भारत में अपने देश की भाषाओं को लेकर होने वाले विवाद को लेकर हम सब खबरें पढ़ते रहते हैं। इस मसले पर सियासत भी खूब होती है। तो इस समस्या का हल क्या है? सच पूछा तो भाषा के  मसले पर होने वाले विवादों का एक मात्र हल है कि हम अपनी मातृभाषा के अलावा भी किसी प्रांत की जुबान पढ़ें और सीखें। 

अब एक उदाहरण लीजिए। सुष्मिता बोस और अमना जकी राजधानी के अपने स्कूल की लाइब्रेरी के बाहर धाराप्रवाह पंजाबी में बातचीत कर रही थीं। इनके बीच में हो रहे संवाद को सुनकर कोई कह नहीं सकता था कि इन दोनों की मातृभाषा पंजाबी नहीं है। बांग्ला भाषी सुष्मिता और अमना के घर में उर्दू या कहें हिन्दुस्तानी बोली जाती हैं। इन दोनों ने पंजाबी लिखना और बोलना अपने राजधानी के दशमेश पब्लिक स्कूल, विवेक विहार में सीखा। इधर पंजाबी भाषा सभी बच्चों को आठवीं कक्षा तक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाती है।

अगर सारे देश के स्कूलों के बच्चे अपनी मातृभाषा के अलावा किसी अन्य राज्य की भाषा भी पढ़े और सीखें तो कितना अच्छा हो। मुंबई के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को तमिल, बांग्ला,असमिया आदि जुबानें सीखने का अवसर मिले और तमिलनाडु के बच्चों को पंजाबी,हिन्दी, मलयाली आदि भाषाएं सीखने का विकल्प हो। दशमेश पब्लिक स्कूल की मैनेजिंग कमेटी के चेयरमेन सरदार बलबीर सिंह विवेक विहार कहते हैं कि भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं और सैकड़ों बोलियां बोली जाती हैं, जो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं। लेकिन यह विविधता कभी-कभी क्षेत्रीय और भाषाई दीवारें भी खड़ी कर देती है, जो लोगों के बीच आपसी समझ और एकता को कमजोर कर सकती है। इस संदर्भ में, भारत के स्कूलों में विभिन्न प्रांतों की भाषाओं को पढ़ाने की अवधारणा न केवल एक शैक्षिक सुधार है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने का एक प्रभावी माध्यम भी हो सकता है।

भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता

भारत में भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह संस्कृति, इतिहास, और पहचान का प्रतीक भी है। प्रत्येक भाषा अपने साथ साहित्य, परंपराएं, और जीवनशैली की एक अनूठी झलक लेकर आती है। उदाहरण के लिए, बांग्ला भाषा रवींद्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे साहित्यकारों की विरासत को समेटे हुए है, तो पंजाबी भाषा गुरबानी और लोक संगीत की जीवंतता को दर्शाती है। 

इसी तरह, असमिया और मलयालम जैसी भाषाएं अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक गहराई के लिए जानी जाती हैं। सरदार बलवीर सिंह, विवेक विहार कहते हैं कि आजकल महाराष्ट्र में हिन्दी का विरोध हो रहा है। ये दुखद है। वे इस बाबत महाराष्ट्र के संत नामदेव का उदाहरण देते हैं। वे मूल रूप से  महाराष्ट्र से थे। उन्होंने अपने जीवन के करीब दो दशक पंजाब में व्यतीत किए। उनके अनेक दोहे श्री गुरु ग्रंथ साहिब में हैं। 

संत नामदेव के नाम पर एक मंदिर भीष्म पितामह मार्ग है। इसे संत नामदेव ट्रस्ट चलाता है। नामदेव जी ने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियणा और पंजाब समेत सारे देश में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। संत नामदेव जी का जन्म सन् 1270 में महाराष्ट्र केजिला सतारा में हुआ। उनके जीवन के साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई हैं परंतु उन्होंने कभी भी करामाती होने का दावा नहीं किया।

प्रख्यात शिक्षा विद सरिता सक्सेना कहती हैं कि यदि स्कूलों में बच्चों को विभिन्न प्रांतों की भाषाएं पढ़ाई जाएं, तो यह न केवल उनकी भाषाई क्षमता को बढ़ाएगा, बल्कि उन्हें अन्य क्षेत्रों की संस्कृति, परंपराओं, और जीवनशैली को समझने का अवसर भी देगा। उदाहरण के तौर पर, एक बांग्ला भाषी बच्चा जो पंजाबी सीखता है, वह न केवल भाषा सीखेगा, बल्कि पंजाब के इतिहास, सिख संस्कृति, और वहां के लोकनृत्यों जैसे भांगड़ा को भी समझेगा। इसी तरह, एक हिंदी भाषी बच्चा जो असमिया सीखता है, वह असम की चाय बागानों, बिहू नृत्य, और वहां की प्राकृतिक सुंदरता से परिचित होगा। यह प्रक्रिया बच्चों में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और सम्मान विकसित करेगी, जो राष्ट्रीय एकता की नींव बन सकती है।

सरिता सक्सेना का कहना है कि जो बच्चे एक से अधिक भाषाएं सीखते हैं, उनकी संज्ञानात्मक लचीलापन, समस्या-समाधान क्षमता, और रचनात्मक सोच में वृद्धि होती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में, जहां हर कुछ सौ किलोमीटर पर भाषा और बोली बदल जाती है, बच्चों को विभिन्न भाषाएं सिखाने से उनकी बौद्धिक क्षमता बढ़ेगी।

उदाहरण के लिए, मलयाली बच्चों को हिंदी पढ़ाने से न केवल उन्हें एक नई भाषा सीखने का अवसर मिलेगा, बल्कि यह उन्हें उत्तर भारत की संस्कृति और साहित्य से जोड़ेगा। हिंदी, जो भारत की राजभाषा है, देश के कई हिस्सों में संवाद का प्रमुख माध्यम है। मलयाली बच्चे जब हिंदी सीखेंगे, तो वे हिंदी साहित्य के महान कवियों जैसे सूरदास, तुलसीदास, और प्रेमचंद की रचनाओं से परिचित होंगे। यह उनके लिए एक नई सांस्कृतिक खिड़की खोलेगा।

भारत में क्षेत्रीयता और भाषाई पहचान कई बार सामाजिक तनाव का कारण बनती है। सरदार बलबीर सिंह कहते हैं कि  विभिन्न भाषाई समूहों के बीच गलतफहमियां और पूर्वाग्रह अक्सर इसलिए उत्पन्न होते हैं, क्योंकि लोग एक-दूसरे की संस्कृति और भाषा से अपरिचित होते हैं। यदि स्कूलों में बच्चों को कम उम्र से ही विभिन्न प्रांतों की भाषाएं सिखाई जाएं, तो यह एक-दूसरे के प्रति समझ और सहानुभूति को बढ़ावा देगा। उदाहरण के तौर पर, जब एक बांग्ला भाषी बच्चा पंजाबी सीखता है, तो वह न केवल भाषा सीखता है, बल्कि पंजाब की संस्कृति, त्योहारों, और जीवनशैली को भी समझता है।

बहुभाषी शिक्षा के व्यावहारिक लाभ भी कम नहीं हैं। भारत एक तेजी से वैश्विक होने वाला देश है, जहां नौकरी और व्यापार के अवसर अब क्षेत्रीय सीमाओं से परे हैं। विभिन्न भाषाओं का ज्ञान बच्चों को भविष्य में बेहतर अवसर प्रदान कर सकता है।

इसके अलावा, पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के क्षेत्र में भी बहुभाषी शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जब लोग एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को समझते हैं, तो वे अधिक आसानी से एक-दूसरे के साथ घुलमिल सकते हैं। 

हालांकि विभिन्न प्रांतों की भाषाओं को स्कूलों में पढ़ाने का विचार आकर्षक है, इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियां भी हैं। सबसे पहले, भारत में शिक्षा का ढांचा पहले से ही जटिल है, और कई स्कूलों में संसाधनों की कमी है। विभिन्न भाषाओं को पढ़ाने के लिए योग्य शिक्षकों की आवश्यकता होगी, जो एक बड़ी चुनौती हो सकती है।

इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए कुछ व्यावहारिक कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, स्कूलों में भाषा शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप में शुरू किया जा सकता है, ताकि छात्र अपनी रुचि के अनुसार भाषा चुन सकें। 

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहां भाषा और संस्कृति लोगों को जोड़ने के साथ-साथ अलग भी करती है, बहुभाषी शिक्षा एकता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है।