देकर चुका रहा हूँ। तुम क्या देकर चुकाओगे?’

थोड़ी देर तक वहां मौजूद सभी लोगों को सांप सूंघ गया। खानसामे ने भूरे बत्तख की गर्दन बिना मरोड़े ही अपने शागिर्द को सौप दी।

‘ले भाई, ये सोचने वाले जीव की हत्या का पाप मुझे नहीं लेना। तू ही निपटा’ कहा और टेंट से बाहर निकल गया।

———————————–समाप्त————————————

डॉ प्रीति प्रकाश
डॉ प्रीति प्रकाश
नाम- डॉ प्रीति प्रकाश जन्म 28. नवम्बर 1992 को बिहार में। वर्तमान में प्रखंड अनुजाति एवं जनजाति कल्याण पदाधिकारी के पद पर सीतामढ़ी में कार्यरत। प्रकाशन - हंस, कथादेश, वागार्थ, समालोचन, पक्षधर, वर्तमान साहित्य आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियों का प्रकाशन। पुरस्कार- वर्ष 2019-2020 का राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान। शब्द बिरादरी सम्मान, 2025 । ईमेल- [email protected]
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments

प्रताप दीक्षित on कहानीः प्रायिकता का नियम
डॉ उर्वशी on कहानीः इरेज़र
मनोज मोहन on कहानीः याद 
प्रकाश on कहानीः याद 
योगेंद्र आहूजा on कहानीः याद 
प्रज्ञा विश्नोई on कहानीः याद 
डॉ उर्वशी on एक जासूसी कथा