79वें स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर के सुदूर किश्तवाड़ जिले के चिशोती गाँव में त्रासदी आ गई। मचैल माता जाने वाले तीर्थयात्रियों का यह गाँव चंडी मंदिर जाने वाले रास्ते पर आखिरी वाहन योग्य स्थान है। दोपहर के आसपास बादल फटने से एक लंगर (सामुदायिक रसोईघर), एक सुरक्षा चौकी और आसपास के क्षेत्र में खड़े कई वाहन बह गए। अंतिम अपडेट के अनुसार, कम से कम 65 शव बरामद किए गए हैं और सैकड़ों लापता बताए गए हैं।
तीन दिनों तक खराब मौसम के पूर्वानुमान के कारण, स्कूल शिक्षा निदेशक जम्मू ने सोमवार को सभी सरकारी और निजी स्कूलों को बंद करने का आदेश दिया। केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) जम्मू के कई हिस्सों के लिए ट्रैफिक एडवायजरी में लोगों से सभी अनावश्यक यात्राओं से बचने के लिए कहा गया है। जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग बंद है और सभी प्रकार के वाहनों की आवाजाही रोक दी गई है। ऐसा मुख्य रूप से कुछ हिस्सों में पत्थर गिरने की खबरों के मद्देनजर किया गया है।
स्थानीय भाजपा विधायक सुनील शर्मा आपदाग्रस्त क्षेत्र में ही रुके हुए हैं। वे नए गठित पड्डेर नागसेनी विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ यह गाँव स्थित है। वे लगातार वहाँ मौजूद रहकर वहाँ आने वाले सभी लोगों से बातचीत कर रहे हैं। आपदा के बाद सबसे बड़ी चुनौती मचैल माता मंदिर में फंसे लगभग 15,000 तीर्थयात्रियों को सुरक्षित उनके घरों तक पहुँचाना था। उन्हें सुरक्षित उनके घरों तक पहुँचाना एक बहुत बड़ा काम था। साथ ही क्षतिग्रस्त बुनियादी ढाँचे का बचाव, राहत और पुनर्वास भी चुनौतीपूर्ण काम थे ताकि संपर्क सुनिश्चित किया जा सके।
अनियंत्रित, अनियोजित और बेतरतीब विकास की दौड़
प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर कांग्रेस प्रमुख तारिक कर्रा और कई अन्य राजनीतिक नेता तब से आपदा स्थल का दौरा कर चुके हैं। क्या ये वीआईपी दौरे राहत और पुनर्वास प्रयासों में योगदान करते हैं? या क्या ये दौरे प्रभावित लोगों को बचाने और सहायता प्रदान करने के प्रयासों में बाधा डालते हैं? हमें शायद आपदा क्षेत्रों में इस तरह के दौरों को विनियमित करने वाले नए प्रोटोकॉल विकसित करने की आवश्यकता है।
पहाड़ी हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों से भी प्राकृतिक आपदाओं की ऐसी ही रिपोर्टें मिली हैं। आम नागरिक और विशेषज्ञ नाजुक हिमालयी क्षेत्रों में अनियंत्रित, अनियोजित और बेतरतीब विकास को इन बार-बार होने वाली आपदाओं का मूल कारण मान रहे हैं। एक दशक पहले तक मचैल माता तीर्थयात्रा एक सप्ताह तक चलने वाला कार्यक्रम था, जिसमें मंदिर के रास्ते में तीन रातें गुजारनी पड़ती थीं। अब, यह एक दिन की यात्रा में सिमट गया है क्योंकि ट्रेक मार्ग पर नई सड़कें और पुल बन रहे हैं।
बादल फटने को एक छोटे से क्षेत्र में एक घंटे से भी कम समय के भीतर 100 मिमी या उससे अधिक तक की बहुत भारी बारिश के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। ऐसा क्यों होता है? इसे जलवायु परिवर्तन का एक संकेत माना जाता है और पर्यावरण वैज्ञानिकों का मानना है कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई अक्सर इसके बढ़ावा देने का काम कर सकती है, भले ही यह ठोस वजह नहीं है। ऊंचाई वाले क्षेत्रों में प्राकृतिक वन आवरण का क्षरण एक ट्रिगर माना जाता है और ऐसा लगता है कि तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियों का रोपण, जो एक तरह से यहां के लिए विदेशी हैं, वो सही समाधान नहीं है।
सोए हुए विशालकाय पहाड़ों को जगाना खतरे का संकेत
किश्तवाड़ जिले में 14 अगस्त की आपदा के तीन दिन बाद, रविवार को प्रकृति के प्रकोप का खामियाजा भुगतने की बारी कठुआ जिले की थी। अब तक सात लोगों की मौत हो चुकी है और कुछ दर्जन लोग घायल हुए हैं। बड़ी संख्या में घर क्षतिग्रस्त हुए हैं। नालों पर अतिक्रमण, उन्हें बांधने की कोशिश और उन्हें कम करने के कारण भारी वर्षा की स्थिति में अतिरिक्त पानी का मुक्त प्रवाह बाधित हुआ है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि मौसमी नालों और छोटी नदियों के बाढ़ वाले मैदानों में मकानों के निर्माण से विनाश एक तरह से चक्रीय हो सकता है। इसका मतलब हुआ कि हर कुछ सालों के बाद ऐसे विनाश देखने को मिलते रहेंगे।
क्या नाजुक हिमालयी क्षेत्रों में तथाकथित विकास के लिए सड़कें बनाने हेतु पहाड़ों की ढलानों को काटना ही एकमात्र रास्ता है? क्या परिणामस्वरूप पेड़ों से रहित, खुले ढलान आपदाओं को खुला निमंत्रण नहीं हैं? क्या सोए हुए विशालकाय पहाड़ों को यूँ ही पड़े रहने देना बेहतर नहीं है? एक बार जब ये विशालकाय पहाड़ मशीनों द्वारा काटे जाने और आपदाओं को जन्म देने के शोर से जाग उठे हैं, तो क्या हमें अपनी विकास नीतियों पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? क्या इन विकास आवश्यकताओं को प्रकृति के साथ मिलाकर रखना और इसी हिसाब आगे बढ़ना बेहतर नहीं होगा?
हमें इन सभी और कई अन्य सवालों पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। खासकर अगर हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर रहना है, और बार-बार हो रहीं इन प्राकृतिक आपदाओं के बगैर पहाड़ों की शांति का आनंद लेना है।