‘’और? क्या हालचाल? क्या चल रहा है’’?
‘’कुछ नहीं, सब ठीकठाक। बस यही सब, काम-धाम’’।
‘’बढ़िया’’!
यह एक सामान्य बातचीत है जो हम रोज किसी न किसी से करते हैं। सामने से या फोन पर। अगर काम-धाम ठीक चल रहा हो, तो सामने वाला सुनकर अकसर संतुष्ट हो जाता है। अकसर लोग यह भी कहते पाए जाते हैं कि ‘’काम ठीक चलना चाहिए, बाकी सब ईश्वर की मर्जी’’। यह जो ‘’काम’’ का ‘’ठीक’’ से रिश्ता है, हमारे दैनिक जीवन को परिभाषित करता है। इसके अलावा बाकी मसले ‘’धाम’’ मने ईश्वर के जिम्मे हम छोड़ देते हैं। यही सामान्य, दैनंदिन जीवन है। मनुष्यता और सभ्यता के इतिहास में इसे अगर हिकारत से नहीं, तो उपेक्षा या उदासीनता के साथ जरूर देखा गया है क्योंकि इतिहास बनाने वाले और लिखने वाले अकसर ‘’कामधाम’’ करने वालों की श्रेणी में खुद को नहीं रखते। उससे थोड़ा ऊपर समझते हैं। वे काम करवाते हैं और धाम चलाते हैं। बाकी लोग काम करते हैं, धाम जाते हैं। जो नहीं जा पाते उनके लिए काम ही धाम है। मने, कर्म ही पूजा है।
हमारे जैसे पुराने समाजों में काम को लेकर कोई बहुत ठोस विचार नहीं रहा है। काम का सीधा संबंध दो जून की रोटी से रहा है। रोटी का जुगाड़ हुआ, तो दुकान का शटर गिरा। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में रहने वाले मध्यवर्गीय लोगों को आज भी नहीं समझ आता कि उनकी कामवाली बाई बिना बताए छुट्टी क्यों मार लेती है, फोन पर झूठ क्यों बोलती है या बाजार का कोई परिचित ढाबा बिना सूचना के दो दिन बंद क्यों हो जाता है और चौराहे का सब्जीवाला दुर्गापूजा से लेकर छठ तक महीने भर गायब क्यों रहता है।
‘’काम’’ के बारे में ठोस विचार या कोई फैसलाकुन बात सामान्य कामगारों की ओर से नहीं, व्यवस्था में खपे हुए सुविधाभोगी पेशेवरों की तरफ से ही अकसर आती दिखती है। जैसे लार्सन ऐंड टुब्रो के चेयरमैन या इनफोसिस के मालिक। किसी कामगार ने शायद कभी नहीं गिना होगा कि वह हफ्ते में कितने घंटे काम करता है लेकिन उद्योगों को चलाने वाले घंटे गिनते हैं क्योंकि उनका मुनाफा उससे बंधा होता है। भारतीय मीडिया में सामान्यत: एक मीडियाकर्मी औसतन सत्तर घंटे हर हफ्ते काम करता है। ज्यादा भी हो सकता है। इसमें दफ्तर आने-जाने और वॉट्सऐप पर जवाब देने का समय भी जोड़ लें तो मामला नब्बे घंटे को पार कर जाएगा। इसके बावजूद उसके भीतर भी काम के घंटों की चेतना अब तक नहीं आई है। रक्तचाप और शुगर से ग्रस्त एक औसत मीडियाकर्मी से पूछकर देखिए, तो उसका भी जवाब यही होगा कि कामधाम ठीक चल रहा है।
यानी, दो सौ साल पहले काम को लेकर जो चेतना पहली बार औद्योगिक क्रांति के चलते आई थी, वह अब भी हमारे समाज में उस तरह से नहीं है। हमारे समाज और काम का मानसिक रिश्ता तदर्थवाद या कहें एडहॉक पर चले जा रहा है। इसके उलट, सुब्रमण्यम या नारायण मूर्ति जैसे लोग एडहॉक पर आपको काम पर रख सकते हैं, लेकिन काम के घंटों के मामले में वे एडहॉक नहीं हैं। उन्हें नब्बे घंटा काम चाहिए। ये वे लोग हैं जिन्हें दो सौ साल के पूंजीवाद के असली फल मिले हैं। यही वे लोग हैं जिनके औद्योगिक पुरखों ने चालीस घंटे काम के नियम, सप्ताहान्त दो दिन की छुट्टी और श्रम के कुछ कानून तय किए थे ताकि कामगारों में असंतोष न फैले और वे खुशी-खुशी मालिकान का मुनाफा बढ़ाने के लिए काम करते रहें।
काम के घंटे, छुट्टी, श्रम कानून, श्रमिक अधिकार, ये सारी चीजें औद्योगिक क्रांति और फ्रेंच क्रांति की देन हैं जो 1940 के दशक तक आते-आते पूरी दुनिया में तकरीबन मान्य हो गईं, जब पुराने उपनिवेश आधुनिक राष्ट्र-राज्यों में तब्दील हुए। औद्योगिक क्रांति से निकले पूंजीवाद के राजकाज संबंधी मूल्यों और बाजारों को इन राष्ट्र-राज्यों ने अपनाया, इसीलिए ये आधुनिक कहलाए। भारत ने भी 1934 के फैक्ट्री कानून में तब्दीली कर के 1946 में आठ घंटे का काम लागू किया था।
अब वही लोग अपने पुरखों की विरासत पर गोले दाग रहे हैं जिन्हें उसका लाभ मिला, जिन्होंने आधुनिक श्रम और उद्योग कानूनों के सहारे इनफोसिस और एलऐंडटी जैसे साम्राज्य बनाए। और इनका तर्क क्या है? जब चेयरमैन के बयान पर चौतरफा बवाल और मजाक कटा, तो लार्सन ऐंड टुब्रो ने यह बयान दिया: ‘’हम मानते हैं कि यह दशक भारत का है और यह सामूहिक समर्पण और प्रयासों की मांग करता है ताकि प्रगति आए और हम एक विकसित राष्ट्र होने के अपने साझा सपने को साकार कर सकें।‘’ यानी, 90 घंटे के काम की मांग को ‘’राष्ट्र’’ के विकास के साथ जोड़ दिया गया। ठीक वैसे ही, जैसे गौतम अदाणी का हिंडनबर्ग प्रकरण में बचाव करने के लिए उनके प्रवक्ता भारत का तिरंगा बगल में लगाकर बैठ गए थे।
एलऐंडटी को अपने चेयरमैन का बचाव करने के लिए ‘’राष्ट्र’’ की जरूरत क्यों पड़ रही है? जबकि राष्ट्र तो लोगों के साझे से मिलकर बनता है और लोग तो ‘पत्नी को देखने’ वाले नुक्ते पर ही सुब्रमण्यम साहब का मजाक बना रहे हैं, चूंकि उन्हें काम के घंटे में उतनी दिलचस्पी नहीं। उनका काम-धाम ठीक ही चल रहा है। यह तो तर्क की अश्लीलता हुई, कि जिस राष्ट्र से आपका न एक लेना है न दो देना; और न ही जिस राष्ट्र को भी आपसे एक पाई लेना-देना नहीं है, आप उसी की टेक लगा बैठे जनता की रेड़ मारने के लिए?
वैसे, सीरियस नोट पर, सुब्रमण्यम और नारायण मूर्ति जैसों से पूछा जाना चाहिए कि कहीं वे 1870 या 1810 में लौटने की बात तो नहीं कर रहे, जब राष्ट्र और राज्य अलग-अलग चीजें हुआ करती थीं और जब ‘’काम’’ को लेकर कोई संहिता नहीं थी? दो सौ साल का पूंजीवाद क्या उनके मुनाफे के लिए फेल हो गया है? अगर ऐसा वाकई है, तो नब्बे घंटे के काम से राष्ट्र विकसित कैसे होगा? क्योंकि राष्ट्र तो आधुनिक राज्य पर निर्भर है और आधुनिक राज्य पूंजीवादी मूल्यों पर? यानी, ऐसा लगता है कि पूंजीपतियों की अब पूंजीवाद में ही आस्था जा रही है। वे जब अपने पुरखों की विरासत पूंजीवाद को कायदे से चला नहीं पाए, तो जनता से ‘’राष्ट्र’’ का नाम लेकर बेईमानी करने पर उतर आए हैं।
अब तर्क की अश्लीलता का दूसरा सिरा देखिए। मजदूरों की ट्रेड यूनियनों ने कस के चेयरमैन साहब के नब्बे घंटों वाले बयान की खिंचाई की है और 1946 के संशोधन की याद दिलाई है। ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड युनियन (एक्टू) कह रही है कि चेयरमैन साहब को पिछले वित्त वर्ष में 51 करोड़ रुपये तनख्वाह मिली जो एलऐंडटी के औसत कर्मचारी के वेतन का 535 गुना है। एक्टू के विरोध के केंद्र में यह दलील है कि भारत में सीईओ और कामगारों के वेतन में बहुत ज्यादा अंतर है। यानी, अगर कामगारों का वेतन ठीकठाक बढ़ा दिया जाए तो काम के घंटे बढ़ाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। मने, ट्रेड युनियन अपने तर्क के लिए वेतन की आड़ ले रही है। काम के ज्यादा घंटे के विरोध का कोई नैतिक तर्क उसके पास नहीं है। विरोध, मुआवजे की मांग जैसा ज्यादा सुनाई देता है। जानकार लोग ट्रेड यूनियन की भाषा में इसी को ‘अर्थवाद’ कहते हैं। बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी ट्रेड यूनियन वाली दलील दे रहे हैं और वेतन में फर्क को गिनवा रहे हैं।
चूंकि ऐसे बयान आते ही रहते हैं और इन पर अलग-अलग वर्गों की प्रतिक्रियाएं भी तकरीबन एक सी ही आती हैं, तो मोटे तौर से हमें तीन बातें पता चलती हैं। पहली, उद्योगों या पूंजीपतियों के पास ज्यादा काम करवाने के आग्रह को लेकर कोई आर्थिक दलील नहीं है, वे राष्ट्र या विकास जैसी बातों के सहारे हैं। कामगारों के प्रतिनिधियों, बौद्धिकों और यूनियनों के पास काम के घंटे बढ़ाने के विरोध के पीछे कोई नैतिक या मानवीय दलील नहीं है, वे अर्थ के सहारे हैं। तीसरे, एक सामान्य कामगार ऐसे बयानों का या तो मजाक उड़ाता है या फिर समय की चोरी करता है, झूठ बोलता है, काम से कट लेता है, फोन बंद कर लेता है या काम की अधिकता से उपजी अमानवीयता को अन्यत्र (धार्मिक जलसों से लेकर पॉपुलर सांस्कृतिक उपभोग तक) पनाह देता है।
राष्ट्र, अर्थ और मनुष्य, तीन अलहदा बातें हैं। इसीलिए किसी को किसी की बात पल्ले नहीं पड़ रही। कोई किसी की सुन भी नहीं रहा है। इससे निष्कर्ष क्या निकलता है? आज के पूंजीपति का काम पूंजीवाद से नहीं चल पा रहा, वह सामंती होना चाहता है। ट्रेड यूनियनें चाहती हैं कि पूंजीवाद पूरे नियम-कायदों और तमीज के साथ लागू हो। आम लोग अपने-अपने दायरों में मौजूदा व्यवस्था से छोटी-छोटी बगावतें करते हुए बस इतना चाहते हैं कि उनका काम-धाम ठीकठाक चलता रहे।
याद करें, बीते दो सौ साल में पूरी दुनिया में पूंजीवाद के खिलाफ सारी लड़ाई कामगारों और यूनियनों को लड़नी थी। आज क्या सीन है? कामगार यथास्थिति की तनी हुई रस्सी पर किसी तरह खुद को बैलेंस किए हुए है; यूनियनें बची-खुची ताकत से यथास्थिति को बनाए रखना चाह रही हैं; और जिसे जनता का दुश्मन बताया गया था यानी पूंजीपति, वही पूंजीवाद की कब्र खोद रहा है। दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद सुसाइडल हो चुका है।
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