कोई नौ साल पहले की बात है। 2015 के दिसंबर का दूसरा हफ्ता। दिल्ली के मुकाबले संभल कुछ ज्यादा ही सर्द था। ठंड तो उतनी ही थी, लेकिन उसके नीचे छुपा सर्द आतंक कुछ ऐसा था जो आज जैसा बिलकुल भी नहीं दिखता था। आज तो लोग मरे हैं, बवाल कटा है, सुप्रीम कोर्ट तक को बोलना पड़ा है। तब तो चूं तक नहीं हुई थी। केंद्र में बिलकुल यही सरकार थी लेकिन सूबे में समाजवादी, बावजूद इसके एक ऐसी कार्रवाई हुई थी जिसने शहर की गलियों में सन्नाटा भर दिया था।
आतंक के बाजार में अल कायदा इन इंडियन सबकॉन्टिनेंट (एक्यूआइएस) नाम का एक नया संगठन आया था। कुछ गिरफ्तारियों के बाद दिल्ली पुलिस इसके भंडाफोड़ का दावा करते हुए अपनी पीठ खुजला रही थी। उसने चार लोगों को पकड़ा था और कहा था कि अल-कायदा के भारतीय मॉड्यूल को ध्वस्त कर दिया गया है। इन चार में से दो लोग संभल से पकड़े गए थे। उनमें से एक ‘सरगना’ था।
वे दो लोग क्या और कैसे थे, इसका अंदाजा स्थानीय लोगों के साथ हुए एक मजाकिया संवाद से लगाया जा सकता है। कुछ लोग कह रहे थे कि अगर अल-कायदा के सरगना ऐसे ही होते हैं तो इस संगठन से किसी को कोई खतरा नहीं होना चाहिए और इसे खत्म करना तो वाकई चुटकियों का खेल होगा। बेशक, पकड़े गए लोगों की प्रोफाइल ही इतनी कमजोर और निरीह थी कि मजाक स्वाभाविक था, लेकिन उनके परिवारों और मोहल्लों पर जो गुजर रही थी उसने संभल के लोगों को एकबारगी तो चेता ही दिया था कि आजमगढ़ के बाद अगली बारी उनके शहर की है।
दिल्ली पुलिस ने जो कहानी सुनाई, उसका सबसे अहम किरदार संभल का मो. आसिफ था जिसे एक्यूआइएस का ‘सरगना’ कहा गया। हम लोग देखने गए थे कि अगर वाकई संभल में अल कायदा का सरगना रहता है, तो उसका घर-परिवार कैसा होता होगा। जैसे मक्सिम गोर्की ने कभी कल्पना की थी कि करोड़पति कैसे होते होंगे, रिपोर्टिंग पर निकलते वक्त कुछ-कुछ वैसा ही खयाल मेरे दिमाग में भी चल रहा था।
वह कथित सरगना किराये के एक कमरे में अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ दीपासराय मोहल्ले में रहता था। उसके घर में कुल जमा एक चौकी, एक फ्रिज, कुछ बरतन और प्लास्टिक की कुर्सियां थीं। पैसे की तंगी के चलते उसके बेटे हसाब का नाम स्कूल से कट चुका था। घर चलाने के लिए दिल्ली से हर इतवार को कपड़े और इलेक्ट्रॉनिक सामान लाकर वह संभल में बेचता था। ऐसे ही एक इतवार 13 दिसंबर, 2015 को वह सामान लाने दिल्ली गया और गायब हो गया। स्पेशल सेल ने दिल्ली के सीलमपुर से उसकी गिरफ्तारी 14 दिसंबर की दिखाई।
हम लोग गिरफ्तारी के दस दिन बाद उसके घर पहुंचे थे- 24 दिसंबर को- जब ईद मिलाद का मुबारक मौका था। उसकी बीवी आफिया फर्श पर बेहोश पड़ी थी। बच्चे यहां-वहां छितराए थे। सब कुछ उजड़ा सा था। देख के दिल धक से रह गया! ठीक वैसे ही, जैसे संभल में अभी मारे गए जवान लड़के नईम की अम्मा बदहवास-सी अपने लाल को गले लगाने के लिए गली में चिल्लाती फिर रही थी और न्यूजलॉन्ड्री पर अवधेश की स्टोरी में उसे चिल्लाता देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। आफिया की बेहोशी का भी कमोबेश ऐसा ही असर हुआ था, पर बहुत चुपचाप। पुलिस की कहानी में अंधा भरोसा रखने वाले किसी शख्स के लिए तो वह क्या ही फिल्मी दृश्य रहा होता, कि अल कायदा के इंडिया सरगना की मूर्छित बीवी के हाथ में ड्रिप लगी हुई है।
इसी तरह, कोई यह जानकर भी फेर में पड़ सकता था कि वह सरगना अपनी बड़ी बहन सबीहा से 12 दिसंबर, 2015 की शाम महज हजार रुपये उधार मांगकर खरीदारी करने दिल्ली गया था। वहां उठाए जाने के बाद उससे पूछताछ के आधार पर बंगलुरु से किसी मौलाना अंजर शाह को गिरफ्तार किया गया। उसे पुलिस ने एक्यूआइएस की स्लीपर सेल का मुखिया बताया जबकि बंगलुरु के तत्कालीन पुलिस आयुक्त एन.एस. मेघारिक का बयान था, ”हमारे पास कोई साक्ष्य नहीं है कि वह आतंकवाद में लिप्त था।”
बावजूद इसके, आयुक्त ने दिल्ली पुलिस की कार्रवाई को यह कहते हुए सही ठहरा दिया कि उसने सबूत के आधार पर ही गिरफ्तारी की होगी। दिलचस्प है कि जिस दिन मौलाना को उठाया गया, उसके अगले ही दिन उसके खिलाफ भड़काऊ भाषण से जुड़े एक पुराने मुकदमे की फाइल बंद होने वाली थी।
तीसरा शख्स संभल से उठाया गया जफर मसूद था, आसिफ का पड़ोसी। इसका केस और दिलचस्प था। एक आतंकी मामले में उसका नाम 2001 में मीडिया के रास्ते उछला था। इसके बाद मसूद ने खुद ही सरेंडर का एक आवेदन लगाया और दिल्ली की अदालत ने उसे इस मामले में क्लीन चिट दे दी थी। पुलिस की कहानी के मुताबिक सरगना आसिफ को बाहर भेजने का ‘वित्तीय’ इंतजाम मसूद ने किया था, हालांकि माली हालात उसके घर भी वैसे ही निकले। मसूद की पत्नी रूहीना के खाते में बमुश्किल पांच हजार रुपये थे और वह बड़ी मुश्किल से सिलाई कर के घर चला रही थीं। मसूद अपने पार्टनर फुरकान के साथ ट्रक चलवाता था जिससे परिवार का गुजारा होता था।
पुलिसिया कहानी का चौथा किरदार ओडिशा के कटक से पकड़ा गया अब्दुल रहमान नाम का एक शख्स था। उसे नब्बे दिन की कैद के बाद छोड़ दिया गया क्योंकि वह बीजू जनता दल का कार्यकर्ता निकल गया।
आप पूछेंगे यह पुरानी कहानी मैं अब क्यों सुना रहा हूं? हालिया हिंसा में जो साबुत जिंदा बचे हैं या संभल के अस्पताल में घायल होकर भर्ती हैं, सब कह रहे हैं कि उनके ऊपर फर्जी तहरीर लिखवाने के लिए दबाव डाला गया। जांघ पर गोली खाकर सरकारी अस्पताल में भर्ती अजीम कह रहा था कि उससे दस-दस लोगों के नाम लिखवाने को पुलिस ने कहा। ‘’जब हम अकेले गए थे तो दस दस लोगों के नाम कहां से लिखवाएं’, कहते-कहते अजीम रो पड़ा। यह भी अवधेश की स्टोरी का हिस्सा है। उससे ठीक पहले यही बात करने वाले वसीम के बुजुर्ग बाप को फफकते हुए देखना हृदयविदारक था।
हम नहीं जानते कि कितने नाम दबाव डालकर लिखवाए गए हैं या कितने और जोड़े जाने हैं। फिलहाल संभल की हिंसा में पुलिस ने सात एफआइआर दर्ज की हैं। इनमें 2750 अज्ञात लोग हैं। कुछेक नामजद हैं। अज्ञात एफआइआरों को साकार होते हुए लखनऊ से दिल्ली तक हम नागरिकता संशोधन पर हुए आंदोलन के दमन में देख ही चुके हैं। इतने सारे अज्ञातों में से कुछ को छांट कर एक कहानी भी रचनी होगी। कहानी रचने का प्लॉट 2015-16 की गिरफ्तारियों में पहले से मौजूद है। यानी, संभल की नौ साल पुरानी कहानी दूसरी शक्ल में अब हमारे सामने आने वाली है।
तब पकड़े गए लोग मजदूर थे। आज मारे गए या जख्मी लोग भी मजदूर ही हैं। ये सब गरीब लोग हैं। पता नहीं इस समय आसिफ और मसूद के परिवार किस हाल में होंगे, लेकिन उनकी नियति के साथ संभल का भविष्य नौ साल पहले ही जुड़ चुका था। प्लॉट तैयार था, बस घटना की दरकार थी ताकि पटकथा पूरी की जा सके। अगर यकीन न हो तो ‘आज तक’ पर अरविंद ओझा की बीमार रिपोर्ट देख लीजिए, जो संभल हिंसा को खुलेआम अल कायदा वाली संदिग्ध कहानी के साथ जोड़ कर बासी कढ़ी में उबाल ला रही है।
संभल की स्थानीय हिंसा अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा कब बना दी जाए, हम नहीं जानते। हम उसे रोक भी नहीं सकते। हां, पुरानी कहानी के थके-हारे किरदारों की जिंदगियों की एक झलक पाने से इतना भर हो सकता है कि जब भी आजमगढ़ की तरह संभल की अंतरराष्ट्रीय फिल्म रिलीज हो, तो हमेशा की तरह हम मुंह में उंगली दबाकर आश्चर्य की उबासियां न लेते फिरें।