कातते-बुनते: अबकी कुम्‍भ होकर आना क्‍यों जरूरी है?

यह बेशक भव्\u200dय कुम्\u200dभ है, लेकिन उसकी भव्\u200dयता दिव्\u200dयता से रिक्\u200dत है। दिव्\u200dय और भव्\u200dय एक साथ कभी संभव नहीं रहे, न आगे रहेंगे।

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प्रयागराज में 26 फरवरी तक चलेगा कुम्भ मेला (फोटो- IANS)

कुम्‍भ मेले का सारा माहात्‍म्‍य केवल एक पौराणिक संयोग में छुपा है कि समुद्र मंथन से निकला अमृत वाला घड़ा असुरों के हाथ नहीं लगा। क्‍यों नहीं लगा? क्‍योंकि इंद्र देवता के पुत्र उसे लेकर भाग निकले और सूर्य, चंद्र, शनि, बृहस्‍पति, सबने उनकी रक्षा की। भागमभाग में जहां-जहां अमृत छलका, कालान्‍तर में वहां-वहां कुम्‍भ मनाया जाने लगा। मोटामोटी लोकप्रिय कहानी यही है।

कभी-कभार ऐसी कहानियों को ब्‍लैक मिरर श्रृंखला वाली पटकथा की तर्ज पर देखना दिलचस्‍प हो सकता है। मसलन, अगर कहानी में दो विकल्‍प होते- पहला, देवता घड़ा लेकर भाग निकले और बच गए तथा दूसरा, घड़ा असुरों के हाथ लग गया- और हमारे पास दूसरा विकल्‍प चुनने की आजादी होती, तब कहानी क्‍या बनती? और उसके आधार पर भविष्‍य कैसा होता?

मनुष्‍य में अंतर्निहित अच्‍छाइयां ही उसे कहानियों में पहला और अपेक्षाकृत नैतिक विकल्‍प चुनने को बाध्‍य करती रही होंगी, वरना रामायण में न तो राम की जीत होती और न ही महाभारत में पांडव जीतते। अच्‍छे और सच्‍चे की श्रेष्‍ठता व ताकत के आधार पर बनने वाला भविष्‍य ही हमारी आस्‍थाओं को मुकम्‍मल रखने के काम आता है और उन्‍हीं आस्‍थाओं के बल पर हम बुराइयों की सूरत में भी खुद को बचाए रख पाते हैं। इसी आस्‍था को कुछ लोग ईश्‍वर का नाम दे देते हैं।

विस्‍लावा शिंबोर्स्‍का ने अपनी एक कविता में इस बात को कुछ ऐसे रखा था, कि ‘’ईश्‍वर अच्‍छे और ताकतवर मनुष्‍य में यकीन करता था लेकिन अच्‍छा और ताकतवर आज भी दो अलहदा इंसान हैं’’। यह बात जितनी सरल है, उतनी ही गूढ़ भी है। सरल इसलिए है क्‍योंकि यह साफ दिखती है। रोजमर्रा के जीवन में हमें पल-पल महसूस होती है। गूढ़ इसलिए है क्‍योंकि कोई इसे सार्वजनिक रूप से कहता नहीं। इलाहाबाद में संगम तट पर चल रहा कुम्‍भ अच्‍छे और ताकतवर के बीच के फर्क को कुछ ऐसे ही चरितार्थ कर रहा है।

यहां अच्छा कौन है? जाहिर है वही, जिसकी कुम्‍भ-कथा की अच्‍छाई में आस्‍था अब भी बनी हुई और जिसकी प्रेरणा से वह अपनी गठरी बांधे प्रयागराज स्‍टेशन पर उतर के पैदल संगम तट तक नहाने चला आ रहा है। कुछ देर वह तट पर बिछे पुआल पर लेट जाता है। गठरी में बांधा चना चबाता है। अपने साथ पानी भरकर लायी प्‍लास्टिक की टेढ़ी-मेढ़ी बोतल से पानी गटकता है। फिर थोड़ी ऊर्जा जोड़कर उठता है, वहीं अपने गंदे कपड़े उतारकर गमछा डालकर संगम में उतर पड़ता है। घर से लाया साबुन रगड़कर लगाता है। नहाता है। वहीं अगरबत्‍ती या दीपक जलाता है, हाथ जोड़ता है, फिर गठरी में बंधा कड़ुवा या आंवले का, नीम का या चमेली का तेल देह में चुपड़कर ताजा कपड़े पहनता है और बाल झाड़कर वापस चल देता है। उसे सदियों पहले गिरे अमृत का कुछ अंश मिल चुका है। बस वापसी की ट्रेन या बस का टाइम पता करने की देरी है।

पूछिए, कि इस प्रसंग में ताकतवर कौन है! जब एक अच्‍छा आदमी प्रयागराज पर उतरता है, तो सबसे पहले एक टैम्‍पू वाला उसे भरमाता है, संगम क्षेत्र में ले जाने का दो सौ रुपया मांगता है। साथ में अगर परिवार है, तो हजार रुपये में पांच किलोमीटर का सफर करने को उसे कहा जाएगा। वह इस लोभ को ठुकरा कर आगे बढ़ता है। चौराहे पर पहुंचता है। वहां पुलिसवाला उसे लाठी से खदेड़ता है, किनारे लगाता है ताकि सायरन और हूटर बजाते वीआइपी लोगों की गाडि़यों की राह में कोई अड़चन न आने पाए। किसी तरह वह संगम क्षेत्र में पहुंचता है तो वहां फ्री शीतल पानी देने वाली एक चमचमाती सरकारी मशीन उसे भरमाती है। वह पास पहुंचता है और कौतूहल में बटन दबाता है, तो पीछे से किसी की आवाज आती है- एक रुपये का सिक्‍का डालना पड़ेगा। वह अपनी बोतल से एक घूंट गटक कर आगे बढ़ लेता है। तभी एक बैटरी वाला वाहन उसे आवाज लगाता है। उसे लगता है कि सरकार बहादुर ने बहुत इंतजाम किया हुआ है। वह पास जाता है और कहता है भाई मेले ले चलो। पचास रुपया! यह सुनते ही वह फिर से पैदल ही आगे बढ़ लेता है। रास्‍ते में उसे महाभंडारे का एक बोर्ड दिखता है, जिस पर इस्‍कॉन और अदाणी की तस्‍वीर बनी है। वह सोचता है प्रभु की लीला अपरमपार है। पास जाता है तो पता चलता है कि चार घंटे लाइन में लगे रहना होगा मुफ्त खाने के लिए। इतने में तो उसकी वापसी की गाड़ी छूट जाएगी- यह सोचकर वह फिर से आगे बढ़ लेता है। मेला क्षेत्र में वह बीस रुपये की चाय और सौ रुपये के चावल-कढ़ी का आकर्षण झुठलाता चलता है, लेकिन तट पर पहुंचने तक उसकी जेब से कम से कम पचास रुपया ही सही, निकलवा लेने की पूरी ताकत सबने मिल के लगा रखी है। अंत में जब वह गंगाजल लेने के लिए पचास रुपये का गैलन भी नहीं खरीदता, तो ताकत अच्‍छाई से एकदम अलहदा होकर अकेली पड़ जाती है। इसके बावजूद वापसी में उसे सड़क किनारे रखे दो सौ रुपये के जूते का लोभ दिया जाता है, लेकिन तब तक तो उसे पुण्‍य मिल चुका था।

यह जो स्‍टेशन से लेकर मेले तक और वापस स्‍टेशन तक बिखरे हुए आकर्षण हैं, सुविधाएं हैं और लूटने-खसोटने के माध्‍यम हैं, सब के सब किसी संगठित ताकत की उपज हैं। यह संगठित ताकत उस समुद्र मंथन से निकली है जो मेले से साल भर पहले सरकार ने ठेका निकालकर किया था, जिसमें कुम्भ को एक ‘’प्रोजेक्‍ट’’ बताया गया था। टीसीएस, केपीएमजी, ईऐंडवाइ आदि की होड़ में कुम्‍भ ठेका अर्नस्‍ट ऐंड यंग (ईऐंडवाइ) नाम की कंपनी को चला जाता है क्‍योंकि उसे दसेक साल से अर्धकुम्‍भ को मैनेज करने का अनुभव है। मने यह पहले हो चुका था, लेकिन कोई नहीं जानता था। अबकी मेला क्षेत्र में ईऐंडवाइ के 200 कर्मचारियों की फौज कमान और कंट्रोल सेंटर में बैठी हुई है। कमान और कंट्रोल का मतलब ताकत। ताकत का मतलब पैसा।

इस प्रोजेक्‍ट में ताकत, पैसे और प्रचार के मुख्‍य खिलाड़ी हैं प्रोजेक्‍ट मैनेजमेंट एजेंसी, सरकार, प्रायोजक कंपनियां, धार्मिक अखाड़े व संस्‍थाएं। इनके निशाने पर अच्‍छा आदमी तो है ही, लेकिन इनका संगठित जोर उस आदमी को अपने खोपचे में लेना है जो प्रचार और सरकारी संदेशों के प्रभाव में संगम खिंचा चला आ रहा है। वह नहाने कम, घूमने और वीडियो बनाने ज्‍यादा आ रहा है। उसकी जेब भरी हुई है और दिल-दिमाग खाली। वह खुद उस आसुरी-तंत्र का पोषक है जिसके हाथ अगर सदियों पहले अमृत का घड़ा लग जाता तो वह अकेले ही पूरा का पूरा गटक जाता।

अफसोस की बात है कि यह आसुरी प्रवृत्ति अब इलाहाबाद के सामान्‍य लोगों तक पहुंच चुकी है, जिन्‍होंने एक जमाने में बाढ़ और बारिश से श्रद्धालुओं को बचाने के लिए अपने आंगन खोल दिए थे लेकिन आज वे ही लोग अपने घरों के कमरे सैलानियों को महंगे दामों पर दे रहे हैं और अपने मकान के साथ लगा हुआ खाली प्‍लॉट चालीस-पचास हजार महीने के किराये पर जूता, चश्‍मा, जयश्रीराम के गमछे बेचने वालों को दे चुके हैं।

ब्‍लैक मिरर में यूजर खुद दूसरा वाला यानी बुराई का विकल्‍प चुनने के लिए बटन दबाता है। वह उसके प्रति जवाबदेह होता है, चाहे उसका हश्र जो भी हो। बरसों से चले आ रहे कुम्‍भ में व्‍यापार वाला बटन किसी यूजर ने, किसी श्रद्धालु ने, किसी अच्‍छे-भले आदमी ने नहीं दबाया है। यह विकल्‍प सरकार ने खोला और इसे बाकी खिलाडि़यों ने सहर्ष अपना लिया। इससे मिलकर बनी वह आसुरी ताकत, जिसके आगे सूर्य, चंद्र, बृहस्‍पति और शनि आदि समस्‍त देवता फेल हो गए। अमृत कलश तो छलकने से पहले रास्‍ते में ही अगवा हो गया। अपने ग्रह पर अकेला बच गया बस वह अच्‍छा आदमी, जो विशुद्ध नहान और काल्‍पनिक पुण्‍य तक को खुद को अब भी सीमित रखे हुए है, यह मानकर कि कलश अब भी देवताओं के पास ही है।

कुम्‍भ की पौराणिक कहानी देवताओं के हाथ अमृत लगने की कहानी थी जिसके असर से शिंबोर्स्‍का का ईश्‍वर साकार हो उठता था। 2025 का कुम्‍भ शिंबोर्स्‍का की कविता का वह अफसोस है, जहां ईश्‍वर की परिकल्‍पना नाकाम हो चुकी है और जहां अच्‍छे व ताकतवर के बीच की विभाजक रेखा बिलकुल साफ खिंच चुकी है। यह बेशक भव्‍य कुम्‍भ है, लेकिन उसकी भव्‍यता दिव्‍यता से रिक्‍त है। दिव्‍य और भव्‍य एक साथ कभी संभव नहीं रहे, न आगे रहेंगे। और यह महज बेमेल शब्द-युग्‍म पर माथापच्‍ची का मसला नहीं है। इसे समझने के लिए आपको कुम्‍भ होकर आना पड़ेगा ताकि कुम्‍भ का जादू टूट सके। जादू टूटता है, तभी अमृत और विष का फर्क समझ आता है।

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