मेरठ में दर्जनों बार बार आना जाना हुआ। हाल ही में फिर मेरठ में जाना हुआ। इसलिए वेस्टर्न यूपी के इस सबसे खास शहर को कुछ जानने का दावा कर सकता हूं। मेरठ में पहले धोती, कुर्ता और गांधी टोपी पहने बहुत सारे लोग मिल जाते थे। इस बार मेरठ कॉलेज, कचहरी और दूसरी किसी जगह में एक भी गांधी टोपी पहने कोई इंसान नहीं मिला। कहां गए वे लोग? क्या धोती,कुर्ता और गांधी टोपी पहनना मेरठ के लोगों को पसंद नहीं रहा।
लग्जरी कारें और सड़कों पर अनुशासनहीनता
दिल्ली से मेरठ 65 किलोमीटर दूर है। यहां साकेत, शास्त्री नगर, गढ़ रोड, अबू लेन में घूमते हुए कतई नहीं लगा कि मैं दिल्ली में नहीं हूं। सड़कों पर लग्जरी कारों की भीड़, ट्रैफिक रूल्स की अनदेखी और बाजारों में मशहूर ब्रांड्स के शो रूम्स की भरमार, बाज़ार गुलज़ार। यहां कई दोस्तों का कहना है कि मेरठ के बहुत सारे बच्चे जो नोएडा या दिल्ली में जॉब की वजह से शिफ्ट कर गए थे, वे वापस आ जाएंगे। क्यों? रैपिडक्स ट्रेन से सिर्फ 50 मिनट में दिल्ली से मेरठ जाना मुमकिन हो गया। मेरठ में मेट्रो रेल का भी काम तेज रफ्तार से चल रहा है।
मेरठ कॉलेज का माथुर होटल
माथुर होटल में मेरठ कॉलेज के स्टूडेंट्स, टीचर्स और वकीलों को साफ सुथरा और सस्ता लंच मिलता था। मैंने 1986 में 7 रूपये में दाल, सब्जी और 3 रोटी का लंच किया है। वहां कई लोग अपने साथ शीशी में देसी घी लाते थे। दाल में घर में तैयार खालिस देसी घी डालकर खाते थे। वे इतने उदार होते थे कि साथ की टेबल पर बैठे इंसान से पूछ लेते थे, आप भी ले लो जी? अफसोस कि अब माथुर होटल बंद हो चुका है।
साकेत में फिर जाना
मेरठ की सबसे एलीट कॉलोनी साकेत। इधर 1986 में रहा। बड़े विशाल बंगले। यहां की गोल मार्केट में अब मेरे समय की सिर्फ बेकरी ही मिली। बाकी सब कुछ बदल गया है। जिस घर में रेंट में रहता था वो नया बन चुका है। उसके आगे के घर में एक ईसाई फैमिली रहती थी। उससे दोस्ती थी। आज उनके घर गया भी था। पता चला कि वहां से मैथ्यू फैमिली जा चुकी है। साकेत इतना बदला बदला लगा कि सर सीताराम की कोठी में जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। सर सीताराम भारत के पाकिस्तान में हाई कमिश्नर रहे थे। उनके दो पुत्र थे। हरीश चंद्र मध्य प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर थे। सतीश चंद्र प्रख्यात इतिहासकार थे।
ईस्ट दिल्ली का मेरठ से रिश्ता
देखिए लगभग सारा का सारा मौजूदा यमुनापार सन 1914 तक मेरठ जिले का हिस्सा था। दिल्ली के देश की नई राजधानी बनने के बाद मेरठ जिले के 65 गांवों का 22 मई, 1914 को दिल्ली में विलय कर दिया। इन गांवों में शकरपुर, खिचड़ीपुर, चौहान बांगर,मंडावली,शाहदरा, ताहिरपुर, झिलमिल, जाफराबाद वगैरह शामिल थे।
इन्हीं पर आगे चलकर मयूर विहार,आई.पी.एक्सटेंशन की सैकड़ों ग्रुप हाउसिंग सोसायटीज और तमाम ‘विहार’ वगैरह आबाद हुए। यमुनापार के इन गांवों का अधिग्रहण देश की नई राजधानी के भावी विस्तार योजना के लिए किया गया था।अब समझ लें कि सौ से कुछ अधिक साल पहले तक आज की ईस्ट दिल्ली तो मेरठ में थी।
इतिहास में सौ साल का समय होता ही क्या है! दिल्ली के देश की राजधानी बनते ही यहां पर पड़ोसी शहरों से लोग बिजनेस, नौकरी या कामकाज करने के लिए आने लगे। ईस्ट दिल्ली के चप्पे-चप्पे में वैश्य समाज उपस्थिति दर्ज करवाता है। इधर मेरठ, गाजियाबाद, मुजफ्फरनगर, बागपत, बड़ौत वगैरह के सैकड़ों वैश्य परिवार आकर बसे। गांधी नगर कलॉथ मार्केट या शाहदरा की टिंबर मार्केट में बहुतायत वैश्य और जैन समाज की है। आप इनसे पूछिए कि ये मूल रूप से कहां से आते हैं? जवाब मिलेगा ‘मेरठ, गाजियाबाद, बागपत, बड़ौत’।
शाहदरा की लैंडमार्क है तेजाब मिल। यह श्यामलाल कॉलेज के करीब मेन रोड पर है। यह 1937 से चल रही है। इसे मेरठ का एक जिंदल परिवार चलाता रहा है। ईस्ट दिल्ली का संभवत: सबसे पुराना और सामाजिक- राजनीतिक रूप से असरदार परिवार राम बाबू शर्मा ( अब स्मृति शेष) का रहा है। वे कांग्रेस के नेता तो बाद में बने थे पर उनके परिवार का हीरा स्वीट्स शाहदरा में 150 सालों से है। वे बताते थे कि हम शाहदरा वाले अपने बहू या दामाद मेरठ और आसपास के शहरों में ही तलाशते हैं।
मेरठ में मिले रावलपिंडी के पड़ोसी
मेरठ में आबू लेन में जाना सच में सार्थक हो गया। वहां मुझे पत्नी के साथ घूमते हुए दिल्ली वालों के छोले भटूरे की दुकान का बोर्ड दिखाई दिया। कस्टमर्स की भीड़ थी। पर मुझे तो मेरठ की इस लैंडमार्क दुकान में जाना था। मेरा मकसद भी अलग था। मेरे परिवार का इनसे रिश्ता रावलपिंडी से है। मैं अपने पापाजी और दादा जी से इस परिवार के बारे में सुनता था। इनके पहाड़गंज वाले घर में भी जा चुका था।
दोनों परिवार 1947 में दिल्ली आए थे। मैं दिल्ली वालों की दुकान में गया। अपना थोड़ा सा दिया और मुझे इसके मालिक कुलदीप जी ने गले लगा लिया। कुलदीप जी की मां को मेरे पापा जी बुआ कहते थे। दोनों फैमिली रावलपिंडी में पड़ोसी थीं। कुलदीप जी अपने कैंट के घर लेकर गए। वहां रावलपिंडी से दिल्ली और उनके मेरठ के सफर पर बातें हुईं।
कहने लगे कि मैं कभी उदास हो जाता था ये सोचकर कि अब शुक्ला परिवार से मिलना ना हो। कुलदीप जी ने 1973 में शिफ्ट कर लिया था मेरठ में। पहले रेहड़ी पर काम शुरू किया और फिर दुकान ली। अब उनका फ्लेवर नाम से एक बहुत पॉपुलर रेस्टोरेंट भी आबू लेन में है। वहां भी जाना हुआ
ओमवती और रानी
यहां एक बड़े से बैंक्वेट हॉल में डिनर चल रहा है। मेहमान लज़ीज़ खाने के साथ इंसाफ कर रहे हैं। एक कोने में दो महिलाएं तवा रोटियां सेक रही हैं। हमने भी एक रोटी देने की गुजारिश की। एक ने कहा, लो जी। हमने उससे नाम पूछा। जवाब मिला, रानी। दूसरी से पूछा, उसने मुस्करा कर कहा, रानी बता देगी। रानी ने बताया, ओमवती।
दोनों के हाथ से सेकी रोटी साग के साथ खाकर आत्मा भी तृप्त हो गई। हमने एक और रोटी ली। दोनों को शुक्रिया किया। एक वेटर को दोनों को देने के लिए एक छोटी सी रकम दी। खैर, मेरठ बनता तो जा रहा है दिल्ली का हिस्सा, पर उसकी अपनी एक अलग पहचान बनाए रखने की जिद्द भी है। यहां पंजाबी और जाट परिवारों की दो शादियों में शामिल हुआ। दोनों में बॉलीवुड, पंजाबी के साथ हरियाणवी गाने भी बजते रहे। वैसे, अब यहां के पंजाबियों से पंजाबी पीछे छूट चुकी है।
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