राज की बात: जब न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर सीबीआई जांच के आदेश वाले फैसले को 11 जजों ने किया 'सस्पेंड'

जस्टिस राकेश कुमार ने एक अग्रिम जमानत याचिका पर फैसला सुनाते हुए न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद पर खुलकर टिप्पणी की। उनके इस साहसिक रुख ने सुर्खियां बटोरीं, लेकिन प्रतिक्रिया भी तीव्र रही।

जस्टिस राकेश कुमार

जस्टिस राकेश कुमार Photograph: (सोशल मीडिया)

दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के आवास से "बड़ी मात्रा में नकदी" बरामद होने की खबरों के बीच बिहार के लोग न्यायपालिका के एक ऐसे ही ऐतिहासिक क्षण को याद कर रहे हैं। 28 अगस्त 2019 को पटना हाईकोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज, जस्टिस राकेश कुमार ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जांच के लिए सीबीआई को निर्देश दिया था। लेकिन उनका यह आदेश एक 11-सदस्यीय पीठ ने तुरंत रद्द कर दिया।

न्यायपालिका पर बड़ा आरोप

जस्टिस राकेश कुमार ने एक अग्रिम जमानत याचिका पर फैसला सुनाते हुए न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद पर खुलकर टिप्पणी की। उनके इस साहसिक रुख ने सुर्खियां बटोरीं, लेकिन प्रतिक्रिया भी तीव्र रही। हाईकोर्ट की 11-सदस्यीय पीठ ने उनके बयान को न्यायपालिका की अवमानना करार दिया और कहा कि इससे जनता का अदालत पर विश्वास डगमगा सकता है।

चुप रहने से इनकार

सुनवाई के दौरान, जस्टिस कुमार ने स्पष्ट कर दिया कि वे "मूकदर्शक" बने नहीं रह सकते। उन्होंने यह मामला सुप्रीम कोर्ट, प्रधानमंत्री कार्यालय और विधि मंत्रालय तक ले जाने की इच्छा व्यक्त की। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने आदेश की कॉपी रजिस्टर्ड डाक से इन संस्थानों को भेजने का निर्देश दिया।

सहकर्मी जजों की तीखी प्रतिक्रिया

पटना हाईकोर्ट के अन्य जजों ने तुरंत उनके आदेश को रद्द कर दिया। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि जस्टिस कुमार ने आदेश पारित करने से कुछ दिन पहले ही केस फाइल की समीक्षा कर ली थी, जिससे उनकी मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। साथ ही, उन्होंने अपने 1986 बैच के कुछ साथी जजों पर भी तीखी टिप्पणियां की थीं, जिससे नाराजगी और बढ़ गई।

न्यायपालिका बनाम जस्टिस कुमार

पीठ ने जस्टिस कुमार पर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया और कहा कि उन्होंने खुद को न्यायिक सत्य का "एकमात्र संरक्षक" समझ लिया था। अदालत के अनुसार, उनकी टिप्पणियां "पूरी तरह अनुचित" थीं और "सिर्फ गपशप" के समान थीं।

अलगाव और तबादला

सीबीआई जांच की सिफारिश के बाद, जस्टिस कुमार को उनके ही साथियों ने बहिष्कृत कर दिया। बताया जाता है कि उनके सहकर्मी जजों ने उन्हें पारंपरिक शुक्रवार लंच से भी दूर कर दिया। जल्द ही, उनकी न्यायिक शक्तियां छीन ली गईं और अंततः उनका तबादला आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट, अमरावती कर दिया गया।

ईमानदारी से भरा करियर

अब 60 वर्ष के हो चुके जस्टिस राकेश कुमार ने पटना हाईकोर्ट में 25 दिसंबर 2009 को अतिरिक्त जज के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी। 24 अक्टूबर 2011 को वे स्थायी जज बने। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका निर्भीक  रुख भले ही विवादों में रहा हो, लेकिन यह न्यायपालिका में उनकी ईमानदारी और निष्ठा का प्रतीक है।

एक कहानी जो चर्चा में रहनी चाहिए

जस्टिस कुमार का यह प्रकरण न्यायिक जवाबदेही और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत पर महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है। जैसे-जैसे न्यायपालिका से जुड़े नए विवाद सामने आ रहे हैं, उनका मामला हमें यह याद दिलाता है कि व्यवस्था को चुनौती देने वालों को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

पटना उच्च न्यायालय में ही एक अन्य जज थे जो सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचे,राकेश कुमार के विपरीत थे। वे पटना एक प्रसिद्ध क्लब के अध्यक्ष थे और क्लब के सचिव एग्जीबिशन रोड स्थित पेट्रोल पंप के मालिक होते थे।

बिहार के तत्कालीन परिवहन आयुक्त ने पेट्रोल पंप में मिलावट सहित कई गड़बड़ियां पाईं, इसका लाइसेंस रद्द कर दिया गया और मालिक पर प्राथमिकी भी दर्ज कर दी गई।क्लब के अध्यक्ष ने इस अधिकारी के अपने सरकारी आवास पर बुलाया और सचिव की उपस्थिति में ही निवेदन किया कि प्राथमिकी पर कोई कार्रवाई नहीं हो,पेट्रोल पंप के मालिक को गिरफ्तार नहीं किया जाए,कमिश्नर ने जज का आदेश स्वीकार कर लिया।

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