जम्मू-कश्मीर विधानसभा का बजट सत्र सोमवार को शुरू हुआ, जहां राजनीतिक खेमे स्पष्ट रूप से विभाजित नजर आए। एक ओर नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) और कांग्रेस का गठजोड़ दिखाई दिया, तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मोर्चा संभाल रखा है। कुछ निर्दलीय विधायक और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के सदस्य शोरगुल करने वाले खेमे में शामिल हैं। करीब दो दशक बाद पहली बार महबूबा मुफ्ती पीडीपी की अगुवाई नहीं कर रही बल्कि राजनीतिक हाशिए पर बैठकर तमाशा देख रही थीं।
भाजपा ने हाल ही में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनके मंत्रियों को घेरने के लिए छाया मंत्रिमंडल (शैडो कैबिनेट) बनाने की घोषणा कर हलचल मचा दी थी। हालांकि, इस घोषणा पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया और यह महज ध्यान आकर्षित करने के लिए छोड़ा गया गुब्बारा साबित हुआ। किसी भी विधायक को किसी मंत्रालय पर नजर रखने की जिम्मेदारी नहीं दी गई और मामला वहीं खत्म हो गया। उमर अब्दुल्ला ने भी कहा कि भारत में, चाहे राष्ट्रीय स्तर हो या राज्य स्तर, कहीं भी ऐसी प्रणाली मौजूद नहीं है।
भाजपा की यह बयानबाजी और धमाके जैसी घोषणाएं दरअसल मात्र दिखावटी आतिशबाजी की तरह हैं, जो शादी-ब्याह में कुछ सेकंड के लिए आसमान में रंग बिखेरती हैं और फिर गुमनाम होकर गिर जाती हैं। यह असली जंग में चलने वाली गोलियों, मोर्टार और तोपों के गोले की तुलना में कुछ भी नहीं है।
एनसी और भाजपा की 'अदृश्य' सांठगांठ
एनसी और भाजपा के बीच की प्रतिद्वंद्विता भी अब वैसी नहीं रही जैसी पिछले साल के विधानसभा चुनाव के दौरान थी। दोनों पार्टियां अब सहज कार्य संबंध में बंधी नजर आ रही हैं। चुनाव के दौरान भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी थी ताकि वह जम्मू-कश्मीर में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सत्ता पर काबिज हो सके। भाजपा के पास धन और मानव संसाधन दोनों की कोई कमी नहीं थी।
7 अक्टूबर 2024 की शाम तक राजनीतिक विश्लेषक और भाजपा के नेता आत्मविश्वास के साथ दावा कर रहे थे कि उनकी मेहनत और दृष्टि 46+ सीटों का जादुई आंकड़ा हासिल कर लेगी। हालांकि, भाजपा ने कभी यह दावा नहीं किया कि वह अकेले 90 में से 46 सीटें जीतेगी, लेकिन उसे भरोसा था कि निर्दलीय, जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) समर्थित विधायक और अन्य छोटे दलों के सहारे वह बहुमत जुटा लेगी।
पीडीपी का पतन
लेकिन 8 अक्टूबर को मतगणना के नतीजों ने भाजपा के अरमानों पर पानी फेर दिया। नेशनल कांफ्रेंस ने 90 में से 42 सीटें जीतकर कांग्रेस के छह विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का रास्ता साफ कर लिया। भाजपा के लिए यह हार जितनी कड़वी थी, उतनी ही पीडीपी के लिए भी। 2014 में 28 सीटों पर कब्जा करने वाली पीडीपी सिर्फ तीन सीटों पर सिमट गई।
सबसे बड़ा झटका महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती की बिजबेहड़ा सीट से हार थी, जिसे पीडीपी अपनी जागीर मानती थी। पार्टी के गठन के 25 साल पूरे होने के मौके पर यह अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था। अगले चुनाव 2029 तक पार्टी के लिए कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आती।
पीडीपी अब मानवाधिकार उल्लंघन या उमर सरकार की किसी बड़ी गलती की तलाश में रहेगी ताकि कुछ समय के लिए ही सही, राजनीतिक प्रासंगिकता हासिल कर सके। पार्टी की शराबबंदी और जम्मू-कश्मीर को ड्राई स्टेट बनाने की योजना को लेकर लोग मजाक उड़ाते हैं। जो लोग पीडीपी के वरिष्ठ नेताओं की निजी आदतों और अतीत से परिचित हैं, वे ही इस योजना को गंभीरता से ले सकते हैं।
2029 तक सियासी संतुलन
पीडीपी की दुर्दशा देखकर सहानुभूति होती है, लेकिन राजनीति में कमजोर को कोई नहीं पूछता। इस सियासी तस्वीर में एनसी और भाजपा दोनों ही खुश नजर आते हैं। एनसी ने कश्मीर घाटी में पीडीपी को हाशिए पर डाल दिया है, जबकि भाजपा ने जम्मू में कांग्रेस को पीछे धकेल दिया है।
हालांकि यह कहानी परीकथा जैसी सुखद समाप्ति वाली नहीं है। जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सियासत में दो सत्ता केंद्र हैं—उपराज्यपाल मनोज सिन्हा और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला। केंद्र सरकार के रुख से साफ है कि फिलहाल जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा देने की कोई जल्दबाजी नहीं है।
इस राजनीतिक संतुलन में न कोई हारता है, न कोई जीतता है। एनसी ने कश्मीर घाटी में पीडीपी को हाशिए पर धकेल दिया है, जबकि भाजपा ने जम्मू क्षेत्र में कांग्रेस को बेअसर कर दिया है। अगले चुनाव तक यह स्थिति बनी रह सकती है। दोनों विरोधी पार्टियां अपने-अपने क्षेत्रों में खुश नजर आती हैं, लेकिन दर्शक बने लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।