क्या इस चुनाव में राजपूतों का वोट बंटने जा रहा है। क्या राजपूत वाकई बीजेपी से बहुत नाराज हैं और गुजरात, राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश तक वो बीजेपी की हवा खराब कर सकते हैं। क्या 2014 और 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजय रथ में जुते अश्व की तरह सबसे आगे रहने वाले राजपूत इस बात उस विजय रथ को रोक देंगे। इन सवालों के जवाब ढूंढने से पहले दो साल पहले चलना होगा जिससे इस पूरे प्रकरण को समझने में मदद मिलेगी।

उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एक जाट विद्वान कह रहे थे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाएगा। बीजेपी में जाट नेताओं की कोई हैसियत नहीं रह गई है, इसलिए जाट भड़के हुए हैं। ये देखने के लिए कि क्या सच में ऐसा होने जा रहा है, चुनाव से ठीक पहले मैं कुछ इलाकों में गई। मेरे कुछ दोस्त भी दूसरे इलाकों में घूम रहे थे। मैंने एक बात महसूस की कि कुछ किसान नाराज हैं।

चूंकि जाट एक ऐसी जाति है, जिसके लोग गांव से बाहर जाकर मीडिया में हों या आईटी सेक्टर में, किसान वाली पगड़ी बांधकर चलते हैं, इसलिए उनमें थोड़ी बहुत नाराजगी दिखी। लेकिन छोटी-छोटी आबादी वाली तमाम जातियां बीजेपी के पक्ष में लामबंद भी हो रही थीं। खासकर बीएसपी से जुड़ी जातियां। बल्कि पश्चिमी यूपी की यात्रा पर गए एक लेफ्टिस्ट जानकार ने बताया कि यादव गांव में कई नौजवानों ने अपने घर के बड़े-बुजुर्गों के सामने कहा कि वो बीजेपी को वोट देंगे। मतलब समाजवादी पार्टी के यादव वोट में भी विभाजन था।

उन्होंने ये भी कहा कि वोट के मामले में जाटों में थोड़ा विभाजन है, लेकिन ऐसा नहीं है कि बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाए। जाटों का एक धड़ा बीजेपी के पक्ष में है। यानी जाटों के विरोध का जो नैरेटिव किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में गढ़ा गया था उससे बीजेपी को निर्णायक नुकसान नहीं हुआ। तभी तो बीजेपी ने विधानसभा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 136 सीटों में से 93 पर विजय हासिल की थी और समाजवादी पार्टी ने 43 सीटों पर। सीटों के हिसाब से 68 प्रतिशत से अधिक सीटें बीजेपी के खाते में गई। जानकारों के मुताबिक बीजेपी को करीब 60 प्रतिशत जाटों का वोट मिला और समाजवादी पार्टी और आरएलडी गठबंधन को 40 प्रतिशत वोट ही मिले।

अब लौटते हैं अगले डेढ़ महीने चलने वाले आम चुनाव की ओर। गुजरात में केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला के एक बयान ने वहां के राजपूतों यानी क्षत्रियों को खफा कर दिया। हालांकि रुपाला तीन बार माफी मांग चुके हैं लेकिन गुजरात के कई शहरों में क्षत्रियों का सम्मेलन हुआ जिसमें रुपाला का टिकट रद्द करने की मांग लगातार की जा रही है।

उसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी राजपूतों के नाराज होने की खबरें उनकी तीन तीन महापंचायतों से और तेज हो गई। ऊपर से कांग्रेस पोषित मीडिया ने और हल्ला मचाया है कि राजपूत नाराज हैं और वो बीजेपी को परास्त करने जा रहे हैं। उसके पीछे खासकर उत्तर प्रदेश में चार कारण गिनाए जा रहे हैं- पहला, कुछ समय पहले राजा मिहिर भोज पर जातीय दावेदारी को लेकर राजपूतों और गुर्जरों के बीच छिड़ी जंग। दूसरा गाजियाबाद सीट से जनरल वीके सिंह का टिकट काटकर एक वैश्य को टिकट दे दिया जाना।

सवाल ये उठाया जा रहा है कि जब मेरठ में राजेंद्र अग्रवाल का टिकट काटकर एक दूसरे वैश्य अरुण गोविल को टिकट दिया गया तो गाजियाबाद में ठाकुर की जगह ठाकुर को क्यों नहीं। तीसरा कारण पिछले विधानसभा चुनाव में ठाकुर विधायक संगीत सोम का हार जाना, जिनके समर्थकों को लगता है कि वो हार मुजफ्फरनगर से बीजेपी उम्मीदवार संजीव बालियान की वजह से हुई थी। और चौथा कारण इस अफवाह को हवा मिलना है कि अगर बीजेपी प्रचंड बहुमत से सत्ता में तिबारा लौटी तो पहला काम ये होगा कि उत्तर प्रदश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छुट्टी हो जाएगी। इसके पीछे अफवाहों के माथे पर ये दलीलें नाच रही हैं कि जैसे मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, वैसा ही हश्र यूपी में योगी आदित्यनाथ का होगा।

इन्हीं कारणों के साए में कांग्रेसी विद्वानों और खासकर ब्राह्मण विद्वानों का वो खेमा जो पिछले चुनाव में जाट के कंधे पर सवार होकर बीजेपी को हरा रहा था, इस बार राजपूतों के कंधों पर चढ़ कर मोदी को हरा रहा है। राजनीति में ऐसा अक्सर होता है। जिनकी नैरेटिव गढ़ने की क्षमता होती है वो नैरेटिव गढ़ते हैं। लेकिन हर नैरेटिव कामयाब हो, ये जरूरी नहीं है।

राजपूत नाराज हैं। इसमें कोई शक नहीं है। गुजरात में बीजेपी के नेता को उनके खिलाफ नहीं बोलना चाहिए था। बीजेपी को भी कुछ सीटों पर जहां इनकी दावेदारी थी, वो नहीं काटनी चाहिए थी। और काट कर अगड़ी जाति के ही किसी अन्य उम्मीदवार को खड़ा नहीं करना चाहिए था। अगर काटना ही था तो पिछड़ी जाति के किसी उम्मीदवार को मैदान में उतारते। इससे ये भाव जाता कि बीजेपी समाजवादी नजरिया अपना रही है। लेकिन राजपूत की सीट काट कर बनिया और ब्राह्मण को दीजिएगा तो नाराजगी होगी।

दूसरी बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट को समर्थन में लाने के लिए राजपूतों की इतनी अनदेखी नहीं करनी चाहिए थी। राजपूत आपका कोर वोटर है। जब कोई साथ नहीं था, तब भी ये साथ था। और आज भी बीजेपी से राजपूतों का रूठना कुछ ऐसे ही है जैसे कोई किसी अपने से रूठ जाता है लेकिन मनाने पर मान जाता है। तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं वाले भाव में। ऐसा इसलिए भी है कि राजपूतों को बीजेपी में काफी राजनीतिक जगह मिली है। उतनी किसी दूसरे दल में नहीं मिली।

दस साल के भीतर यूपी में बीजेपी की सरकार बनी तो राजपूत मुख्यमंत्री बना। हालांकि योगी आदित्यनाथ की पहचान एक राजपूत नेता से ज्यादा एक संन्यासी और नाथ संप्रदाय के प्रमुख महंत की है। उस नाथ संप्रदाय की जिसे बाबा गोरखनाथ ने समाज के उपेक्षित वंचित तबकों को मर्यादा की जिंदगी देने के लिए तैयार किया था। आज भी योगी के प्रति दीवानगी समाज के कमोबेश हर तबके में है। खैर, बात राजपूत की हो रही है तो यूपी में राजपूत मुख्यमंत्री बना, उत्तराखंड में राजपूत मुख्यमंत्री बना। हिमाचल में पार्टी जीती तो राजपूत मुख्यमंत्री बना। केंद्र में दस साल से प्रधानमंत्री मोदी के नंबर 2 यानी लोकसभा में उप नेता एक राजपूत ही हैं- रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, जो पहले पांच साल तक गृह मंत्री रहे। केंद्र में ही कई महत्वपूर्ण मंत्रालय राजपूतों को मिला।

अब बात फिर से उत्तर प्रदेश की ही करें तो वहां अब तक बीजेपी ने 63 उम्मीदवार उतारे हैं जिनमें 8 राजपूत हैं। इस बार विधानसभा में बीजेपी गठबंधन के विधायकों में 43 विधायक राजपूत हैं। इसलिए ये कहना ठीक नहीं है कि बीजेपी में राजपूतों को सम्मान नहीं मिला।

पिछले 40 साल में 20 साल तक केंद्र में कांग्रेस या उसकी अगुवाई वाली गठबंधन की सरकार रही और 16 साल तक बीजेपी की अगुवाई वाली गठबंधन की। देश में चार सबसे अहम मंत्रालय वित्त, विदेश, रक्षा और गृह मंत्रालय को माना जाता है। इनमें कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार में 40 साल पहले एक राजपूत वीपी सिंह वित्त मंत्री थे, जो दो साल ही उस पद पर रहे और चंद महीने तक उसके बाद रक्षा मंत्री के पद पर। उसके बाद कोई राजपूत कांग्रेस राज में टॉप 4 में नहीं पहुंचा। लेकिन बीजेपी के दौर में वाजपेयी सरकार में जसवंत सिंह वित्त और विदेश मंत्री रहे और पिछले दस साल से राजनाथ सिंह लोकसभा में उपनेता के साथ पहले पांच साल गृह मंत्री और पिछले पांच साल से रक्षा मंत्री हैं।

ऐसे में कांग्रेस को ये कहने का कोई हक ही नहीं बनता कि बीजेपी राजपूतों का सम्मान नहीं करती। हां, ये सम्मान कोई एहसान नहीं है। पूरे देश में राजपूतों की संख्या पांच से छह फीसदी है। लेकिन इनका सकारात्मक प्रभाव समाज के दूसरे तबकों पर है। पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण वाले मंडल कमीशन को लागू करने का साहस प्रधानमंत्री रहते वीपी सिंह ने ही दिखाया था। उसी तरह शिक्षा में आरक्षण देने की हिम्मत मानव संसाधन विकास मंत्री रहते अर्जुन सिह ने दिखाई थी। इसीलिए जो समाज जमाने से उपेक्षित वंचित रहा, उसके साथ राजपूतों का बेहतर तालमेल रहा है। आज बीजेपी के साथ वो उपेक्षित वंचित तबका सबसे ज्यादा है। ऐसे ही नहीं 303 सीटें आई थीं।

अब यक्ष प्रश्न ये है कि राजपूत क्या करेंगे। तो राजपूतों का रुख देखकर लगता है कि वो बीजेपी के ही साथ रहेंगे। जिस योगी की कुर्सी को हिलती हुई दिखाया जा रहा है, वो योगी कितने मजबूत हैं, उसको आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं। पीलीभीत में प्रधानमंत्री मोदी की सभा थी। जब मंच पर योगी को बोलने के लिए जाना था तो वो पीएम के प्रति सम्मान की वजह से वो उनके सामने से ना जाकर पीछे से जाने लगे। तब प्रधानमंत्री मोदी ने उनका हाथ पकड़कर आगे से ही जाने के लिए कहा। क्या इस एक भंगिमा के बाद किसी किस्म के नकारात्मक भाव के लिए जगह बचती है।

तो सौ बात की एक बात ये है कि आज हर ताकतवर जाति अपने दीर्घकालिक रणनीति से वोट देती है। मतलब तमाम हार के बावजूद बिहार में यादव आज भी लालू प्रसाद यादव के साथ खड़ा है। उत्तर प्रदेश के यादव अखिलेश यादव के साथ खड़े हैं। क्योंकि यादवों को लगता है कि ये नेता उनके अपने हैं। ये दल उनके अपने हैं। ठीक वैसे ही राजपूत भी बीजेपी के साथ अपना हित देखकर जुड़ गए। वो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और भविष्य को ध्यान में रख कर राजपूत मतदाता सभी जगह पर बीजेपी के पक्ष में वोट करेगा। चुनाव से ठीक पहले जो कोई भी इन मतों की ठेकेदारी का दावा कर रहा है, चुनाव बाद उसका हश्र बहुत बुरा होने जा रहा है। जितनी तेजी से उन सबों ने अपनी दुकान सजाई है, उतनी ही तेजी से उनकी दुकान सिमट जाएगी।