मनमोहन सिंह: कुछ खार कम तो कर गए गुजरे जिधर से हम

मनमोहन सिंह का जीवन इस बात का उदाहरण है कि टकराव ही नहीं सामंजस्य का रास्ता चुनकर भी इतिहास बनाया जा सकता है।

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New Delhi: Congress leaders Sonia Gandhi, Manmohan Singh and Rahul Gandhi arrive to pay tribute to Arun Jaitley at his residence in New Delhi on Aug 24, 2019. (File Photo: IANS)

मनमोहन सिंह (फाइल फोटो- IANS)

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (1932 - 2024) के निधन के बाद किए भाजपा विधायक और मंत्री असीम अरुण के ट्वीट की काफी चर्चा हो रही है जिसमें उन्होंने निजी संस्मरण के माध्यम से दिखाया है कि मनमोहन सिंह पीएम रहते हुए भी खुद को मिडिल-क्लास मानते थे। पूर्व आईपीएस असीम अरुण ने बताया है कि प्रधानमंत्री के रूप में सुरक्षाकारणों से मिली बीएमडब्ल्यू कार के पीछे ही मनमोहन सिंह की मारुति 800 कार खड़ी रहती थी जिसे वे अपनी कार कहते थे।

यह देखकर अच्छा लगा कि राजनीति में ऐसे लोग हैं जो विपरीत राजनीतिक विचारधारा के नेता के निधन पर उनकी अच्छाइयों को याद करके श्रद्धांजलि दे रहे हैं। अन्यथा कई सारे प्रो बीजेपी सोशलमीडिया हैंडल मनमोहन सिंह को उसी नकारात्मकक नजरिए से याद कर रहे हैं जिस तरह प्रो कांग्रेस हैंडल ने अटल बिहारी वाजपेयी को याद किया था।

मनमोहन सिंह को कैसे याद करें का मेरे तईं सीधा जवाब ये है कि जैसे बाकी लोगों को लोग याद करते हैं। जिसका मृतक से जैसा नाता रहा होगा वह उसे वैसे याद करेगा। अर्थशास्त्र के प्रोफेसर मनमोहन सिंह जिन पदों पर रहे उसकी वजह से उन्होंने भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश पर व्यापक प्रभाव पड़ा। योजना आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय में किए गए उनके कार्यों का सम्यक मूल्यांकन वही लोग कर सकेंगे जो इनकी बारीकियों को समझते हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद वह पहली बार आर्थिक विशेषज्ञ की छवि से बाहर निकलकर एक राजनीतिज्ञ के रूप में देश के सामने आए मगर 10 साल तक पीएम रहने के बावजूद उनकी छवि टेक्नोक्रेट पीएम की ही रही।

मनमोहन सिंह के निधन के बाद उनका वह बयान वायरल हो गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि इतिहास उनके प्रति समकालीन मीडिया से ज्यादा उदारता बरतेगा। राजनीतिक दायरे के मतभेद ज्यादा नुकीले होते हैं इसलिए जो लोग उन 10 सालों के दायरे में पूर्व प्रधानमंत्री को देखेंगे निश्चय ही वे अपने राजनीतिक चश्मे के अनुसार मीठे-तीखे बयान देंगे। मगर आज राजनीति के साथ ही मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व को भी विशेष तौर पर याद किया जाना चाहिए।

मनमोहन सिंह की राजनीति से असहमत होने वाले भी उनकी जिस चीज से सहमत दिखते हैं वह है उनका सहज-सरल व्यक्तित्व। पद, प्रतिष्ठा और सम्पन्नता बढ़ने के बाद भी पहले की तरह सहज बने रहना दुर्लभ है। मनमोहन सिंह को करीब से जानने वालों ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया है कि एक के बाद एक पहले से बड़े पद पर विराजमान होने के बावजूद मनमोहन सिंह के बरताव में नकारात्मक बदलाव नहीं आया था।

मनमोहन सिंह के जीवन को देखने से एक बात साफ दिखती है कि उनके अन्दर टकराव का रास्ता चुनने की प्रवृत्ति नहीं थी। भारत विभाजन के पीड़ित परिवार से निकले सिंह सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़े और अपनी बौद्धिक मेधा के बलबूते जीवन में आगे बढ़ते गये। मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व टिपिकल मिडिल क्लास था जो उपलब्ध विकल्पों में से चयन करके जीवन में आगे बढ़ता जाता है। टकराव का रास्ता चुनकर खुद को साबित करने की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी। निश्चय ही उनका यही गुण वर्ष 2004 में उनके हक में गया होगा। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने यदि उन्हें प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में आगे बढ़ाया तो उन्हें यकीन रहा होगा कि अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के उलट मनमोहन सिंह पर्सनैलिटी क्लैश में नहीं पड़ेंगे।

10 साल तक प्रधानमंत्री रहने के बावजद मनमोहन सिंह ने कभी नेहरू परिवार से टकराव का रास्ता कभी नहीं चुना। उनके समकालीन ज्यादातर वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का कभी न कभी नेहरू परिवार से टकराव या मतभेद होता दिखा मगर मनमोहन सिंह इसके अपवाद बने रहे। कुछ लोग कह सकते हैं कि मनमोहन सिंह में साहस का अभाव था मगर मेरी राय में उन्हें अपनी शक्ति और सीमा का भलीभाँति ज्ञान था। वह जानते थे कि वह चुनाव में भाषण देकर वोट नहीं जुटा सकते मगर राज्य की नीतियाँ बना सकते हैं और उन्हें अमल में ला सकते हैं।

हम देखते हैं कि बहुत से प्रतिभाशाली लोग उन लड़ाइयों में खप जाते हैं जिनका परिणाम पहले से उनके खिलाफ तय होता है। मनमोहन सिंह को "रिमोट कंट्रोल पीएम" कहा गया और इसमें काफी हद तक सच्चाई थी मगर यह भी विचार करना चाहिए मनमोहन सिंह के पास दूसरा विकल्प क्या था! यह मानना बौद्धिक पाखण्ड होगा कि जिसके नेतृत्व में चुनाव जीतकर कांग्रेस ने सरकार ने बनायी है, उसकी बात मनमोहन सिंह न मानते। मनमोहन सिंह सरकार में निश्चय ही सोनिया गांधी का वीटो चलता था मगर मनमोहन सिंह को जितना स्पेस मिला था उसमें उन्होंने जो किया, उसी की आज चर्चा हो रही है।

मनमोहन सिंह का जीवन इस बात का उदाहरण है कि टकराव ही नहीं सामंजस्य का रास्ता चुनकर भी इतिहास बनाया जा सकता है। किसी मामले में टकराव से नया मार्ग तैयार होता है तो किसी मामले में सामंजस्य से नया रास्ता खुलता है। मनमोहन सिंह के निधन पर सुषमा स्वराज के साथ उनके शायराना सवाल-जवाब वाले शेर वायरल हो रहे हैं मगर मुझे कार्ल मार्क्स का वह उद्धरण याद आ रहा है जो उन्होंने "लूई नेपोलियन की 18वीं ब्रूमायर" निबंध में लिखा था,

"मनुष्य अपना इतिहास स्वयं बनाता है, लेकिन वह अपनी मनमर्जी से ऐसा नहीं करता है; वह अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में इतिहास नहीं बनाता है, बल्कि वह अतीत द्वारा प्रदत्त परिस्थितियों के अंतर्गत ही इतिहास बनाता है।"

मनमोहन सिंह के अतीत ने उन्हें जो परिस्थितियां प्रदान की थीं, उनके अन्तर्गत उन्होंने इतिहास बनाया। प्रशंसा और आलोचना से परे यह इतिहास रहेगा कि वह भारत वर्ष के 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे। देश के पहले सिख प्रधानमंत्री रहे। देश की समाजवादी आर्थिक नीति को बदलने के सूत्रधार रहे। भारत विभाजन की विभीषिका के शिकार परिवार से निकला बच्चा इतिहास में यूँ दर्ज हो सका, यह बात जमाना शायद कभी न भूले। साहिर लुधियानवी याद आ रहे हैं-

माना कि इस जमीं को न गुलजार कर सके
कुछ खार कम तो कर गए गुजरे जिधर से हम

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