महाराष्ट्र-झारखंड के विधानसभा चुनाव और उपचुनावों में भी विपक्ष संविधान की रट लगाता रहा। ऐसा लगता है कि आम चुनाव के हलके राहतकारी नतीजों से उसे कोई जादू का मंत्र हाथ लग गया है। उसे लगता है कि संविधान की टेर लगाकर चुनाव में सीटें जीती जा सकती हैं। क्या वाकई संविधान का चुनाव के नतीजों से कोई लेना-देना है? जबकि संविधान-प्रदत्त यही चुनावी तंत्र इस देश में संवैधानिक इमरजेंसी लगाने वाली इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक सबको बराबर सहजता से पैदा करता है? तीन दिन बाद 26 नवंबर है, तो यह सवाल मौजूं दिखता है।
संविधान सभा ने अपना तैयार किया भारत का संविधान 26 नवंबर को आज से पचहत्तर साल पहले अपनाया था। संविधान लागू भले उसके दो महीने बाद 26 जनवरी, 1950 को हुआ लेकिन 26 नवंबर 1949 की अहमियत इसलिए है क्योंकि करीब तीन बरस की कड़ी मेहनत, बहस मुबाहिसों और असहमतियों से पार पाते हुए संविधान सभा ने इतने विशाल और प्राचीन देश को चलाने का एक मुकम्मल खाका सबकी सहमति से पूरा किया। संविधान निर्माताओं की इस मेहनत को हमारा सलाम है। इसके पचहत्तर वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया जाना स्वाभाविक है। लेकिन ठहरें…
छब्बीस नवंबर को संविधान दिवस 2015 के पहले नहीं कहा जाता था। इसे कानून या विधि दिवस कहते थे। नरेंद्र मोदी की सरकार जब 2014 में केंद्र में आई, तब उसने यह बदलाव किया। 19 नवंबर, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने मुंबई में डॉ. बीआर आंबेडकर समता स्मारक में उनकी विशाल प्रतिमा की नींव रखते हुए 26 नवंबर को संविधान दिवस घोषित किया। इस संबंध में एक गजेट अधिसूचना निकाली गई। इसके बाद से इस दिन का महत्व बिलकुल स्पष्ट हो गया। यह कानून का नहीं, समूचे संविधान के जश्न का दिन बन गया।
इसके बाद संविधान का प्रतीकात्मक महत्व लगातार बढ़ता गया। अभी जब 4 जून को आम चुनाव के नतीजे आए, तो हमने देखा कि प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के दौरान नरेंद्र मोदी ने संविधान को सिर माथे से लगाया। यह बात अलग है कि सत्तापक्ष का नेता चुनने के लिए जीते हुए राजनीतिक दल के सांसदों की बैठक बुलाने की जो संवैधानिक प्रक्रिया है, उसे ताक पर रख दिया गया। भाजपा संसदीय दल की बैठक ही नहीं हुई और मोदी तीसरी बार अपने आप प्रधानमंत्री बन गए। याद करिए, पहली बार जब वे प्रधानमंत्री बने थे, तब संसद में प्रवेश से पहले वे दरवाजे पर दंडवत हो गए थे लेकिन इसी संसद से डेढ़ सौ विपक्षी सांसदों को स्पीकर द्वारा निकाले जाने अप्रत्याशित और कुख्यात कार्रवाई भी मोदी के राज में ही हुई।
यानी, संविधान को माथे से लगाकर, संसद के सामने लेटकर या संविधान दिवस घोषित कर के भी संवैधानिक प्रक्रियाओं की धज्जियां बड़ी आसानी से उड़ाई जा सकती हैं। कह सकते हैं कि संविधान को महज कागज का पुलिंदा मानकर अगरबत्ती दिखाने का बढ़ता हुआ कर्मकांड इसी बीते दशक में चलन में आया है, जब सरकारी संविधन दिवस मनाया जाने लगा है। सुनने में यह चिंताजनक लग सकता है। क्या इसीलिए पिछले कुछ वर्षों से संविधान को खतरा बताया जा रहा है? आखिर मतलब क्या है संविधान पर खतरे का? और किससे खतरा है उसे? उस सरकार से, जिसने खुद संविधान दिवस घोषित किया?
यह अजीब बात लग सकती है। इसे समझने के लिए हमें दुनिया के उन देशों की ओर देखना होगा जहां बीते दशकों में संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के रहते हुए लोकतंत्र का पतन हुआ है। लोकतंत्र यानी जनता के चुने हुए नुमाइंदों का राज तकनीकी रूप से भले ही संविधान की देन है, लेकिन वह संविधान का मोहताज नहीं होता।
इतिहास गवाह है कि पेरू से लेकर अमेरिका, बोलीविया से लेकर अफ्रीका और बांग्लादेश से लेकर श्रीलंका तक लोकतंत्रों का खात्मा संविधान और चुनाव को छेड़े बगैर किया गया है। इसलिए जब कोई हमसे यह कहता है कि फलाना सरकार संविधान को खत्म कर देगी, या चुनाव करवाना बंद कर देगी, तो हमें इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि संविधान खत्म कर के चुनी हुई सरकारों का तख्तापलट करने वाला दौर पचास साल पीछे छूट चुका है। आज, संविधान का नाम लेकर ही संवैधानिक कसौटियों का गला घोंटे जाने का फैशन है। बेहतर कहें, तो संविधान और चुनाव वास्तव में संवैधानिक लोकतंत्र का गला घोंटने की आड़ बन चुके हैं।
बीते चार दशकों में दुनिया की गति बताती है कि संविधान को बचाना लोकतंत्र को बचाने की कोई गारंटी नहीं है। लोकतंत्र तब भी मर सकता है जब संविधान, चुनाव, अखबार, संस्थाएं, न्यायपालिका, सब के सब सुचारु रूप से काम करते रहें। इसीलिए लोकतंत्र का मरना आजकल दिखता नहीं। यह बहुत धीमी और अदृश्य प्रक्रिया है।
लोकतंत्र वास्तव में कुछ अलिखित, अनौपचारिक, कसौटियों और परंपराओं से बचता है। इन्हें हम साझा मूल्य कह सकते हैं। ऐसे मूल्य, जिन पर हमारा समाज परंपरागत रूप से आपस में सहमत रहा है और जिनके आधार पर संस्थाएं अपना काम करती हैं। जैसे, सबका कल्याण होना चाहिए, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को दुश्मन नहीं मानना चाहिए, बोलने-चालने में संयम होना चाहिए, एक-दूसरे के रहन-सहन के प्रति सहनशील होना चाहिए, विचारों में संवाद होना चाहिए चाहे- वे कितने ही विरोधी क्यों न हों। ये ऐसे मूल्य हैं जो संविधान की प्रस्तावना में नहीं लिखे हैं, लेकिन प्रस्तावना में वर्णित संवैधानिक मूल्यों का आधार हैं।
इसका अर्थ क्या है? जब हम समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व की बात करते हैं तो इस बात को भी साथ ही समझ रहे होते हैं कि समाज में ये चीजें हकीकत में उपलब्ध नहीं हैं। कहीं नहीं दिखती हैं। फिर सवाल आता है कि इन मूल्यों तक समाज को पहुंचाया कैसे जाए? यह सच है कि पांच हजार साल के सामाजिक इतिहास ने समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व को ऐसे स्वयं सिद्ध मूल्य की तरह स्थापित कर दिया है कि इनसे कोई नींद में भी इनकार नहीं कर सकता, लेकिन ये अपने आप घटने वाली चीजें नहीं हैं। जैसे आधुनिक से आधुनिक गाड़ी को चलाने के लिए भी ईंधन चाहिए, वैसे ही समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए एक ईंधन चाहिए। वह ईंधन क्या है? हमारा अपना व्यवहार! यानी, हम जो भी कुछ करें, वह इन मूल्यों पर हमारे विश्वास से संचालित हो। यानी, हमारी कथनी और करनी में कोई फर्क न रहे।
आप पूछेंगे, ये तो ठीक बात है लेकिन ऐसा कैसे करें। यहीं पर अनौपचारिक और अलिखित सामाजिक परंपराएं काम आती हैं। अपने व्यवहार को आप सहिष्णु रखें, संवादी रखें, सामने वाले के प्रति सम्मान रखें, बोलने में संयम रखें, अपने रसूख या पद का प्रयोग करने में खुद पर नियंत्रण रखें, और विपक्षी विचार वाले को दुश्मन न मानें। यानी, हमारा सामाजिक व्यवहार ऐसा हो जो बांटे नहीं जोड़े क्योंकि समाज तो पहले से ही बंटा हुआ है। उसे और बांटने वाला व्यवहार मूल्यविरोधी होगा। यही सब बात तो हमारे बड़े-बूढ़े, संत महात्मा, विचारक दार्शनिक सिखा गए हैं। हां, ये तरीके संविधान की प्रस्तावना में इस तरह से साफ नहीं लिखे हैं। उसके लिए संविधान को जीवन से जोड़ कर पढ़ना पड़ता है।
पचहत्तरवें संविधान दिवस के मौके पर हम दो-तीन बातों की गांठ बांध लें, तो बेहतर हो। पहली, यह ऐतिहासिक समझदारी कि संविधान को बचा लेना लोकतंत्र के बचने की गारंटी नहीं है। दूसरी, आजकल की सत्ताएं संविधान और लोकतंत्र को बचाने के नाम पर इन्हें खत्म करने के कदम उठाती हैं, इसलिए जब भी कोई सरकार या सत्ता संविधान या लोकतंत्र को बचाने की जोर-जोर से दुहाई दे तो हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए। तीसरी बात, संविधान केवल कानूनों, कर्तव्यों, अधिकारों या मूल्यों तक सीमित दस्तावेज नहीं है। वह बेशक अधिकारों को पाने का एक औजार है, कर्तव्यों का एक दिशानिर्देश है, कानूनों की एक संहिता है, लेकिन इन सब से बढ़कर, वह हमारे निजी व्यवहार का एक आधार है क्योंकि हम सब ने उसे खुद को अर्पित किया था। याद करें, प्रस्तावना का आखिरी वाक्य!
इसलिए, आज और अभी से, अपने घर से लेकर दफ्तर तक, बाजार से लेकर ट्रेन तक, बीवी-बच्चों से लेकर सहकर्मियों तक, हमें ऐसा व्यवहार करने की कमर कस लेनी चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हमसे करें। और अपनी कथनी-करनी के अंतर को जितना हो सके, पाटना चाहिए। हम ऐसा करेंगे, तो संविधान जागृत होगा, वरना वह कागज का पुलिंदा बना रहेगा और कोई न कोई उसे माथे से लगाकर हमें ठगता रहेगा। ध्यान रहे, खतरे में संविधान नहीं, बल्कि हमारा वह समाज है जिसने इस संविधान को बनाया था। इसलिए यह संविधान को पूजने का नहीं, उसे अपने भीतर जगाने का समय है।
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