प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन लगातार तीन बार सरकार बना चुका है। Photograph: (Grok)
दिल्ली राज्य की सत्ता पर 27 साल के बाद भारतीय जनता पार्टी की वापसी हुई है। आज जब चारों ओर बीजेपी की जीत का डंका बज रहा है तब इस बात पर विचार करना कि मोदीफाइड बीजेपी (मोदीफाइड इसलिए क्योंकि मोदी के पहले की बीजेपी का चाल-चरित्र-चेहरा दूसरा था) को हाराया जा सकता है, हास्यास्पद लग सकता है लेकिन इस खतरे के बावजूद इस विचार पर विचार करने के लिए इससे बेहतर समय कोई और नहीं हो सकता।
क्रिकेट में अगर कोई बैट्समैन या बॉलर लगातार खराब फॉर्म की समस्या से जूझता है तो उसे सलाह दी जाती है- बैक टू बेसिक्स. यानि फिर से वहीं से शुरू करो जहां से शुरू किया था। इस रणनीति के तहत विरोधी टीम की ताकत-कमजोरी पर खास ध्यान दिया जाता है।
राजनीति के खेल में इसे इस तरह समझा जा सकता है कि विपक्ष को मोदीफाइड बीजेपी की ताकत-कमजोरियों की पहचान करते हुए मूल मुद्दों की ओर वापसी करना होगा. सवाल यह है कि वो मूल मुद्दे हैं क्या जिनकी ओर विपक्ष अगर ध्यान दे तो बीजेपी को पस्त किया जा सकता है?
तोड़ना होगा मंडल-कमंडल युग्म
मोदीफाइड बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत है मंडल-कमंडल युग्म का निर्माण. मतलब मंडल (जातीय अस्मिता) और कमंडल (धार्मिक अस्मिता) का एक हो जाना। राजनीति की पारंपरिक व्याख्या के मुताबिक मंडल और कमंडल एक दूसरे के विरोधी हैं।
अगर कमंडल यानि धार्मिक अस्मिता की राजनीति को पस्त करना है तो जातीय अस्मिता को मज़बूत करो। ऐसा माना जाता था। पिछले दो दशकों की राजनीति यद्यपि इस स्थापना को गलत साबित करती है लेकिन खुद को प्रगतिशील कहने वाला तबका आज भी इस झूठी स्थापना पर कहीं न कहीं यकीन करता है।
सचाई यह है कि यह फॉर्मूला सड़ चुका है और मोदी के नेतृत्व में मंडल जातियां जो कि इस देश की आबादी का 50 प्रतिशत से ऊपर का हिस्सा बनाती हैं - कमंडल के साथ एकमेक हो चुका है।
मोदी खुद ओबीसी समुदाय से आते हैं। उनकी कैबिनेट में 29 मंत्री ऐसे हैं जो मंडल जातियों से आते हैं। मेरा मानना है कि वो वीडी सावरकर के बाद हिंदुत्व के सबसे बड़े पोस्टर ब्वॉय हैं। जब तक मंडल-कमंडल युग्म बना रहेगा, मोदी फाइड बीजेपी चुनाव जीतती रहेगी।
सच्ची सेक्युलर राजनीति
मोदीफाइड बीजेपी लगातार जीत दर्ज कर रही है इसका दूसरा बड़ा कारण है सेक्युलर राजनीति का गैर प्रामाणिक हो जाना। कोई माने या न माने आज हिंदुत्व की राजनीति का 70 फीसदी हिस्सा प्रतिक्रियावाद की उपज है। सवाल है कि प्रतिक्रिया किसके खिलाफ? जवाब है गैर-प्रामाणिक सेक्युर राजनीति के खिलाफ़।बीजेपी या संघ का विरोध करने वाले को बाई डिफॉल्ट सेक्युलर मान लेना इसी वैचारिक फिसलन का नतीज़ा है। जब तक इस देश में मुसलमान पहचान की राजनीति बंद नहीं होगी और विपक्ष इस राजनीति का बचाव करना नहीं छोड़ेगा तब तक मोदी-बीजेपी अपराजेय बनें रहेंगे।
कारपोरेट शक्ति का विकल्प
मोदीफाइड बीजेपी की तीसरा सबसे बड़ी ताकत है कारपोरेट शक्ति। बात चुनावी सिर्फ चंदे की नहीं बल्कि भरोसे की है। भारत के पूंजीपति पिछले 25 सालों से पूरी ताकत के साथ मोदी के पीछे खड़े हैं।
गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद ही मोदी ने कारपोरेट शक्ति का मंत्र समझ लिया था. इसका भरपूर उपयोग करते हुये वो 2014 में दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता पर विराजमान हो गये। अगर कारपोरेट नहीं होते तो मोदी दिल्ली तक की यात्रा नहीं कर सकते थे।
इसके बाद भारत में कारपोरेट और राजनीति की गलबहियां का एक नया दौर शुरू हुआ है जो बेशर्म और क्रूर है लेकिन चुनावी राजनीति में सफलता दिलाने के लिये बेहद ज़रूरी। विपक्ष को या तो मोदीफाइड बीजेपी की कारपोरेट शक्ति को कमजोर करना होगा या इससे बड़ी शक्ति अपने पक्ष में तैयार करनी होगी।
हिंदी न्यूज चैनलों की दीवार
मोदीफाइड बीजेपी की जीत को अगर मंडल-कमंडल युग्म से ताकत मिलती है, कारपोरेट से प्रोटीन शेक तो हिंदी टीवी मीडिया (जिसकी दर्शक संख्या प्रतिदिन करोड़ों में है) से नैरेटिव बिल्डिंग में सहयोग और कवर-अप में मदद।
पिछले दस सालों में नोटबंदी से लेकर कोरोना और किसान आंदोलन से लेकर रफाएल और हिंडनबर्ग तक सैकड़ो ऐसे मुद्दे सामने आये जिन पर अगर न्यूज़ चैनल्स ने ठीक से सवाल किया होता तो मोदी सरकार हिल जाती। लेकिन हर बार टीवी मीडिया ने मोदी सरकार को वॉकओवर दिया।
मुझे नहीं याद है कि आज तक किसी न्यूज़ चैनल ने पीएम या उनके चार बड़े मंत्रियों – रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, विदेश मंत्री या वित्त मंत्री का नाम लेकर कोई सवाल किया हो या इस्तीफा मांगा हो जबकि मनमोहन सिंह के दौर में यह आम बात थी।
मोदीफाइड बीजेपी और हार के बीच अगर सबसे मज़बूत दीवार है तो वो है हिंदी न्यूज़ चैनल्स। इस दीवार को गिराना होगा।
मोदी, बीजेपी और हिंदुत्व पॉलिटिक्स के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को डिक्रेडिट करने और आलोचना की धार को कुंद करने में इन चैनलों का अहम योगदान है। दिल्ली चुनाव को ही लें तो साफ हो जाएगा कि केजरीवाल के खिलाफ शीशमहल का नैरेटिव तैयार करने में हिंदी के न्यूज़ चैनल्स का अहम योगदान है।
बेशक सोशल मीडिया पर विपक्ष पहले के मुकाबले ताकतवर दिखता है लेकिन जनमत निर्माण में इसकी भूमिका आज भी बेहद कमजोर है। विश्वसनीयता के पैमाने पर जो ताकत आजतक की है वह किसी यू ट्यूबर की न है न हो सकती है।
बिना संगठन बात अधूरी
संगठन के बिना किसी भी विचार का चाहे वो कितना ही महान क्यों न हो -कोई मतलब नहीं. अगर संगठन मज़बूत है तो फिर कोई भी विचार चाहे कितना ही घटिया क्यों न हो उसे महान बनाया जा सकता है। माओ, स्टालिन से लेकर महात्मा गांधी तक हर किसी ने संगठन की ताकत तो समझा था।
आज अगर मोदीफाइड बीजेपी के सामने विपक्ष बार-बार परास्त हो रहा है तो उसका बड़ा कारण यह है कि संगठन निर्माण पर उसका ज़ोर न के बराबर है। राष्ट्रीय स्तर पर चाहे कांग्रेस हो या फिर राज्य स्तर पर समाजवादी पार्टी, आप, आरजेडी, टीएमसी, एनसीपी,डीएमके -संघ से मुकाबला करने के लिये इनके पास कौन सा संगठन है?
कुनबे के कुनबे को संगठन का नाम देना खुद को धोखा देने जैसा है। इन दलों का सारा ध्यान चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने तक सीमित रहता है। इसीलिये ये चुनाव के दौरान सक्रिय होते हैं और चुनाव के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं।
यहां पर राहुल गांधी को अलग करना चाहूंगा। पूरे विपक्षी खेमें में राहुल इकलौते ऐसे नेता हैं जिनके पास मोदीफाइड बीजेपी के बरक्स एक वैकल्पिक विज़न है। बोझिल इतिहास और प्रतिकूल वातावरण की वजह से उनको वो फल नहीं मिल रहा जो मिलना चाहिये लेकिन राहुल जिस राजनीति का बीजारोपण कर रहे हैं उसका सुखद फल मिलना अवश्यसंभावी है।