खुशवंत सिंह के सुजान सिंह पार्क के फ्लैट में अब भी लगभग सब कुछ पहल जैसा है। उनकी आराम कुर्सी, लाइब्रेयरी और घर की डेकोरेशन। कभी-कभी लगता है कि वे कभी सामने आ जाएंगे। जाहिर है,अब इधर उनके फ्लैट में दोस्तों की बैठकें नहीं होती। समय के बेहद पाबंद खुशवंत सिंह। वे यारबाश थे। पर आठ बजे के बाद सबको विदा कर देते थे। ड्राइंग रूम में आराम कुर्सी पर बैठकर वे दोस्तों से गप मारते थे। हंसी-ठिठोली के बीच भी उनके हाथ में कोई किताब रहती थी। दो दिन में एक किताब साफ।
खुशवंत सिंह यहां साठ के दशक में आ गए थे। सुजान सिंह पार्क को उनके पिता सरदार सोबा सिंह ने अपने पिता के नाम से बनाया था। इंडिया गेट से बेहद करीब। इसे आप चाहें तो एक सोसायटी भी कह सकते हैं। इसका बाहरी रंग ईंट वाला है। दो मंजिला इमारत है सुजान सिंह पार्क। राजधानी का पहला अपार्टमेंट्स। इसके ठीक आगे एक पत्थर लगा है। उसे आप पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि सरदार सोबा सिंह ने अपने पिता सुजान सिंह के नाम पर इसका निर्माण करवाया था। निर्माण वर्ष 1946 है।
क्यों पसंद था सुजान सिंह पार्क
खुशवंत सिंह मूलत: और अंतत:अंग्रेजी के लेखक थे, पर उनके चाहने वालों का संसार तमाम भारतीय भाषाओं में है। हिन्दुस्तान अख़बार में काम करते हुए उनके कॉलम का सालों अनुवाद करने का मौका मिला। कई बार बात हुई। साक्षात और फोन पर। वे बातचीत के दौरान अपने पिता सरदार सोबा सिंह का जिक्र कर दिया करते थे। उन्होंने ही कनॉट प्लेस और नई दिल्ली की कई महत्त्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कराया था। इनमें मॉडर्न स्कूल, बड़ोदा हाऊस, राष्ट्रपति भवन वगैरह शामिल हैं। वे बताते थे उन्हें सुजान सिंह पार्क में रहना इसलिए पसंद है, क्योंकि इधर सोबा सिंह का सारा कुनबा रहता रहा। खुशवंत सिंह ग्राउंड फ्लोर के फ्लैट में रहते थे। उनसे पहले उनकी पत्नी कंवल मलिक दिवंगत हो गईं थीं। उसके बाद वे अपने फ्लैट में एकाकी जीवन गुजार रहे थे।
आशियाना शब्दों के शैदाई का
खुशवंत सिंह के फ्लैट में दाखिल होते ही आपको समझ आ जाता है कि ये आशियाना किसी शब्दों के शैदाई का होगा। अब भी चारों तरफ करीने से किताबें बुक शेल्फ में रखी हैं। पंजाब, पंजाबियत, उर्दू शायरी, राजनीति,समाज वगैरह विषयों पर सैकड़ों किताबें पढ़ी हैं। पर वे नहीं हैं। खुशवंत सिंह ने एक बार इस खाकसार से लेखक से कहा था कि वे इस बात की इजाजत नहीं देते कि कोई उनके घर से किताब लेकर जाए। खुशवंत सिंह के फ्लैट में प्रवेश करते ही आपको उनके सेवक उनके स्टडी में ले जाते थे। यहां पर ही खुशवंत सिंह आराम कुर्सी में बैठकर कोई पुस्तक को पढ़ रहे होते थे। गर्मजोशी से स्वागत करते थे हर मिलने वाले का। घऱ के कमरों की सीलिंग खासी ऊंची है। आपको तुरंत समझ आ जाता है कि सुजान सिंह पार्क का निर्माण 70-75 साल से पहले ही हुआ होगा। आजकल इतनी ऊंची सीलिंग के घर या फ्लैट नहीं बनते। आपको चार बेड रूम के इस फ्लैट के हर कमरे के बाहर झांकने पर गुलों से गुलजार मनमोहक बगीचा दिखता है। हर कमरा बाहर की रोशनी से नहा रहा है। बेजोड़ है इधर के फ्लैटों का आर्किटेक्चर। अब तो आप इस तरह के फ्लैटों की कतई उम्मीद नहीं कर सकते।
क्या कहा था अरुणा आसफ अली को
खुशवंत सिह यहां पर आने से पहले अपने पिता के जनपथ स्थित बंगले में रहते थे। अब भी उसके एक हिस्से पर उनके परिवार का कब्जा है,जहां से सोबा सिंह फाउंडेशन काम करता है। महान स्वाधीनता सेनानी अरुणा आसफ अली ने मुझे 1988 में बताया था कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक दिन वह उनके जनपथ वाले घर में गई। वक्त रात का रहा होगा। खुशवंत सिंह उनसे मिलने बाहर आए। वह सिर को छिपाकर खड़ी थीं। पुलिस उन्हें पकड़ने की चेष्टा कर रही थी। उन्होंने खुशवंत सिंह से एक रात वहां पर रहने की इजाजत मांगी। जिसे उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि चूंकि यह मेरे पिता का घर है, इसलिए वे इसमें किसी को रात गुजारने की इजाजत नहीं दे सकता। इतनी ईमानदार साफगोई खुशवंत सिंह सरीखा इंसान ही कर सकता है।
कौन आता था मिलने
खुशवंत सिंह से रोज देश-विदेश से लेखक,पत्रकार,कवि और उनके प्रशंसक मिलने के लिए आते रहते थे। वे सबसे मिलते थे। दिन में विश्राम करते। वे ऊपर से देखने पर बहुत स्वच्छंद प्रवृत्ति के लगते थे, परंतु उनका जीवन अत्यंत अनुशासित व्यक्ति का था। लंबे अर्से तक वह दिल्ली के जिमखाना क्लब में टेनिस खेलते रहे। 'सिंगल माल्ट' उनकी प्रिय विस्की थी, जिसके दो पैग नियत समय पर पीते। खाना जल्द खा लेते। घर में हों या किसी पार्टी में, पार्टी चाहे प्रधानमंत्री के घर पर क्यों न हो, उन्हें समय पर भोजन मिलना चाहिए। उन्हें सुबह जल्दी उठना होता था, क्योंकि उनके लिखने का समय वही होता था।
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अब कौन रहता उस घर में
खुशवंत सिंह के पुत्र राहुल सिंह मुंबई में रहते हैं। वे बीच-बीच में पिता के पास वक्त गुजारने के लिए आते-रहते थे। सुजान सिंह पार्क के ठीक आगे खान मार्केट हैं। यहां के दुकानदारों से खुशवंत सिंह का खासा लगाव था। दोनों एक दूसरे को बीते दशकों से जानते थे। खुशवंत सिंह एक दौर में हर रोज अपनी पत्नी और अपने या किसी संबंधी के बच्चों के साथ रात के वक्त मार्केट में आइसक्रीम खाने के लिए जाते थे। बेशक उनकी कलम के शैदाइयों से लेकर खान मार्केट के दुकानदारों को उनकी बहुत याद आती है। आएगी भी क्यों नहीं। आखिऱ उनके जैसा लेखक और इंसान सदियों में जन्म जो लेता है।
सुजान सिंह पार्क से सेंट स्टीफंस कॉलेज
सुजान सिंह पार्क दिल्ली का पहला अपार्टमेंट हैं। इसके बाद तिलक लेन पर सागर अपार्टमेंट्स 1970 के दशक के शुरू में बना। अपने पिता के नाम पर सुजान सिंह पार्क का निर्माण करवाया था सरदार सोभा सिंह यानी खुशवंत सिंह के पिता ने। ये ईंट और सफेद रंग की खूबसूरत इमारत है। इसके भीतर अमलतास के दर्जनों पेड़ लगे हैं। सुजान सिंह पार्क का डिजाइन वाल्टर जॉर्ज ने तैयार किया था। जॉर्ज ने ही सेंट स्टीफंस कॉलेज, मिरांडा हाउस, ग्वायर हॉल और रीगल सिनेमा का डिजाइन बनाया था। सुजान सिंह पार्क में सात ब्लॉक हैं। हर में 12 फ्लैट हैं। इसके फ्लैटों की खिड़कियों से बाहर झांकने पर गुलों से गुलजार मनमोहक बगीचा दिखता है। सुजान सिंह पार्क के ठीक आगे खान मार्केट हैं। अब ये दिल्ली की एलिट मार्केट है।
सुजान सिंह पार्क यानी एक अलग दुनिया
सुजान सिंह पार्क में प्रवेश करते ही इस तरह का अहसास होता है कि मानो आप किसी अन्य लोक में पहुंच गए हों। दिल्ली की आपाधापी से हटकर इधर का शांत वातावरण आपको सुकून देता है। सुजान सिंह पार्क में कई सेलिब्रेटीज रहते हैं। इनमें संजय खान की बहन दिलशाद खान, लेखक भाईचंद पटेल, विदेशी राजनयिक पटेल शामिल हैं। खुशवंत सिंह का कुनबा तो रहता ही है। मोहम्मद अली जिन्ना के अखबार दि डॉन के संपादक अलताफ हुसैन भी इधर रहते थे। दंगाइयों ने 1947 में अलताफ हुसैन के फ्लैट पर भी हल्ला बोला गया था। इसमें शुरूआती दौर ज्यादातर अंग्रेज अफसर रहते थे। जाहिर है,देश के स्वतंत्र होने के बाद इसमें हिन्दुस्तानी रहने लगे। भारत सरकार भी इसमें कई फ्लैट रेंट पर लेती रही। हालांकि सोबा सिंह खुद बड़े ठेकेदार थे, लेकिन सुजान सिंह पार्क की जिम्मेदारी उन्होंने सुलेमान खान नाम के ठेकेदार को दी। सुजान सिंह के पीछे ही इनमें काम करने वाले सेवकों के घर भी हैं। ये सभी परिवार इनमें शुरू से ही रह रहे हैं। नंद लाल इधर 1957 से रह रहे हैं। उन्हें आप सुजान सिंह पार्क का इतिहासकार कह सकते हैं। बताते हैं, एक बार इसमें सोबा सिंह पर कुछ गुंडों ने जानलेवा हमला भी किया था।
कब गंभीर हो जाते थे
आप खुशवंत सिंह से सैकड़ों बार मिलें पर वे मुलाकातें गिनती की होती थीं जब वे गंभीर-गमगीन होते थे। निराशा या नैराश्य उनके शब्दकोश में नहीं था। गंभीर विषयों पर बातचीत के दौरान वे सहज रहते थे। वो किस्सागो थे। उनके पास खजाना था किस्सों और फसानों का। अपने पिता सोबा सिंह का नाम भगत सिंह के खिलाफ दी गई गवाही को लेकर उठे विवाद पर बात करते हुए वे कुछ गंभीर हो जाते थे। सोबा सिंह पर आरोप था कि उन्होंने भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी। खुशवंत सिंह कहते थे मेरे पिता 8 अप्रैल,1929 को केंद्रीय असेम्बली ( अब संसद भवन) की दर्शक दीर्घा में उस वक्त मौजूद थे और उन्होंने दो लोगों को बम फेंकते हुए देखा था, जिन्हें वे उस समय तक नहीं पहचानते थे पर बाद में देखने पर पहचान लिया।
ब्रिटिश पीएम की सास कौन थी खुशवंत सिंह की
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की सास भी सुजान सिंह पार्क में रहा करती थी। बोरिस जॉनसन अपने को भारत का दामाद भी कहते हैं। हालांकि वे अलग किस्म के दामाद हैं। उनकी (दूसरी तलाकशुदा) पत्नी मरीना व्हीलर की मां सरदारनी दिलीप कौर भारतीय थीं। उसे सब दीप कौर ही कहते थे। दीप कौर की पहली शादी खुशवंत सिंह के भाई दलजीत सिंह से हुई थी। सोबा सिंह के चार पुत्र थे। उनमें से एक खुशवंत सिंह भी थे। तो इस लिहाज से बोरिस जॉनसन का अपने खुशवंत सिंह जी से भी संबंध बनता है। खुशवंत सिंह के छोटे भाई थे दलजीत सिंह। बोरिस जॉनसन और मरीना व्हीलर में 25 साल साथ-साथ रहने के बाद कुछ साल पहले तलाक हो गया था। दोनों के चार बच्चे भी हैं। बोरिस जॉनसन भारत पहले भी कई बार आते रहे हैं और उनके मरीना के परिवार से ठीक-ठाक संबंध हैं। कहते हैं कि वे दिल्ली में जी-74 सुजान सिंह पार्क जाते रहे हैं। वहीं तो दलजीत सिंह का परिवार रहता है।
कौन थी दिलीप कौर
कौन थी दिलीप कौर? उसे सब दीप कौर ही कहते थे। देश के बंटवारे के समय उसका परिवार सरगोधा (अब पाकिस्तान) से दिल्ली आया। यहां आते ही दीप कौर दिल्ली जिमखाना क्लब में जाकर टेनिस खेलने लगी। तब उसकी उम्र 14 साल थी। उसके पिता मशहूर डॉक्टर थे। उनके दिल्ली और देश के मशहूर बिल्डर सरदार सोबा सिंह से संबंध थे। सोबा सिंह अपने सबसे छोटे पुत्र दलजीत सिंह के लिए किसी सुयोग्य कन्या की तलाश में थे जो उनके परिवार की बहू बन सके। कहते हैं, सोबा सिंह को दीप कौर के बारे में पता चला तो उन्होंने उसके पिता से ऱिश्ते की बात की। बात बन गई।
कौन आया था उस शादी में
दलजीत सिंह, जो अपने बड़े भाई खुशवंत सिंह की तरह से लिखने-पढ़ने में रुचि लेते थे, और दीप कौर की शादी हो जाती है। साल था 1950। तब दीप कौर की उम्र सत्रह साल की थी और दलजीत सिंह की 27 साल। यानी दोनों में दस साल का अंतर था। सोबा सिंह ने शादी की रिस्पेशन अपने 1 जनपथ के भव्य बंगले में दी। उसमें सैकड़ों असरदार और पैसे वाले मेहमान मौजूद थे।
दीप कौर की पुत्री मरीना व्हीलर ने अपनी किताब Homestead: My Mother, Partition and the Punjab में लिखा है कि “मेरी मां के पहले पति (दलजीत सिंह) सियासत में बुलंदियां को छूना चाहते थे। उन्हें बाकी दुनिया से कोई मतलब नहीं था। कुछ साल अपने पति के मां-बाप के घर में रहने के बाद मेरी मां वहां से एक दिन एक बैग लेकर निकल गई।“दीप कौर और दलजीत सिंह में कभी तालमेल नहीं बैठा। दोनों में बातचीत भी कम होती थी। इसलिए दोनों में दूरियां बढ़ने लगीं। बहरहाल, भारत के 1950 के प्रोग्रेसिव समाज में भी किसी बहू के अपने पति के घर को यूं अचानक से छोड़ देना सामान्य घटना नहीं थी। यह खबर जब धीरे-धीरे राजधानी में फैली तो सनसनी मच गई। लोगों को यकीन नहीं हुआ कि जिस सोबा सिंह को आधी दिल्ली का मालिक कहते हैं, उनकी बहू अपने ससुराल का घर छोड़कर चली जाएगी। कहते हैं कि दोनों परिवारों ने दीप कौर और दलजीत सिंह क बीच तकरार और मतभेद दूर करने की तमाम कोशिशें की थीं।
कहते हैं, अपने मायके में वापस आने के बाद दीप कौर को लगा कि फिलहाल दिल्ली में रहने से बेहतर होगा कि वह मुंबई शिफ्ट हो जाए। वह तब अपनी बहन अनूप के पास चली गईं। दिल्ली से दूर कुछ महीनों तक बंबई में रहने के बाद दीप दिल्ली आ गई। वह अपने डॉक्टर पिता के घर रहने लगी। उसके घर में उसके फैसले को लेकर बवाल कट रहा था। उसके दादा खासतौर पर बहुत खफा थे अपनी पोती के फैसले से। खैर, दीप कौर ने फिर से जिमखाना क्लब में जाकर टेनिस खेलना चालू कर दिया।
मरीना व्हीलर लिखती हैं कि “ मेरी मां को कनाडा की हाई कमीशन में नौकरी मिल गई। वहां पर उसकी जिंदगी बदल गई। वह डिप्लोमेटिक सर्किल में उठने बैठने लगी। उसका फिर से शादी करने का कोई इरादा नहीं था। पर उसी दौर में उनकी जिंदगी में पत्रकार चार्ल्स व्हीलर आ गए। वे बीबीसी के दिल्ली में संवाददाता थे।”
किससे प्यार करने लगी दीप कौर
कहने वाले कहते हैं कि चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई 1960 में भारत के राजकीय दौरे पर आए। उनके सम्मान में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक भोज का आयोजन किया। वहां पर पहली बार दीप कौर और चार्ल्स व्हीलर मिले। दोनों में बातचीत हुई और बातचीत मित्रता और फिर शादी तक जा पहुंची। शादी से पहले दोनों खूब घूमे-फिरे। दोनों एक दूसरे पर जान निसार करने लगे। दोनों की पहली कायदे की डेट की भी रोचक कहानी है। दोनों नेहरू जी के खास प्रोजेक्ट भाखड़ा नांगल डैम को देखने पंजाब गए। उसके बाद दोनों कश्मीर की वादियों में नौका विहार का आनंद लेने और शिकारे में दुनिया की नजरों से दूर रहने के लिए चले गए। अभी तक दोनों ने शादी नहीं की थी। खैर, 29 मार्च, 1962 को दोनों ने दिल्ली में शादी कर ली।शादी के कुछ समय के बाद चार्ल्स व्हीलर की जर्मनी के शहर बर्लिन में ट्रांसफर हो गई। वहां तीन साल रहने के बाद चार्ल्स व्हीलर को बीबीसी ने 1965 में वाशिंगटन में भेज दिया।
तब तक चार्ल्स व्हीलर और दीप कौर दो बेटियों- मरीना तथा शरीन के माता- पिता बन चुके थे। मरीना ने ही आगे चलकर बोरिस जॉनसन से विवाह किया। वही बोरिस जॉनसन, जो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी रहे।
बहरहाल, दीप कौर और चार्ल्स व्हीलर 1962 में भारत से गए तो फिर तीन बार ही वापस भारत आए।दीप कौर का फरवरी, 2020 में कैंसर की चपेट में आने के कारण निधन हो गया था। वह तब 88 साल की थी। वह लंदन के करीब ससेक्स के एक कॉटेज में रहती थी। चार्ल्स व्हीलर का 2008 में 85 साल की उम्र में निधन हो गया था। उधर, दीप कौर से तलाक के बाद दलजीत सिंह ने भी बाद में शादी कर ली थी और वे अपने बड़े भाई खुशवंत सिंह के साथ ही रहे।