मनोज कुमार के निधन की खबर आई, तो अचानक याद पड़ा कि टॉकीज़ में देखा मेरा पहला सिनेमा उन्‍हीं का था- ‘शहीद’। ग़ाज़ीपुर में एक बहुत पुराना फैज स्‍कूल होता था। अब भी होगा। उसी में हम पढ़ते थे। पूरे स्‍कूल को ‘शहीद’ दिखाने लाया गया था। शायद पंद्रह अगस्‍त था या छब्‍बीस जनवरी। संयोग से सिनेमाहॉल मेरे मोहल्‍ले में ही था। सुहासिनी टॉकीज। अब भी होगा। पता नहीं क्‍या समझ आया रहा होगा उसे देखकर, लेकिन देशभक्ति का जज्‍़बा उसी से पहली बार चढ़ा था। मनोज कुमार की फिल्‍मकारी के और भी विषय हैं, लेकिन देशभक्ति ने उनके काम को अगर परिभाषित किया, तो निश्चित ही इसकी कुछ वजह रही होगी। 

मैंने तो 1985 में शहीद देखी। वह बीस साल पहले 1965 में रिलीज़ हुई थी। क्‍या 1965 में देशभक्ति की देश को सख्‍त ज़रूरत पड़ गई थी? या उस समय देश के लोग देशभक्ति से लबलबाए हुए थे? आजादी तो बहुत पहले मिल चुकी थी। चीन से जंग भी खत्‍म हो चुकी थी। नेहरूजी भी गुज़र चुके थे। फिर क्‍या सोचकर यह फिल्‍म बनाई गई? 

एक जवाब तो भगत सिंह या स्‍वतंत्रता के वीरों के नायकीय किरदार में हो सकता है जि‍सने बहुत से लोगों को उनके समय में प्रभावित किया है, लेकिन मनोज कुमार का सिलसिला ‘शहीद’ से शुरू ही हुआ था जो नब्‍बे के दशक के अंत तक चला। एक रचनाकार के बतौर मनोज कुमार तीन दशक तक मुसलसल जो देशभक्ति की फिल्‍में बनाते रहे, क्‍या वे फिल्‍में अपने समय को संबोधित कर रही थीं? या फिर कामयाबी के एक स्‍थायी फॉर्मूले में विश्‍वास की उपज थीं? अथवा उनकी मनोगत स्थिति का उत्‍पाद थीं? 

इस सवाल को थोड़ा और फैलाते हैं। हम लोग जो कुछ भी लिखते, पढ़ते, रचते हैं, उसकी रचना-प्रक्रिया में समय की क्‍या गति होती है? इस सवाल को खोलने के लिए दो-तीन विकल्‍प लेते हैं। मसलन, कुछ लिखने के बाद हो सकता है आपको यह लगे कि इसे तो बहुत पहले लिखा जाना था, देर हो गई। यह भी हो सकता है कि लिखने के बाद ऐसा लगे कि मौके पर आ गया वरना बहुत देर हो जाती। किसी को कुछ रचने के बाद उसकी व्‍यर्थता भी महसूस होती होगी। 

मुझे अकसर ही लिखते वक्‍त उसकी प्रासंगिकता समझ आ रही होती है लेकिन छपते-छपते लगता है बेकार ही मेहनत की गई। मने, रचना और अपने समय के आपसी रिश्‍ते पर ऐसे तमाम विकल्‍पों को आप अगर सोचें, तो शायद अपने समय को पकड़ने की बेचैनी समझ में आएगी। फिर शायद यह भी समझ आवे कि यूट्यूब, लाइव वीडियो, रील, आदि इतने लोकप्रिय क्‍यों हो गए हैं।   

यहां समस्‍या मोटे तौर पर दो तरह की है। अपने समय को पकड़ने के चक्‍कर में वास्‍तविकता आधा-तिया या उससे कम ही पकड़ में आ पाती है क्‍योंकि यथार्थ को मुकम्‍मल होने में कुछ तो वक्‍त लगता ही है। यदि वास्‍तविकता को उसके अंत तक पूरी तरह समझ कर संबोधित किया जाए, तो समय हाथ से फिसल जाता है। जैसे, मनोज कुमार के पास आजादी का पूरा रेडीमेड आख्‍यान था, उसकी तमाम व्‍याख्‍याएं थीं, लेकिन देश को 1965 में आजादी नहीं चाहिए थी। क्‍या देश को 1981 में ‘क्रान्ति’ चाहिए थी? वो भी मनोज कुमार मॉडल वाली? इसका सबसे अच्‍छा उदाहरण कार्ल मार्क्‍स हैं जिन्‍होंने पूंजीवाद को समझने में ही अपना जीवन खपा दिया, बावजूद इसके उनके बाद पूंजीवाद के इतने बहुरूपिया संस्‍करण हुए (और जारी हैं) कि लगता है मार्क्‍स को दो सौ साल और जी जाना चाहिए था।     

इस संदर्भ में बड़ा दिलचस्‍प प्रसंग वियतनाम युद्ध के आसपास के कथानक पर लिखे गए ग्राहम ग्रीन के एक उपन्‍यास ‘द क्‍वाइट अमेरिकन’ में आता है। उपन्‍यास के अमेरिकी नायक को वास्‍तव में डर है कि एक बार यदि कम्‍युनिस्‍टों का राज आ गया तो वियतनाम के लोग अपनी अभिव्‍यक्ति की आजादी को गंवा देंगे। इस पर एक ब्रिटिश पत्रकार मौज लेता है, ‘’क्‍या तुम्‍हें वाकई लगता है कि जब कोई किसान रात को अपने झोंपड़े में लौटता है तो वह लोकतंत्र के बारे में सोचता होगा?” 

कहने का आशय यह है कि किसी समय का सच्‍चा यथार्थ क्‍या है- भीतरी और बाहरी दोनों- अव्‍वल तो इसे पकड़ पाना ही घटनाओं के प्रवाह में बहुत मुश्किल होता है। फिर जिम्‍मेदारी के साथ संबोधित करना तो और मुश्किल है, जब तक कि आप यथार्थ को मय हाथ, पैर, कान, नाक सांगोपांग न देख लें। लेकिन समय का क्‍या करेंगे? जिस भविष्‍य की खातिर आप वर्तमान को संबोधित करना चाह रहे थे, वह तो तब तक अतीत बन चुका होगा। 

इसके उलट एक दृश्‍य देखें। पांच साल पहले मार्च के तीसरे हफ्ते में प्रवासी मजदूरों के पलायन को और उसी साल नवंबर के अंत में किसान आंदोलन को दर्ज करने के लिए ऐन उसी वक्‍त रचा गया सारा कुछ आज महज एक ईवेन्‍ट का उथला रोजनामचा बनकर रह गया है। उसमें गहराई नहीं है क्‍योंकि उन घटनाओं का यथार्थ तब डेवलप ही हो रहा था। 

फर्ज करिए कि मेरा मकान राष्‍ट्रीय राजमार्ग 24 के किनारे एक बहुमंजिला सोसायटी में है। 23 मार्च, 2020 को जब मजदूरों का दिल्‍ली से पलायन चालू होता है तब मैं अपनी बालकनी में आकर उसे दर्ज करना शुरू करता हूं। उससे पहले अपने पेशेवर काम में मेरा न तो मजदूरों से कोई वास्‍ता रहा है, न पलायन के मुद्दे से। यह सिलसिला हफ्ते दो हफ्ते चलता है।

फिर संयोग देखिए कि कुछ महीने बाद दिल्‍ली को घेरने कुछ किसान आते हैं, तो मेरे घर के बाहर वाले हाइवे पर ही बैठ जाते हैं। पूरा हाइवे ब्‍लॉक हो जाता है। मेरा कभी किसान मजदूर से लेना-देना नहीं रहा, लेकिन सहूलियत की मार और तात्‍कालिकता का दबाव मुझे लिफ्ट से नीचे उतार लाता है। मैं किसानों को भी दर्ज कर लेता हूं, जितने भी दिन वे वहां बैठते हैं। अब चूंकि मैं अपनी ही रचनाओं के बोझ तले दब चुका हूं, तो जब हाइवे ऐसे दृश्‍यों से खाली हो जाता है तो मजबूरी में मैं अपनी बालकनी में ही पंचायत लगा लेता हूं और पिछले संयोगों से बनी अपनी पहचान को टिकाये रखने के लिए कुछ भी करता हूं।  

कारवां गुज़र जाने के बाद कुछ कहना और ऐन मौके पर कुछ कह देना, यही दो रास्‍ते हैं। हाइज़ेनबर्ग कहते हैं कि गति और अवस्थिति दोनों को एक साथ पकड़ पाना असंभव है। यह बात क्‍वान्‍टम स्‍तर पर उन्‍होंने कही थी, लेकिन स्‍थूल चीजों के जगत पर भी यह लागू होती दिखती है (स्‍थूलता भी तो सापेक्ष ही है)। मने, या तो जगत गति से आपकी गति धीमी होगी लेकिन आपके कहन में यथार्थ की समग्रता और अर्थ की गहनता होगी; या फिर जगत गति से तालमेल बैठाने में आप यथार्थ से चूक जाएंगे, छिछले हो जाएंगे। 

पहले वाले मामले में खतरा यह है कि आप कुछ कहने के लिए जिस प्रक्रिया के पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं वह खिंचती चली जाए। दूसरे वाले में आपको किसी चीज का इंतजार नहीं करना, बस अपना वैचारिक सोंटा पल-पल से मिलकर बनते हुए अपने समय के ऊपर मारना है- दार्शनिक हाइडेगर इसे समय की ‘अश्‍लील’ (वल्‍गर) समझदारी कहते हैं।  

कहने का मतलब कि अपने लिखने-पढ़ने, रचने-बनाने, अभिव्‍यक्तियों-नारों में कहीं न कहीं अपने समय या चीजों के मुकम्‍मल अर्थ से हम चूक जाते हैं। हम अपने समय में नहीं होते। हम चीजों के समय में नहीं होते। समय हमसे बाहर अपना काम स्‍वायत्‍त ढंग से करता रहता है जबकि हम समय से बहिष्‍कृत या अर्थ से च्‍युत होकर रचते रहते हैं और गुमान पाल लेते हैं हम तो भविष्‍य रच रहे हैं। इसीलिए कलाकारों की चाहे कितनी भी निजी पहचान बन जाए, उनकी कला समाज को तो क्‍या अपने परिवार को भी बदल नहीं पाती- भले ही कलाकार की मंशा परिवर्तन की ही हो। 

जगत की गति और कला की गति के बीच यह जो दूरी है, वह न तो कलाकार की मासूम सदिच्‍छा से पटेगी और न ही नए तकनीकी माध्‍यमों से। मासूमियत भरी सदिच्‍छाओं पर तो ग्राहम ग्रीन का ही विचार है कि वह ‘’उस लाचार कोढ़ी की तरह होती है जिसकी घंटी कहीं गुम हो गई है और वह दुनिया भर में ऐसे घूम रहा है जैसे उससे किसी को कोई खतरा न हो।‘’ 

अपने यहां कवि वीरेन डंगवाल दूसरे संदर्भ में ऐसे ‘भोले’ लोगों को ‘’सरकस के हाथी’’ कह गए हैं। उधर, नए माध्‍यमों ने ‘रियलटाइम’ को पकड़ने (संबोधित करने) के चक्‍कर में जो तात्‍कालिकता-बोध या कहें बोझ पैदा कर दिया है, वहां अब इसी को पैमाना बनाकर खुद को प्रतिष्‍ठापित करने और उन लोगों को खारिज करने का चलन है जो अब भी खुलते हुए यथार्थ को ठहरकर समझने का धैर्य और तब तक मूर्खतापूर्ण विभाजनकारी प्रलाप न करने का साहस बचाकर रखे हुए हैं। तात्‍कालिकता के मारे लोगों का तकरीबन मुक्तिबोधीय-शैली में एक ही ‘अश्‍लील’ प्रश्‍न होता है- पार्टनर, फलाने मुद्दे पर आपने कुछ नहीं कहा?”   

हमारे ‘समय’ में (और जब मैं समय कह रहा हूं तो इसे ‘आधुनिकता’ के संदर्भ में ले रहा हूं जहां न कोई मालिक है न गुलाम, यानी सामंती दौर वाली ‘अथॉरिटी’ का आधुनिक राष्‍ट्र-राज्‍य में लोप हो चुका है) सामाजिक, राजनैतिक और वैयक्तिक विडंबनाओं की अभूतपूर्व भरमार है। ‘समय’ और ‘सृजन’ के रिश्‍ते के खास संदर्भ में ये विडंबनाएं दो तरह की मोटी पहचानें बनाती हैं। 

मनोज कुमार एक किस्‍म की पहचान के प्रतिनिधि हैं, जहां रचे हुए का कोई सामयिक मूल्‍य तो नहीं है फिर भी वह रचनाकार को परिभाषित और प्रतिष्ठित करता है क्‍योंकि अलग-अलग टाइम-जोन में बंटे समाज के भीतर उसके तत्‍व कहीं न कहीं स्‍मृति में मौजूद हैं। दूसरी पहचान उन लोगों की है जो समय को पकड़ने के लिए इतनी तेज भाग रहे हैं कि अपने अतीत, कर्म-कुकर्म, सब कुछ बिसरा चुके हैं और पांच-दस साल में खुद की गढ़ी पहचान से ही लसराये पड़े हैं।