कैलास मानसरोवर के वे रहस्यमयी साधु, जिनके पांव और हाथ की अंगुलियों के नाखून थे गायब

इस साल कैलास मानसरोवर यात्रा में एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि इस बार चीन सरकार ने पहली बार यात्रियों के मानसरोवर झील में स्नान करने पर पाबंदी लगा दी है। पहले यात्री झील की परिक्रमा करते हुए चारों दिशाओं में स्नान करते थे।

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Photograph: (AI)

कल (30 जून को), 2019 से स्थगित कैलास मानसरोवर यात्रा दोबारा शुरू हो रही है। इस बार यात्रा पारंपरिक मार्ग धारचूला (पिथौरागढ़) के अलावा नाथुला से भी की जाएगी। यह यात्रा डोकलाम विवाद और कोरोना महामारी के चलते रुक गई थी। विदेश मंत्रालय के चीन डिवीजन द्वारा प्रायोजित यह एकमात्र अंतरराष्ट्रीय धार्मिक यात्रा है, जिसमें इस बार 500 यात्री कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जा सकेंगे।

इस यात्रा में एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि इस बार चीन सरकार ने पहली बार यात्रियों के मानसरोवर झील में स्नान करने पर पाबंदी लगा दी है। पहले यात्री झील की परिक्रमा करते हुए चारों दिशाओं में स्नान करते थे।

मैं स्वयं उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से एक हूँ जिसे 1992 में विदेश मंत्रालय की लॉटरी में चुना गया था- उस समय 52 दिनों की कठिन किंतु दिव्य यात्रा के लिए। मोबाइल और ईमेल नहीं थे, टेलीग्राम से मेरी पुष्टि हुई। इसके बाद राजधानी अस्पताल से मेडिकल सर्टिफिकेट लिया, बैंक ड्राफ्ट बनवाया और निर्देशानुसार दिल्ली पहुँचा।

चीन डिवीजन में लंबी ब्रिफिंग के बाद पासपोर्ट और ड्राफ्ट जमा किए गए। 32 यात्रियों के बैच को ITBP अस्पताल ले जाया गया। अंतिम रूप से चयनित लोगों से भारतीय मुद्रा ली गई, जिसे डॉलर और फिर युआन (6:1) में बदला गया। अतिरिक्त राशि, दवाओं और भोजन के लिए, दल प्रमुख श्री मनोहर त्यागी (IAS, त्रिपुरा कैडर) को सौंपी गई।

दो दिन बाद सुबह 3 बजे हम होटल जनपथ से यूपी रोडवेज की बस में रवाना हुए। मित्र और रिश्तेदार विदा करने आए - कुछ लोग भावुक होकर हमारे चरणों में झुकते दिखे। जब मैंने, एक पत्रकार होने के नाते, इसका कारण पूछा तो एक ने कहा, "पता नहीं आप लोग लौटकर आएंगे भी या नहीं, आप भगवान के पास जा रहे हैं।"

ये शब्द भविष्यवाणी साबित हुए- बाद में मालपा शिविर में हुए भूस्खलन में हमारी पूरी बैच जिसमें प्रोतिमा बेदी, ITBP के जवान, डॉक्टर और कुली शामिल थे, का दुखद अंत हो गया।

हम नैनीताल, काठगोदाम, अल्मोड़ा होते हुए कौसानी पहुँचे। अगले दिन जागेश्वर में पूजा कर धारचूला पहुँचे - भारत-नेपाल सीमा पर कालीगंगा नदी के किनारे स्थित स्थान। वहाँ से अंतिम बार नेपाल जाकर STD कॉल किया क्योंकि अगली बार फोन की सुविधा वापसी पर ही मिलनी थी।

तवाघाट से चढ़ाई शुरू हुई-  नारायण आश्रम, नावीडांग, सिरखा, गाला, बूंदी, मालपा, गूंजी, मुनस्यारी होते हुए हमने स्वतंत्रता दिवस कालापानी में मनाया। वहीं इमिग्रेशन की औपचारिकताएँ हुईं। लिपुलेख दर्रे पर बिहार कैडर के IAS पी. नारायणन के नेतृत्व वाला पिछला दल लौटा और हमें बर्फीले ग्लेशियरों पर सचमुच धक्का देकर चीन क्षेत्र में प्रवेश कराया गया।

तकलाकोट (प्राचीन कुबेर की राजधानी) में डॉलर को युआन में बदला। राम मंदिर भी गए, जहाँ तिब्बती पर्यटन अधिकारी संपर्क अधिकारी थे। रक्षा बंधन पर्व मानसरोवर के तट पर मनाया, जहाँ ADG श्री के.सी. चतुर्वेदी ने पूजा करवाई।

डोल्मा दर्रे (सबसे ऊँचा स्थान) पर पूर्वजों को अर्पण किया, मां दुर्गा के कुंड से जल संग्रह किया-  जहाँ माना जाता है कि माता पार्वती स्नान करती थीं। रहने के लिए अस्थायी मठों में ठहराया गया, वहीं भोजन, चाय-कॉफी बनाना, बर्तन धोना-  सब मिलकर किया गया, बिना किसी जात-पात, अमीरी-गरीबी के भेदभाव के।

हमारी टीम में ADG चतुर्वेदी, मुंबई पुलिस के इंस्पेक्टर वाघ, अहमदाबाद व जामनगर के डॉक्टर, BARC के वैज्ञानिक दंपति सुनील मिश्रा व उनकी पत्नी, तमिलनाडु के रामकृष्णन, केरल की श्रीमती नायर, कनाडा से एक NRI, पुणे की सुश्री जोशी, हरियाणा के श्री चावला, मुंबई के विपिन सावला, मेहरोत्रा, और दिल्ली के श्री अरोड़ा शामिल थे- यह सचमुच एक लघु भारत था। खच्चरों और याकों की निष्ठा भी अद्वितीय थी- न वे कभी रास्ता भूले, न सामान गिराया।

टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता के रूप में मैं रिपोर्ट हाथ से लिखकर ITBP के माध्यम से दिल्ली स्थित दफ्तर भेजता — संपादक श्री दिलीप पडगांवकर के नाम। एक रिपोर्ट लिपुलेख से IB अधिकारी को दी, गूंजी में जहाँ SBI और डाकघर था।

चूँकि 1992 में इस मार्ग से भारत-चीन व्यापार दोबारा शुरू हुआ था, मेरी "तकलाकोट" डेटलाइन वाली रिपोर्ट दिल्ली संस्करण के पहले पृष्ठ पर छपी। हमने ठंड में भी सुबह स्नान छोड़ा नहीं। चारों दिशाओं से मानसरोवर में डुबकी लगाई- जल का रंग सूर्य की दिशा के अनुसार बदलता था।

बचपन में पढ़ा था — "मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना आने को" — वहाँ सच में राजहंसों को झील में देखा।

एक कुत्ता 4 दिन तक कैलाश के रास्ते हमारा मार्गदर्शन करता रहा, फिर अदृश्य हो गया। साधुओं से भेंट हुई- जिनके न नाखून थे, न बाल। वे 26–27 वर्षों से गुफाओं में तपस्यारत थे और सूखे फलों पर जीवित रहते थे, जो यात्रियों को भेंट स्वरूप देने होते थे।

आप निश्चित रूप से भगवान शिव की भूमि में दिव्यता और अद्भुत शांति का अनुभव करेंगे। वहीं से ब्रह्मपुत्र की उत्पत्ति मानी जाती है। पूरे मार्ग में पर्वतों से निकलता शुद्ध मिनरल वाटर सुलभ था।

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