विजय दिवस: जब राजा रामचंद्र की जय के उद्घोष के साथ जवानों ने टाइगर हिल से पाकिस्तानियों को भगाया था

8 दिसंबर 1998 को मैं भोपाल से ट्रांसफर होकर टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता के रूप में श्रीनगर पहुंचा था। एक बार जब हम कारगिल और सोनमर्ग के युद्ध क्षेत्र में शामिल हो गए तो बाहर आना आसान नहीं था।

Vijay Diwas Kargil war story When indian soldiers chased away Pakistanis from Tiger Hill with slogan of Raja Ramchandra ki Jai

विजय दिवस Photograph: (आईएएनएस)

एक पत्रकार के रूप में कारगिल युद्ध को कवर करना मेरे लिए जीवन भर का सबसे अहम अनुभव था। भारतीय सेना की 15 कोर ने हमें युद्ध क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दी थी। मेरा पेशेवर सौभाग्य था कि मैं 8 दिसंबर 1998 को भोपाल से ट्रांसफर होकर टाइम्स ऑफ इंडिया के विशेष संवाददाता के रूप में श्रीनगर पहुंचा था

भोपाल की तुलना में श्रीनगर में बहुत ठंड पड़ रही थी और न्यूनतम तापमान -9 डिग्री था। पहली बार मैने कुकिंग गैस सिलेंडर युक्त कांगड़ी देखी, इलेक्ट्रिक ब्लैंकेट लेकर सोना पड़ा। भाग्यशाली इसलिए क्योंकि छः महीने के भीतर ही पाकिस्तान भारत युद्ध हो गया।

बदामीबाग कैंटनमेंट में 15वीं कोर की ओर से युद्ध क्षेत्र में जाने की लिखित अनुमति मिली। सोनमर्ग में आर्मी कैंप में नाश्ता करने के बाद हमें झुमरा मोड़ से युद्ध क्षेत्र में जाने की इजाजत मिली, और इस तरह हम दोपहर तक द्रास ( दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा शहर जहां लोग रहते है) पहुंचा गए। हम जोजिला पास पार कर रहे थे, जो समुद्र तल से लगभग 12,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

‘राजा रामचंद्र की जय’ का उद्घोष

पहली बार हमने देखा कि NH-1A (लद्दाख से श्रीनगर की सड़क) के दक्षिणी छोर पर सैकड़ों बोफोर्स तोपें कतार में तैनात थीं और चारों ओर हजारों खाली गोले बिखरे पड़े थे।

8 माउंटेन डिविजन और 8 ग्रेनेडियर्स के जवान और अफसर मोर्चे पर डटे हुए थे और युद्ध घोष के साथ आगे बढ़ रहे थे। कुछ जवान ‘राजा रामचंद्र की जय’ का उद्घोष कर रहे थे। ये लोग राजस्थान राइफल्स के बटालियन के रहे। सूरज ढलने के बाद गोलाबारी और तेज हो गई। हमें कुछ बंकरों में ठहराया गया।

पाकिस्तानी सेना द्वारा द्रास शहर में बिछाया गया समानांतर टेलीफोन नेटवर्क साफ दिख रहा था, जो स्थानीय लोगों की उनकी मदद में भूमिका का संकेत था। द्रास का सर्किट हाउस भी दुश्मनों की गोलाबारी में तबाह हो चुका था। NH-1A पर दो तेल टैंकर जले हुए मिले। यह पाकिस्तान की गोलाबारी का असर था।

कारगिल सर्किट हाउस में स्थानीय विधायक और राज्य के पर्यटन मंत्री ने हमारे साथ चाय पी और सामने की पहाड़ी पर बर्फ के स्कूटरों से पाकिस्तानी सैनिकों की हलचल दिखलाई। चूंकि युद्ध पूरे जोर पर था, बस स्टैंड के आसपास के सभी होटल और रेस्तरां बंद हो चुके थे। केवल एक होटल 'होटल जोजिला' खुला था, जहाँ हम रुके। होटल कारगिल दुश्मन की गोलाबारी में क्षतिग्रस्त हो चुका था। एसपी का बंगला भी शेलिंग की चपेट में आया। जिला उपायुक्त भी अपने गेस्ट हाउस में शिफ्ट हो गए थे, क्योंकि उनका सरकारी आवास भी गोलाबारी में आ गया था। एकमात्र सड़क किनारे ढाबा एक सरदार का खुला था, जहाँ सिर्फ दाल-चावल और प्याज मिलती थी।

संचार का एकमात्र साधन था एक STD बूथ, जो दिन में कुछ घंटों के लिए खुलता था। वहीं से पत्रकार अपनी रिपोर्ट्स फैक्स करते और जवान अपने परिजनों से आखिरी बार बात करने की कोशिश करते, इससे पहले कि वे पहाड़ियों की ओर बढ़ जाते।

जब भी पाकिस्तानी गोलाबारी शुरू होती, यह बूथ बंद कर दिया जाता और सभी को बंकरों में रुकने को कहा जाता।

बिहार के बक्सर का जवान

एक शाम एक जवान मिला, जो बिहार के बक्सर का रहने वाला था और अगली सुबह पहाड़ी की ओर रवाना होने वाला था। चूंकि वह अपने परिवार से बात नहीं कर पाया था, उसने मुझे उनके घर का टेलीफोन नंबर देते हुए अनुरोध किया कि मैं उन्हें यह संदेश पहुंचा दूं कि वह सुरक्षित है।

शाम होते ही ऐसा लगता मानो दिवाली मन रही हो, भारत और पाकिस्तान दोनों ओर से रौशनी और धमाकों के बीच गोलाबारी चलती थी।

एक बार जब हम सोनमर्ग और कारगिल के युद्ध क्षेत्र में दाखिल हो गए, तो बाहर आना आसान नहीं था, क्योंकि लेह और श्रीनगर जाने वाली सड़कें बंद हो चुकी थीं। द्रास में रोजाना ब्रीफिंग होती थी, लेकिन कारगिल पहुंचने के बाद पत्रकारों को स्थानीय सेना या अधिकारियों से ही सूचनाएं मिलती थीं।

उसी दौरान बटालिक सेक्टर में हमारे जवानों और अधिकारियों की बर्बर हत्या की खबरें भी मिलीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सर्वदलीय संसदीय समिति, जिसमें रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और ममता बनर्जी भी थी फॉरवर्ड एरिया में आए, जवानों और अफसरों का हौसला बढ़ाते।

सीजफायर के बाद जब हम कारगिल से लौट रहे थे, तो द्रास में हमें उन अफसरों की शहादत की सूचना दी गई, जिनसे कुछ दिन पहले हमारी मुलाकात हुई थी, जिन्होंने हमें जानकारी दी थी, हाथ मिलाया था और मुस्कराहट के साथ हमें विदा किया था।

युद्ध के दौरान दो अप्रिय घटनाएं हुई। एक राष्ट्रीय टेलीविजन की महिला पत्रकार ने संभवत एक्सक्लूसिव की लालच में रात में ही एक बनकर(  bunker) से लाइट, एक्शन शूटिंग कर दी, ब्रिगेडियर की आपत्ति नहीं मानी, तुरंत पाकिस्तान की तरफ से भी उसी जगह shelling शुरू हो गई। बहुत नुकसान हुआ। उस चैनल को रक्षा मंत्रालय की आपत्ति के बाद माफी display करना पड़ा।

दूसरी दुर्भाग्यपूर्ण घटना द्रास पंचायत के प्रधान की शिकायत थी। इसमें कहा गया कि सेना के आठ जवानों ने उनकी पत्नी के साथ अनाचार किया है। उन्होंने कारगिल के एसपी से लिखित शिकायत की। ब्रिगेडियर को निर्देश हुआ कि जवानों को जांच के लिए उपलब्ध कराया जाए। कश्मीर के आईजी को भी निवेदन किया गया, लेकिन राष्ट्र हित में कुछ नहीं हुआ।

तब टाइम्स ऑफ इंडिया ने एस पी की शिकायत को प्रकाशित किया। अगले दिन ब्रिगेडियर स्वयं जवानों को एसपी के पास ले गए। थानेदार को बुलाकर उन्होंने जांच कराई। बाद में कोर्ट मार्शल हुआ।

रक्षा मंत्रालय ने पहली बार ऐसी व्यवस्था की जिसके अनुसार शहीद जवान और ऑफसर के शव को तिरंगा में लपेट कर विशेष जहाज से उनके घर पहुंचाया गया। पहली बार कॉफिन बॉक्स में शहीदों को भेजा गया था। सभी कॉफिन श्रीनगर में बदामीबाग कैंटीनमेंट में बनाए जाते थे। ऐसी व्यवस्था 1962, 1965 या 71 के युद्ध में नहीं थी।

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