दिल्ली इस हफ्ते धुएं में लिपटी रही। अब भी है। कुछ सयाने लोग हवा की गुणवत्ता का मापक एक्यूआइ गिनवा कर अंकों में धुएं के बारे में डरावनी बातें कर रहे हैं। ज्यादातर लोग खांसते, बीमार पड़ते, धुएं को जज्ब करते हुए अपने काम पर नियमित आ-जा रहे हैं। कुछ सुरक्षित लोग अपनी बालकनी से बाहर देखकर ही धुएं का अंदाजा लगा ले रहे हैं। दिल्ली से बाहर के शहरों में रहने वाले फोन कर के पूछ रहे हैं कि धुएं का क्या हाल है। हर साल इस मौसम में धुएं पर ऐसी ही बातें होती हैं। इस साल भी हो रही है।
कुछ साल पहले तक धुएं के पीछे कहीं आग लगने की बातें बड़े जोर-शोर से हुआ करती थीं। अब कम ही सुनाई देती हैं। आग की बातें जब ज्यादा और बार-बार होने लगती हैं तो आग बुझ-सी जाती है। बस धुआं बच जाता है। वह कहीं नहीं जाता। अर्थशास्त्र वाले इस स्थिति को ‘न्यू नॉर्मल’ कहते हैं।
पाकिस्तान के एक सूफी शायर हुआ करते थे ज़हीन शाह ताजी। वे लिख गए हैं, ‘’शोला शोला रटते-रटते लब पर आंच न आए…’’। आग की बातें करने से आपकी अपनी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, सामने वाले की सेहत की कोई गारंटी शायर ने नहीं दी है। इसके बावजूद, ज़हीन लोग तो यही मानकर चलते हैं कि आग की बातें कम से कम की जाएं क्योंकि उससे आग लगने का खतरा रहता है। अकसर धुएं के पीछे वाली आग का तो सही-सही पता नहीं लगता लेकिन उस पर बात करने से कहीं और आग भड़क जाती है। धुएं का नया मुकाम पैदा हो जाता है।
तंग ज़हनियत के इस दौर में हालांकि ऐसी बातें समझदारी भरी नहीं मानी जाती हैं- खासकर राजनीति में, जो पुरानी आग को छुपाने के लिए और नई आग को भड़काने के लिए भी धुएं का व्यवस्थित उत्पादन करती है। धुआं पैदा करने की जरूरत क्यों पड़ सकती है? अव्वल तो, धुआं पैदा इसलिए किया जाता है ताकि पिछली आग से सामने वाले को गाफिल किया जा सके। दूजे, पिछली आग की याद दिलाने के लिए भी कभी-कभार धुआं उड़ाया जाता है। दोनों ही स्थितियों में प्रत्यक्ष अनुभव तो धुएं का ही होता है, आग बस अटकलबाजी का मसला बनकर रह जाती है।
यानी, आग और धुएं का रिश्ता इतना भी सीधा नहीं है कि धुएं की उपेक्षा कर के आग की तलाश में वक्त खपाया जाए। हो सकता है इस चक्कर में हाथ जल जाएं, या कुछ हाथ ही न आए। जैसा कि शायर अगली पंक्ति में कहता है, ‘’इक चिंगारी लब पर रख लो लब फौरन जल जाए’’। इससे तो बेहतर है दमा का मरीज बनकर जिंदगी काट दी जाए। पर, सूफियों की तरह सोचने की सलाहियत सबमें नहीं होती है। यह सच है कि राहुल गांधी ने पिछले साल महीनों तक अदाणी के नाम का खूंटा पकड़ कर राजनीति की, लेकिन उन्हें हासिल क्या हुआ? संसद से निष्कासन, मुकदमा, बेघरी, और लगातार चुनावी हार!
फर्ज कीजिए कि अगर ‘इंडिया’ गठबंधन का कोई बड़ा चेहरा (अजित पवार जितना बड़ा) 2027 में किसी दिन सुबह उठ कर अचानक कह दे कि 2023 की जुलाई में (किसी शहर में) एक बैठक हुई थी जिसमें अदानी के साथ फलाने-फलाने बड़े नेता (शरद पवार जितने बड़े) शामिल थे और राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव सहित आम चुनाव 2024 की पटकथा उसमें लिखी गई थी। बस फर्ज करिए कि ऐसा हो जाए, तो उससे राहुल गांधी के बारे में आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे?
ऐसे में दो ही बातें कही जाएंगी। एक, कि राहुल गांधी बिलकुल सही कह रहे थे, कि सबका मालिक एक अदानी ही है। दूसरी बात यह कही जा सकती है कि राहुल गांधी उस समय कर क्या रहे थे? क्या उन्हें अपने घर में फैला धुआं नहीं दिखाई दे रहा था कि आग-आग चिल्लाए जा रहे थे? अब, जबकि अजित पवार ने गौतम अदानी की सदारत में 2019 में हुई ऐसी ही एक बैठक का जिक्र कर के (वाया शरद पवार) महा विकास अघाड़ी की चुनावी किस्मत के इर्द-गिर्द ढेर सारा धुआं पैदा कर दिया है, तो दिल्लीवालों की बदकिस्मती थोड़ी सी बंट गई है। अब मुंबई भी धुआं धुआं है, भले उसके बगल में कोई पंजाब न हो।
सबसे ज्यादा धुआं ‘इंडिया’ गठबंधन में फैला है। राहुल गांधी ने नांदेड़ की एक रैली में गुरुवार को कहा, ‘’आपकी सरकार आपसे छीन ली गई… आपको नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी का उसमें हाथ था? उनके ही नेता ने कहा है कि उस राजनीतिक बैठक में अदानी भी थे। बताइए, किसी राजनीतिक बैठक में अदानी को क्यों होना चाहिए?’’
जाहिर है, राहुल गांधी ने अपना पुराना खूंटा नहीं छोड़ा है। आग, आग चिल्लाने का उन्हें फिर से मौका मिल गया है, लेकिन इसी धुएं में एक सवाल उनके ऊपर भी बनता है कि बताइए, अदानी की उस बैठक में शरद पवार को क्यों होना चाहिए और शरद पवार को इस खुलासे के बाद इंडिया गठबंधन में क्यों बने रहना चाहिए। राहुल गांधी ने नांदेड़ की रैली में शरद पवार का जिक्र तक नहीं किया। वे अदानी, अदानी रटते रहे क्योंकि सूफी के शब्दों में, उससे ‘’लब पर आंच’’ नहीं आती है।
सियासत में लगी कोई आग कभी भी बुझती नहीं है। धधकती रहती है। बस राख को खोदने भर की देरी होती है। 2019 की बैठक पर 2024 के अंत में आया बयान पंद्रह साल पहले लगी आग की याद दिलाता है। उसे राडिया टेप कांड के नाम से जाना गया था। यह कांग्रेसनीति यूपीए की दूसरी सरकार में हुआ था। बहुत से नेता, पत्रकार, उद्योगपति इसकी जद में आए थे। जिसे राहुल गांधी अदानी और मोदी के संदर्भ में ‘’क्रोनी पूंजीवाद’’ कहते रहते हैं, राडिया कांड उसकी पहली साफ झलक था लेकिन उन्होंने इस बारे में तब भी कुछ नहीं किया था। आज तो वे तब से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं, विपक्ष के नेता हैं, फिर भी शरद पवार और अदानी के रिश्ते पर चुप हैं। वे वाकई ताकतवर हैं भी या वास्तव में एक शरद पवार के आगे इतने कमजोर, लाचार?
जो आग-आग चिल्लाता है उसी से जनता उम्मीद भी करती है कि वो कभी ‘’चिंगारी को लब पर रखने’’ का साहस करेगा। नहीं रखता, तो उसे बकैत मान लिया जाता है। राहुल गांधी का अदानी वाला आग राग अजित पवार के फैलाए धुएं में कर्कश लगने लगा है। उन्हें सूफियों की बात माननी चाहिए। या तो लब पर सीधे चिंगारी रख लें, यानी अपने लोगों के बीच बैठे अदानी के प्रियजनों का नाम खुलकर लें, उन्हें हटाएं। या फिर जनता की तरह धुएं को ही सच मान लें। उसी पर बतियाएं, थोड़ा खांसें, छींकें, बीमार भी पड़ें।