मुझे याद है कि मेरे बचपन में ज्‍यादातर सामाजिक या सार्वजनिक पेशे से जुड़े लोगों को समाज में प्रतिष्‍ठा की नजर से देखा जाता था। इसके अलावा, यह समाज किसी को मोटे तौर से उसकी भाषा और प्रत्‍यक्ष आचरण के आधार पर इज्‍जत देता था। पता नहीं कैसे, पर सार्वजनिक पेशों से जुड़े लोगों के साथ यह कसौटी अपने आप फिट हो जाती थी। शायद आजादी के बाद बीते तीन दशक के अनुभव का यह सबक हो, कि लोग मानकर चलते थे कि कोई व्‍यक्ति प्रोफेसर, जज, वकील, सूबेदार, जेलर, दरोगा, मैनेजर, लीडर, आदि है तो उसकी भाषा और आचरण सही ही होगा। शायद इसीलिए इस समाज में थोड़ा जागरूक लोग सीधे पेशे के नाम पर ही बच्‍चों के नाम रख देते थे, बहुत माथापच्‍ची नहीं करते थे। जिन भीतरी इलाकों में इन पेशों या पदों से जुड़ी प्रतिष्‍ठा नहीं पहुंची रही होगी वहां पैदा होने के दिन, मौसम, देवी-देवता, आदि पर बच्‍चे का नाम रखने के कुछ सरल नुस्‍खे होते थे।   

पेशागत या पदगत नामों को बहुत साल नहीं बीते हैं। प्रो. मैनेजर पांडे को गुजरे ज्‍यादा बरस नहीं हुए। प्रो. नामवर सिंह तो खैर अपने नाम में सभी प्रतिष्ठित पदों की सामूहिक संज्ञा को बंटोरे हुए थे, इसलिए चाहे जो भी बन जाते पर नामवर ही रहते। हमारे बीएचयू में एक सम्‍मानित छात्र नेता हुआ करते थे सूबेदार सिंह। हम लोगों ने उन्‍हें लंबे समय तक देखा-सुना। मेरा एक दोस्‍त हुआ करता था जेलर यादव। एक बचपन के दोस्‍त का नाम एलआइसी था। वह वास्‍तव में बीमा एजेंट ही बना। इसे आप सार्वजनिक उपक्रमों की प्रतिष्‍ठा से चाहे तो जोड़कर देख सकते हैं। हम सभी ऐसे बहुत से नामों को जानते होंगे। ऐसे नाम बाकायदा मां-बाप और परिजनों के दिए हुए होते थे। वह पीढ़ी अब भी बची हुई है जिसका नाम किसी पेशे या पद का नाम है।   

नाम अगर किसी पद पर नहीं रखा तो क्‍या हुआ, आदर्श तो पद ही था। बच्‍चे को वहीं पहुंचाना था। मेरी एक आजी थीं। वे लगातार कहती थीं कि लड़का बड़ा होकर जज बनेगा। उनकी नजर में जज सबसे ऊंची चीज थी। उधर, नाना-नानी की सुई लगातार कलक्‍टर पर अटकी रहती थी। कहने का मतलब कि बच्‍चों के लिए मां-बाप और बुजुर्गों की आकांक्षा सार्वजनिक पेशों के प्रति इज्‍जत में झलकती थी। यह समझदारी केवल सत्‍ता का मसला नहीं थी, इसमें आचार की नैतिकता का बराबर पुट था। मां-बाप अब भी बच्‍चों के जो नाम रखते हैं उसमें उनकी आकांक्षा झलकती है, लेकिन उन नामों का सार्वजनिक पेशों से रिश्‍ता टूट चुका है। अब कोई भी अपने बच्‍चे का नाम पटवारी नहीं रखना चाहता। मेरे खयाल से बहुत पिछड़े गांवों में भी अब यह चलन नहीं रहा। 

यह चलन कब टूटा, निश्चित है कोई एक तारीख तो नहीं ही होगी। फिर भी, ऐसा लगता है कि बीते बीस-पचीस बरस के दौरान नामकरण के लिए सार्वजनिक पेशे लोगों को रास आना बंद हो गए। अव्‍वल तो नई अर्थव्‍यवस्‍था ने लोगों की दुनिया को बहुत चौड़ा कर दिया। जैसे हम लोग एक कविता पढ़ते थे कि चिड़िया अंडे में थी तो अंडा ही उसकी दुनिया था, बाहर आई तो उसकी दुनिया बढ़ कर पेड़ हो गई, फिर पंख तौलने लगी तो असीम आकाश उसकी दुनिया हो गया। यही तर्ज रही होगी। सार्वजनिक नौकरियों का आकर्षण फिर भी बना रहा। राजस्‍थान, बिहार जैसे राज्‍यों में आज भी पहली प्राथमिकता सरकारी नौकरी है, लेकिन इस आकांक्षा में पेशे से जुड़ा वह नैतिक अर्थ नहीं बचा है जो नामकरण वाले दौर तक लोकधारणा में हुआ करता था। हर सरकारी नौकरी का उम्‍मीदवार और परीक्षार्थी इस सच को बखूबी जानता है।

यानी, कोई तो ऐसा वक्‍फ़ा रहा होगा जब सार्वजनिक पेशों का नैतिक भाषा, सच्‍चे बोल और सदाचरण से रिश्‍ता टूटा होगा। हम नहीं जानते कि ऐसा क्‍या और कब हुआ, लेकिन जो भी हुआ वह अब रोज़ ही घटता दिख रहा है। एक जज साहब के घर से नोट निकल रहे हैं। दूसरे जज साहब फैसला दे रहे हैं कि क्‍या करना बलात्‍कार माना जाएगा और क्‍या नहीं। स्‍पीकर साहेब दो तरह का सच बोल रहे हैं कि माइक उन्‍हीं के हाथ में रहता है और माइक उनके नियंत्रण में नहीं रहता। डीएसपी साहब अमन कमेटी की बैठक मे खुलेआम कह रहे हैं कि रंग झेल सकते हो तो होली में घर से बाहर निकलो वरना भीतर रहो; दूसरे को सिवइयां खिलानी हैं तो पहले गुझिया खाओ। एक मंत्रीजी कह रहे हैं कि सात दरोगा के हाथ-पैर तोड़वाकर यहां तक पहुंचा हूं, हल्‍के में न लेना। दूसरे मंत्रीजी एक सांसद को मुगलों की नाजायज औलाद कह रहे हैं। एक कलक्‍टर साहब तीन साल की बच्‍ची को ही उसके बलात्‍कार के लिए दोषी ठहरा चुके हैं। सबसे दिलचस्‍प, तकरीबन बॉटमलाइन जैसा बयान मध्‍यप्रदेश के एक पूर्व मंत्री ने इस साल दिया था, कि ‘’जो बाथरूम में कॉकरोच से डरते हैं वही बनते हैं थोनदार, कलक्‍टर और एसपी’’। 

ऐसी बयानबाजियां झेलते इस देश को दो-तीन दशक हो गए। जैसे बरसात में प्राय: साइकिल का कुत्‍ता फेल हो जाता है, वैसे ही होली, ईद, दिवाली, रामनवमी, बकरीद के मौसम में लोकतंत्र के सिपहसालारों की जुबान ढीली पड़ जाती है। संचारी भाव में पड़ना मूर्खों की प्रवृत्ति है, इसलिए ताजा बयानों पर सिर खपाने से बेहतर इस स्‍थायी विचार को स्‍वीकार कर लेना है कि सार्वजनिक पद व पेशे नैतिकता, सच्‍चाई और सदाचार से च्‍युत हो चुके हैं। शायद इसीलिए मां-बाप अब इनके नाम अपने बच्‍चों को नहीं देते। 

चूंकि यह समझदारी औसतन पूरे समाज की बन चुकी है, तो क्‍या रणवीर इलाहाबादिया, समय रैना, अनुभव बस्‍सी, कुणाल कामरा, स्‍वाति सचदेवा, जैसे लोगों की अपने पेशे में सार्वजनिक भाषा जायज है? यहां पर सुधिजन दोफाड़ दिखते हैं। इस देश में ज़फ़र जटल्‍ली जैसे व्‍यंग्‍यकार शायर हुए हैं जिन्‍हें राजा का उपहास उड़ाने के लिए तोप से उड़ा दिया गया। दसवीं-ग्‍यारहवीं सदी में कश्‍मीर के संस्‍कृत विद्वान रहे क्षेमेन्‍द्र ने अपने प्रहसनों में राजा के सिवाय समाज के किसी भी प्रतिष्ठित व्‍यक्ति को नहीं बख्‍शा था। भाषा का जो पाताल जटल्‍ली ने छुआ और धर्म के मखौल का जो आकाश क्षेमेन्‍द्र ने, कामरा प्रभृति उनके पासंग भी नहीं ठहरते। बावजूद इसके, जटल्‍ली और क्षेमेन्‍द्र को लोक ने भुला दिया क्‍योंकि लोक आकाश-पाताल में नहीं, जमीन पर रहता था। 

लोक अब बदल चुका है। पुराने वाले लोक में सांसारिक और नैतिक आकांक्षा को सार्वजनिक पेशे एक साथ आश्‍वस्‍त करते थे, पेशागत नामकरण की लंबी चली परंपरा इसका उदाहरण है। बदले हुए नए लोक में सार्वजनिक पेशे और आचार से नैतिकता का लोप हो चुका है। नैतिकता का जब लोप हो गया तो अनैतिकता का कोई अर्थ नहीं बचता। वह अलग से चमकेगी ही नहीं। इसलिए जज बनना, कलक्‍टर बनना, शिक्षक बनना, यहां तक कि गोलगप्‍पे बेचना और स्‍टैंड-अप कॉमेडियन बनना, सब एक ही बात है। याद आया कि असम में अभी एक पत्रकार का उत्‍पीड़न हुआ था। उसे दो बार गिरफ्तार किया गया। फिर पता चला कि वह वकील भी है, व्‍यापारी भी है, कपड़े की दुकान चलाता है और ट्रांसपोर्ट में छह डम्‍पर भी चलवाता है। पत्रकारिता में बीते वर्षों फैली बेरोजगारी ने ‘हितों के टकराव’ को शब्‍दकोश से लुप्‍त ही कर दिया है। अब वहां अनाचार को जांचने का पैमाना ही नहीं बचा। तो जो प्रत्‍यक्ष है, वही सत्‍य है और जो प्रत्‍यक्ष है वह विरोधाभासी है, बहुआयामी है। 

अब सोचिए, कि इस देश के बेरोजगारों को ‘आकांक्षी’ कहने वाली एक सरकार का आशय किस चीज की आकांक्षा से होगा? क्‍या कोई बेरोजगार युवक आज की तारीख में एक साफ-सुथरे, नैतिक, सरल रोजगार का ‘आकांक्षी’ हो सकता है, जैसी उसके मां-बाप ने बचपन में उसके लिए आकांक्षा की होगी (भले उन्‍हें वैसा नाम न मिला हो रखने को)? सार्वजनिक दायरा तो नैतिकता-अनैतिकता, शुचिता-फूहड़ता, आदि के विभाजनों से पार जा चुका है। बस एक पैमाना बचा है आदमी को नापने का, कि वह किसके साथ है- सुरेश चव्‍हाणके के या कुणाल कामरा के साथ? ‘मुसलमान’ और ‘कंडोम’ तो दोनों जगह एक जैसा है (कामरा वाला खोजने के लिए दस साल पीछे जाना पड़ेगा)!