लोकसभा चुनाव में खालिस्तानी अमृतपाल सिंह की जीत से उपजे तीन सवाल

अमृतपाल सिंह ने 5 जुलाई को संसद सदस्य के रूप में शपथ ली। अलगाववादी अमृतपाल सिंह ने पंजाब के खडूर साहब संसदीय सीट से लोक सभा चुनाव बतौर निर्दलीय जीता है।

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Three questions arising from the victory of Khalistani Amritpal Singh in the Lok Sabha elections

Three questions arising from the victory of Khalistani Amritpal Singh in the Lok Sabha elections

खालिस्तानी नेता अमृतपाल सिंह ने 05 जुलाई को लोक सभा सांसद सदस्य के रूप में शपथ ली। अमृतपाल ने पंजाब के छोटे से इलाके से बाहर के लोगों का ध्यान तब खींचा था जब उसने अपने समर्थकों के साथ मिलकर एक पुलिस थाने का घेराव कर लिया और वहाँ बन्द अपने एक समर्थक को छुड़ा ले गया था। अमृतपाल के समर्थक अपने साथ सिखों के धार्मिक ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहब का ले गये थे और पंजाब पुलिस इस कारण बलप्रयोग नहीं कर पायी ताकि ग्रन्थ साहब का अपमान न हो जाए।

अमृतपाल की गिरफ्तारी के प्रयास का वीडियो सोशलमीडिया पर वायरल हो गया था। पुलिस ने काफी जद्दोजहद के बाद अमृतपाल के कुछ साथियों की गिरफ्तारी की थी। पुलिस के छापे के बाद अमृतपाल फरार हो गया था और काफी समय तक भूमिगत रहने के बाद पुलिस के सामने समर्पण किया। अमृतपाल को सुरक्षा कारणों से पंजाब से दूर असम की एक जेल में रखा गया। अमृतपाल की कहानी में नया मोड़ तब आया जब अमृतपाल ने लोक सभा चुनाव में उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरा। अमृतपाल जेल से ही अपने वकील के माध्यम से नामांकन किया था। बिना किसी प्रचार के अमृतपाल चुनाव जीत गया।

अमृतपाल ही नहीं एक अन्य अलगाववादी भी इस बार संसद पहुंचने में कामयाब रहे। कश्मीरी अलगाववादी इंजीनियर रशीद तिहाड़ जेल में बन्द है। उसपर कश्मीर में सक्रिय इस्लामी आतंकवादियों को आर्थिक मदद देने का आरोप है। रशीद ने भी 05 जुलाई को संसद सदस्य के रूप में शपथ ली। एक खालिस्तान अलगाववादी और कश्मीरी अलगावादी के सांसद बनने के बाद भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक, कानूनी और नैतिक सीमाओं पर सवाल उठने लगे। इन तीनों पहलुओं पर अलग-अलग विचार करने से ही सही राय बनायी जा सकेगी।

इस बहस का सबसे चिंताजनक पहलू ये है कि चुनाव को करीब से न देखने वाले यह मानकर चल रहे हैं कि दो अलगाववादियों के चुनाव जीतने से भारत का राजनीतिक मॉडल विफल साबति हुआ है। ये दोनों अलगाववादी जिस राजनीतिक विचारधारा के समर्थक हैं, उनमें ऐसे लोगों को जगह मिलना असम्भव है। यह भारतीय लोकतंत्र की ताकत है कि उसके अन्दर अमृतपाल और रशीद जैसों के लिए भी तब तक जगह है, जब तक वे न्यायालय द्वारा दोषी नहीं घोषित किये जाते।

अमृतपाल सिंह खालिस्तानी नेता अमृतपाल सिंह

अमृतपाल की जीत से नाराज कुछ लोगों की प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि उन संसदीय इलाकों में रहने वाले सभी लोग अलगाव-वादी हो चुके हैं। अमृतपाल या रशीद की सीटों के चुनाव के नतीजे करीब से देखें तो दोनों भारत के बहुदलीय व्यवस्था के लाभार्थी रहे हैं। इनको मिले वोट की तुलना इनके खिलाफ पड़े वोट से करने पर दिखता है कि उन सीटों पर भी इनसे ज्यादा वोट इनके खिलाफ दिये गये हैं। अमृतपाल जिस सीटे से जीता है, उसपर करीब 38 प्रतिशत वोट उसे मिले हैं लेकिन शेष 62 प्रतिशत वोट अन्य उम्मीदवारों को मिले हैं। अगर यह माना जा रहा है कि जिन लोगों ने अमृतपाल को वोट दिया है वह उसके अलगाववादी मानसिकता का समर्थन करते हैं तो यह भी मानना चाहिए कि जिन लोगों ने उसे वोट नहीं दिया है वह उसकी विचारधारा का समर्थन नहीं करते हैं। अमृतपाल को वोट देने वाले बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जो उसकी विभाजनकारी मानसिकता से सहमति न रखते हुए भी उसे पीड़ित मानकर या कट्टर सिख मानकर उससे सहानुभूति रखते होंगे। यानी यह मान लेना कि खडूर साहब संसदीय सीट के बहुसंख्यक नागरिक अलगाववादी हो चुके हैं, तथ्य और तर्क विरोधी है।

पंजाब की खडूर साहब संसदीय सीट पर शीर्ष उम्मीदवारों को मिला वोट पंजाब की खडूर साहब संसदीय सीट पर शीर्ष उम्मीदवारों को मिला वोट

कुछ लोगों ने अमृतपाल के चुनाव जीतने और संसद सदस्य बनने को भारतीय संविधान की कानूनी सीमा के रूप में देखा है। सीधे कहें तो यह आरोप आधा सही है। भारत के जन प्रतिनिधि कानून के अनुसार जिस व्यक्ति को दो साल या उससे ज्यादा समय के लिए कारावास की सजा हो चुकी है उसकी संसद सदस्यता सजा सुनाए जाने के समय से ही समाप्त हो जाती है। ऐसे सजायाफ्ता नागरिकों के सजा पूरा करने के छह साल बाद तक चुनाव लड़ने पर भी रोक होती है। अमृतपाल अभी विचाराधीन आरोपी है। उसे अभी तक किसी अदालत ने सजा नहीं सुनायी है। अमृतपाल ने बहुत से भड़काऊ बयान दिये हैं लेकिन भारतीय अदालतें विभिन्न मुकदमों में यह निर्णय दे चुकी हैं कि जब तक कोई अलगाववादी नेता कोई ऐसा भौतिक कृत्य नहीं करता जिसे भारत की एकता और अखण्डता के खिलाफ माना जाये तब तक उसे केवल बयान के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अमृतपाल अगर खालिस्तानी राज में होता तो उसे ऐसे बयान के लिए सजा मिल जाती लेकिन वह भारतीय लोकतंत्र में रहता है इसलिए उसपर खालिस्तान का नहीं बल्कि भारत का संविधान लागू होता है जिसका वह लाभ ले रहा है।

भारत राष्ट्र पर दिये बयानों के उलट  भारतीय अदालत धार्मिक विषयों और प्रतीकों के खिलाफ नफरती बयान देने को अपराध मानती हैं। इस दोहरे प्रतीत वाले दृष्टिकोण के लिए न्यायालय जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसके लिए हमारा संविधान जिम्मेदार हैं। पुरानी भारतीय दण्ड संहिता में धार्मिक विषयों पर नफरती बयान को लेकर स्पष्टता है लेकिन राष्ट्र-द्रोह को सही से परिभाषित नहीं किया गया था। पुराने कानून की जगह लागू होने वाले भारतीय न्याय संहिता (BNS) में देश के खिलाफ नफरती बयान को भी परिभाषित किया गया है और अब यह अपराध होगा।  लेकिन ऐसा होने पर भी जब तक सजा नहीं हो जाएगी तब तक आरोपी चुनाव लड़ और जीत सकेंगे। इस मुश्किल का एक ही हल है कि भारत की एकता और अखण्डता के खिलाफ बयानबाजी करने वालों के चुनाव लड़ने पर तब तक के लिए कानूनी रोक लगा दी जाए जब तक वे बेगुनाह न साबित हो जाएँ। ऐसे कानून का दुरुपयोग नहीं हो इसलिए अदालत द्वारा प्रथम दृष्यटा आरोपी पाए जाने पर ही इसका प्रयोग हो।

अमृतपाल की जीत पर तीसरा सवाल नैतिकता के आधार पर उठाया जा रहा है कि उसका जितना नैतिक रूप से गलत है। मेरे ख्याल से यह सवाल भारतीय लोकतंत्र की नहीं बल्कि अमृतपाल की नैतिक दोहरेपन का सवाल है। अमृतपाल जिस भारतीय संविधान और लोकतंत्र में यकीन नहीं करता है उसी का लाभ ले रहा है। उसने न केवल लोकतंत्र का लाभ लेकर चुनाव लड़ा और जीता बल्कि सांसद बनने के लिए संविधान का पालन करने और भारत की एकता-अखण्डता में आस्था और निष्ठा रखने की शपथ भी ले ली!

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अंत में यह कहना जरूरी है कि अमृतपाल और रशीद की चुनावी जीत से मैं भी विचलित हुआ। इनकी जीत से भारतीय लोकतंत्र की कुछ कमजोरियाँ उजागर हुई हैं लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि लोकतंत्र की व्यवस्था फीडबैक की व्यवस्था है। लोकतंत्र प्रयोग और उससे प्राप्त परिणाम के अनुसार जरूरी सुधार करके बेहतरी की तरफ बढ़ता है। किसी एक व्यक्ति या एक पार्टी या एक संगठन की तानाशाही के उलट लोकतंत्र अपनी कमियों को दूर करता चलता है। उसके नीति-नियम ऐसी कमियों के सामने आने के बाद खुद को सुधारकर अपना औचित्य सिद्ध करते हैं।

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