कांग्रेस का मौजूदा संकट – नेतृत्व, नीयत और नीति का संकट है।
नेतृत्व – राहुल गांधी
नीयत – जिनके साथ हैं, उनसे ही लड़ते हैं
नीति – भविष्य के भारत की नीति नहीं है
ये बात 1959 की है। कांग्रेस अध्यक्ष यूएन ढेबर ने एक बैठक बुलाई। तब ये चर्चा चल रही थी कि ढेबर हटेंगे और ढेबर हटेंगे तो माना जा रहा था कि नए अध्यक्ष कर्नाटक के दिग्गज कांग्रेसी नेता एस निजलिंगप्पा होंगे। जब ढेबर ने कहा कि उन्होंने पार्टी के नए अध्यक्ष के लिए ये बैठक बुलाई है तो कामराज बोल पड़े कि अरे भई, ये तो तय हो चुका है कि कौन बनेगा?
ढेबर कुछ बोलते कि उससे पहले ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खासमखास माने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री बोल पड़े कि अध्यक्ष पद के लिए इंदिरा जी से पूछा जा सकता है। तब इंदिरा गांधी की तबीयत कुछ नासाज चल रही थी। कुछ नेताओं ने तबीयत को ही लेकर सवाल उठाए तो नेहरू ने कहा कि इंदू की तबीयत तो बिल्कुल ठीक है। सारे नेता चुप रह गए।
तब नेहरू के कद का कोई नेता कांग्रेस में नहीं था। कोई भी ऐसा नहीं था जो वंशवाद की इस बीज को रोपे जाने का विरोध करता। सबकी चुप्पी से कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं, इंदिरा गांधी। पिता प्रधानमंत्री, बेटी पार्टी अध्यक्ष। लेकिन 65 साल में वंशवाद के इस बोझ को ढोते ढोते कांग्रेस के कंधे कमजोर हो गए हैं। उसकी रीढ़ की हड्डी इतनी भुरभुरी हो गई है कि बात बात पर टूट पड़ती है। हालांकि आज कहने को कांग्रेस का अध्यक्ष एक गैर नेहरू गांधी परिवार के मल्लिकार्जन खरगे हैं लेकिन ये सबको पता है कि कांग्रेस का आलाकमान कौन है।
कांग्रेस के तीन सबसे बड़े संकट हैं। नीति, नीयत और नेतृत्व। लेकिन इन तीनों में भी नेतृत्व का संकट सबसे मौलिक संकट है। नेतृत्व ठीक नहीं होने की वजह से न नीति साफ है और ना ही नीयत अच्छी नजर आती है। नेतृत्व संकट की वजह से ही चालीस साल पहले तक की सर्वशक्तिमान कांग्रेस और दस साल पहले तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस में आज अफरा-तफरी मची है।
इसलिए सबसे पहले बात नेतृत्व की करते हैं। कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस छोड़ते वक्त पूर्व सांसद संजय निरुपम ने कहा कि पार्टी में पांच पावर सेंटर हैं- एक सोनिया गांधी, दूसरे राहुल गांधी, तीसरे प्रियंका गांधी वाड्रा, चौथे मल्लिकार्जुन खरगे और पांचवें वेणुगोपाल। पार्टी की पावर पांच राज्यों में भी नहीं है मगर पावर सेंटर पांच हैं। ये तो बहुत नाइंसाफी है। चलिए पांच ना सही, दो पावर सेंटर तो दिखते ही हैं। एक राहुल गांधी का, दूसरा खड़गे का। और इन दोनों के बीच पार्टी पेंडुलम की तरह लटक रही है। पार्टी कहीं भी ना चुस्ती दिखा पा रही है, ना सूझबूझ।
राहुल गांधी का अस्थिर चित्त इसकी बड़ी वजह है। वो कई बार कई मुद्राओं में आ चुके हैं। आप याद कीजिए कि जब 2012 में यूपी में विधानसभा का चुनाव हो रहा था तो वो लोगों से पूछते थे कि मुझको गुस्सा आता है, आपको नहीं आता क्या। तब वो एंग्री यंग मैन थे। उसी एंग्री यंग मैन वाली भूमिका में उन्होंने अपनी ही सरकार का अध्यादेश प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ दिया था।
कुछ दिनों बाद राहुल गांधी एंग्री यंग मैन से तपस्वी वाली भूमिका में आए। कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में उन्होंने कहा कि सत्ता जहर है क्योंकि मां ने उनको यही बताया है। वो जनता की बेहतरी के लिए, जन कल्याण के लिए वो जहर पीना चाहते थे। महात्याग करना चाहते थे। ये घटना 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले की है। ये और बात है कि जनता ने उन्हें और कांग्रेस को फिर से वो जहर नहीं पीने दिया। तभी से कांग्रेस लगातार जहर पीने की कोशिश कर रही है लेकिन पब्लिक है कि मौका ही नहीं दे रही। क्यों नहीं दे रही। इसका जवाब है वही अस्थिर चित्त। लोगों से ये पूछने वाले कि आपको गुस्सा क्यों नहीं आता, वही राहुल कहने लगे कि मुझे गुस्सा नहीं आता। फिर उन्होंने नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोल दी। लेकिन कांग्रेसी ही उस दुकान में ताला लगाने पर आमादा है। कांग्रेस के सारे सेल्समैन दुकान छोड़कर जा रहे हैं जो कांग्रेस, नेहरू-गांधी परिवार और खासकर राहुल गांधी की दुकान सजाने की कसमे खाते थे – बारी-बारी सब जा रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, मिलिंद देवड़ा, अशोक तंवर ये सभी राहुल के यंग ब्रिगेड के होनहार थे जो आजकल बीजेपी और उसके सहयोगियों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
तो फिर कांग्रेस से चूक कहां हो गई। कांग्रेस नेतृत्व की सबसे बड़ी चूक उम्मीदे ना जगा पाना है। वो दिन गए जब राजनीति में लोग मिशन से आते थे। अब सत्ता सुख की उम्मीदे लेकर लोग आते हैं। ये उम्मीदें इस बात से और दरकती हैं कि कांग्रेस का नेतृत्व पार्टी के अंदरूनी संकट पर या तो शुतूरमुर्ग की तरफ आंखें चुरा लेता है या फिर कोई फैसला लेता है तो वो डिजास्टर साबित होता है।
पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले अपने मुख्य मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिद्धू के झगड़े को कांग्रेस ने लंबा खींचा। जब तक चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तब तक कांग्रेस वहां चवन्नी छाप हो गई थी लेकिन पार्टी कई घटकों में बंट गई थी। खास बात ये है कि उस वक्त पंजाब का प्रभारी बनाकर उस हरीश रावत को चंडीगढ़ में फंसाए रखा जिनकी सबसे ज्यादा जरूरत उत्तराखंड में थी। जब तक उनको उत्तराखंड भेजा गया, तब तक काफी देर हो चुकी थी। फिर वहां इस असमंजस को कांग्रेस ने कायम रखा कि पार्टी जीती तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा। नतीजा ये हुआ कि जिस उत्तराखंड में पांच साल में सरकार बदल जाती थी, वहां बीजेपी दोबारा आ गई।
उसी तरह कांग्रेस का नेतृत्व ना राजस्थान में अशोक गहलोत और पायलट का झगड़ा सुलटा पाई, ना मध्य प्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया का, ना छत्तीसगढ़ में बघेल और सिंहदेव का। आज हिंदी पट्टी के इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की सत्ता निल बटे सन्नाटा है।
ये संकट पार्टी के बाहर गठबंधन के स्तर पर भी दिखा। विपक्ष का गठबंधन इंडिया बना नहीं कि बिखरने लगा। कांग्रेस नेतृत्व ने उसको जोड़ने की कोशिश ही नहीं की। यहां तक कि अपने रवैये से इंडिया गठबंधन के सबसे मजबूत स्तंभ और सूत्रधार नीतीश कुमार को ही भगा दिया। आज नीतीश कुमार फिर से बीजेपी के साथ हैं और बिहार में इंडिया गठबंधन को हराने के लिए जी-जान झोंक रहे हैं।
आप याद कीजिए कि बीस साल पहले वाजपेयी सरकार के खिलाफ सोनिया गांधी ने कैसे विपक्षी दलों को जोड़ा था। लेकिन राहुल गांधी किसी भी विपक्षी नेता को अपने साथ साधने का कौशल नहीं जानते। उस पर से उलटबांसी ये देखिए कि केरल में जिस लेफ्ट से लड़ेंगे, बंगाल में उसी लेफ्ट के साथ मिलकर लड़ेंगे। है ना कांग्रेस की ये कमाल की राजनीति। इससे ममता भी नाराज हुईं। दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में गठबंधन है। लेकिन पंजाब में आप अकेले ही लड़ रही है।
उत्तर प्रदेश और बिहार में जिन दलों के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी है, वहां कांग्रेस उनसे ही लड़ने लगती है। कुछ दिन पहले तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बड़ी सहयोगी समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव को कमजोर करने में जुटी थी। बिहार में लालू यादव की इच्छा के विपरीत पप्पू यादव को अपने साथ ले आई। अब वही पप्पू यादव पार्टी और गठबंधन के खिलाफ काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर को साथ लाने के लिए सहयोगियों को मनाना था। कांग्रेस उद्धव ठाकरे को मना नहीं सकी। दलितों में अच्छी पैठ रखने वाले प्रकाश आंबेडकर के साथ गठबंधन नहीं हो पाया जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रकाश आंबेडकर की वजह से कांग्रेस को घाटा उठाना पड़ा था।
कांग्रेस का संकट उसका नेतृत्व संभालने वाले पांचवी पीढ़ी के राहुल गांधी की वजह से ज्यादा बढा है। जिस समय उन्हें दिल्ली में बैठकर सहयोगियों के साथ सीटों पर बात करनी चाहिए थी, उस वक्त वो न्याय यात्रा पर निकल गए। फिर वो अबतक ये तय नहीं कर पाए हैं कि अमेठी से चुनाव लड़ेंगे कि नहीं। अमेठी और रायबरेली सिर्फ दो अदद सीटें ही नहीं हैं बल्कि उत्तर भारत में कांग्रेस की संभावनाओं का आईना भी हैं। कांग्रेस जिस तरह आईने से मुंह छुपा रही है, उससे सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस अपने अंदर की कमजोरियों का सामना क्यों नहीं करना चाहती। और जिस तरह इस चुनाव में उसका ढुलमुल रवैया चल रहा है, ऐसा लगता नहीं कि 2014 और 2019 के नतीजों से अलग कोई फैसला आने जा रहा है। पूरी संभावना यही है कि बीजेपी की जीत होगी। बात बस इतनी है कि ये जीत कितनी बड़ी होगी।