खबरों से आगे: हिंदी को नजरअंदाज...अरबी, फारसी को बढ़ावा! क्या करने की कोशिश कर रहे उमर अब्दुल्ला?

संसद ने 2020 में जम्मू और कश्मीर आधिकारिक भाषा विधेयक- 2020 पारित किया था। इसके जरिए केंद्र शासित प्रदेश में उर्दू और अंग्रेजी के अलावा हिंदी, कश्मीरी और डोगरी को आधिकारिक भाषा घोषित किया गया था।

एडिट
Omar abdullah, UCC, UTTRAKHAND

उत्तराखंड में यूसीसी लागू होने पर क्या बोले उमर अब्दुल्ला। फोटोः IANS

नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला अक्टूबर के मध्य में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। इसके तुरंत बाद, उन्होंने वादा किया कि कोई क्षेत्रीय भेदभाव नहीं होगा। इसका मतलब ये हुआ कि जम्मू क्षेत्र के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। उमर अब्दुल्ला का वादा इसलिए अहम था क्योंकि उनकी पार्टी ने कश्मीर घाटी से ही अधिकांश सीटें जीती थीं और यह बात चल रही थी कि कश्मीर-केंद्रित शासन की पिछली प्रथाएं वापस आ सकती हैं।

बहरहाल, सत्ता संभालने के एक महीने के भीतर उनकी सरकार ने उन खाली पदों की पहचान करने में तेजी लाने का वादा किया, जिन्हें भरने की प्रक्रिया शुरू की जा सकती थी और केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) के युवाओं को जगह दी जा सकती थी। शिक्षा मंत्री सकीना मसूद ने शिक्षा विभाग में व्याख्याताओं (Lecturers) के 575 पदों की पहचान कर लोक सेवा आयोग (पीएससी) को भेज दिया है। इनमें विभिन्न भाषाओं के लिए 102 पद हैं, जिनमें 36 पद उर्दू, दो पद अरबी और चार पद फारसी के लिए हैं।

इन 575 में हिंदी या संस्कृत के लिए एक भी पद शामिल नहीं है। 53 पद अंग्रेजी के लिए हैं। अब सवाल है कि पीएससी को हिंदी या संस्कृत के लिए कोई कोई पद नहीं भेजने का मतलब जम्मू क्षेत्र के साथ भेदभाव कैसे है? असल में, ये दोनों भाषाएं कठुआ, सांबा, जम्मू, उधमपुर और रियासी जिलों में बोली जाती हैं और स्कूलों में वैकल्पिक विषयों के रूप में भी ली जाती हैं। ये सभी हिंदू-बहुल क्षेत्र हैं। आर्टिकल 370 के निरस्त होने से पहले उर्दू जम्मू और कश्मीर राज्य की आधिकारिक भाषा थी। ऐसा लगता है कि अब एनसी सरकार घड़ी को पीछे घुमाने और सार्वजनिक स्थानों से हिंदी को खत्म करने की कोशिश कर रही है।

सितंबर 2020 में, संसद ने जम्मू और कश्मीर आधिकारिक भाषा विधेयक- 2020 पारित किया था। इसके जरिए केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) में उर्दू और अंग्रेजी के अलावा हिंदी, कश्मीरी और डोगरी को आधिकारिक भाषा घोषित किया गया। ऐसा लगता है कि हिंदी को कार्यान्वयन में पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है। इसका मतलब यह भी है कि एनसी सरकार संसद का भी अनादर कर रही है जिसने घोषणा की है कि हिंदी को अब वही दर्जा मिलेगा जो पहले जम्मू-कश्मीर में उर्दू को था।

साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 26 लाख से अधिक लोगों ने हिंदी को अपनी बोली जाने वाली भाषा बताया था और 25 लाख से अधिक लोगों ने डोगरी को अपनी मातृभाषा बताया था। ये दोनों भाषाएं देवनागरी लिपि या तकरी में लिखी जाती हैं जो प्राकृत और संस्कृत के करीब है।

स्कूलों, कॉलेजों और जम्मू विश्वविद्यालय में छात्रों के विभिन्न संगठनों ने सरकार के इस भेदभावपूर्ण कदम की कड़ी निंदा की है। सनातन धर्म सभा (एसडीएस) के अध्यक्ष पुरषोत्तम दधीची ने भी इसे जम्मू क्षेत्र की विशाल हिंदू आबादी के खिलाफ घोर भेदभाव करार दिया है। उन्होंने कहा, यह हिंदू छात्रों को हतोत्साहित करने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास है ताकि वे इन विषयों को पढ़ने के नतीजों से भयभीत हो जाएं।

यहां ये जानना भी जरूरी है कि हिंदी भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल एक प्रमुख भाषा है और देशभर में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में शामिल है। दधीची ने आशंका जताई है कि जानबूझकर हिंदी भाषा को नजरअंदाज करना केंद्र को यह संकेत देने का सरकार का तरीका भी हो सकता है कि उर्दू को जम्मू के अनिच्छुक लोगों पर फिर से थोपा जाएगा। संयोग से उर्दू 2020 के अंत तक जम्मू और कश्मीर राज्य की आधिकारिक भाषा थी।

अगस्त 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के एक साल बाद संसद के दोनों सदनों ने सितंबर के महीने में जम्मू और कश्मीर आधिकारिक भाषा विधेयक- 2020 पारित किया। विधेयक में केंद्र शासित प्रदेश में आधिकारिक भाषाओं के रूप में उर्दू और अंग्रेजी के अलावा हिंदी, कश्मीरी और डोगरी को भी शामिल किया गया। आधिकारिक भाषाओं की घोषणा करने का विशेषाधिकार यूटी प्रशासक का होता है, और इस मामले में जाहिर तौर पर यह अधिकार उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के पास है।

ऐसे में जम्मू और कश्मीर के स्कूलों से हिंदी और संस्कृत को बाहर करने के कदम को अप्रत्यक्ष रूप से उनके अधिकार को कम करने के रूप में भी समझा जा रहा है।

2011 की जनगणना के अनुसार केवल 181 लोगों ने बताया था कि वे अरबी का इस्तेमाल करते हैं! इसकी तुलना में, कम से कम 18,000 ने पश्तो/अफगानी को अपनी मातृभाषा घोषित किया था। किसी भी व्यक्ति ने आधिकारिक तौर पर फारसी को अपनी मातृभाषा घोषित नहीं किया था। सरकार ने चार लोगों को फारसी में व्याख्याता के रूप में नियुक्त करने की मांग की है, जबकि जम्मू-कश्मीर मे कोई भी इसे नहीं बोलता है। इसके उलट हिंदी के लिए एक भी पोस्ट की मांग नहीं की गई है जिसे 2011 में 26 लाख से अधिक लोग बोलते थे। जाहिर है अब तक, इस संख्या में काफी वृद्धि हुई होगी लेकिन कोई डेटा उपलब्ध नहीं है।

उर्दू, अरबी और फारसी लिखने के लिए नस्तालिक लिपि का उपयोग किया जाता है और इस तरह इन भाषाओं में एक बड़ी समानता है। इसके विपरीत, हिंदी और संस्कृत देवनागरी में लिखी जाने वाली दो भाषाएं हैं और उन्हें उमर सरकार द्वारा पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है।

यह भी पढ़ें- खबरों से आगे: जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की PDP राजनीतिक गुमनामी की ओर बढ़ रही है!

यह भी पढ़ें
Here are a few more articles:
Read the Next Article