कभी-कभार कुछ ऐसी कार्रवाइयां होती हैं जिनका व्यवहार में कोई खास अर्थ नहीं होता। न ही उनसे कोई परिणाम निकलने की उम्मीद होती है। कार्रवाई करने वाला भी यह जानता है। उसे देखने वाले भी। बावजूद इसके, उस काम की अहमियत बड़ी होती है क्योंकि उसके बहाने कुछ जरूरी बातें की जा सकती हैं।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने इलाहाबाद हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। याचिका में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को निलंबित करने की मांग की गई है। इस मांग का आधार यह है कि मुख्यमंत्री ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के ही न्यायाधीश शेखर यादव के एक बयान का सार्वजनिक समर्थन किया था, जो याचिकाकर्ता के मुताबिक संविधान-विरोधी कृत्य है तथा पद और गोपनीयता की शपथ का उल्लंघन है।
जज शेखर यादव का 8 दिसंबर को दिया बयान लगातार चर्चा में हैं। वह उन्होंने विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के विधिक प्रकोष्ठ के एक आयोजन में दिया था। यह आयोजन इलाहाबाद हाइकोर्ट के परिसर के भीतर हुआ था। समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए यादव ने कहा था कि देश बहुसंख्यकों की मर्जी से चलेगा। इसके अलावा उन्होंने मुसलमानों को लेकर कुछ आपत्तिजनक बातें कही थीं।
इन बयानों की सुप्रीम कोर्ट की एक आंतरिक कमेटी से जांच करवाने की प्रार्थना वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण की संस्था ने की, जिसके बाद पांच जजों की कॉलेजियम बैठी और बीते मंगलवार को उसने यादव को समन भेजा। कॉलेजियम की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के मुख्य नयायाधीश संजीव खन्ना ने की। बताया गया है कि कॉलेजियम ने जज यादव को हिदायत दी है और कहा है कि ऐसे बयानों से बचा जाना चाहिए।
विपक्षी दलों का मन इससे नहीं भरा, तो उसके 55 सांसदों ने राज्यसभा के सभापति को नोटिस थमाकर जज यादव को हटाने के लिए अभियोग चलाने की मांग कर दी। अभियोग का नोटिस सभापति स्वीकार भी कर सकते हैं और खारिज भी, लेकिन इस प्रकरण की आंच का प्रदेश के मुख्यमंत्री तक पहुंचना और उन्हें निलंबित किए जाने की याचिका का दायर होना कहीं ज्यादा गंभीर प्रसंग है।
न्यायपालिका और विधायिका के अधिकारों का अलगाव संविधान में बहुत स्पष्ट है। जब एक जज अपनी सीमा को तोड़ कर कुछ संविधान-विरोधी बयान दे डाले; फिर एक निर्वाचित प्रतिनिधि जो संयोग से मुख्यमंत्री भी है (यानी मंत्रिपरिषद के प्रति जवाबदेह है) वह अपनी सीमा को तोड़ कर जज के कहे का समर्थन कर डाले, तो सारी संवैधानिक सीमाएं टूट जाती हैं। न्यायपालिका और विधायिका की यह ‘’आउट ऑफ कोर्ट’’ जुगलबंदी किसी संविधानेतर तंत्र की आहट देती है, जो भारतीय राष्ट्र-राज्य से अलग ऑपरेट कर रहा है। यानी, एक मुख्यमंत्री और एक जज इस संवैधानिक राज्य (स्टेट) का औपचारिक हिस्सा होते हुए भी संविधानेतर कारणों से एकमत हैं, लिहाजा वे आपस में मिलकर एक राज्येतर (नॉन-स्टेट) जोड़ी बनाते हैं।
पूछिए, कि इस राज्येतर एकता की जड़ कहां है? विचारधारा में? राजनीति में? नहीं। विश्व हिंदू परिषद जैसे राज्येतर संगठनों में, जो आज की तारीख में राजकीय संस्थाओं के परिसरों के भीतर से राष्ट्र-राज्य के समानांतर ऑपरेट कर रहे हैं। अफसोस, कि सुप्रीम कोर्ट को एक जज तो दिखाई दे रहा है और उसके विवादास्पद बोल भी सुनाई दे रहे हैं, लेकिन यह नहीं दिख पा रहा कि इस देश की सबसे प्रतिष्ठित हाइकोर्ट के भीतर विहिप अपना कार्यक्रम कैसे और क्यों करवा पा रही है। यानी, एक मुख्यमंत्री और एक जज इस संवैधानिक राज्य का औपचारिक हिस्सा होते हुए भी संविधानेतर कारणों से जिस तरह एक निकले, ठीक वैसे ही राज्येतर ताकत होते हुए भी विहिप राज्य का अंग बन गया। इस तरह एक चुने हुए मुख्यमंत्री, एक निजी संगठन और एक संवैधानिक न्यायाधीश- इन तीनों की जुगलबंदी ने ‘स्टेट’ और ‘नॉन-स्टेट’ के फर्क को एक झटके में मिटा डाला।
अब आप यह मानें कि स्टेट कमजोर हुआ है या यह कि नॉन-स्टेट ताकतें मजबूत, आपकी श्रद्धा पर है, लेकिन यह एकतरफा नहीं दुतरफा उपलब्धि है। विहिप, आरएसएस, जैसे नॉन-स्टेट निजी संगठनों के राजकीय संस्थाओं के भीतर से काम करने पर तो अब तक सवाल नहीं उठा है लेकिन जज के बयान को मुख्यमंत्री के समर्थन पर जरूर सवाल उठ गया है।
विडम्बना देखिए कि पीयूसीएल की याचिका उसी अदालत से मुख्यमंत्री को हटाने की मांग कर रही है जिसके परिसर में विहिप का आयोजन हुआ और जिसके जज के बयान का समर्थन मुख्यमंत्री ने किया। इस देश में न्याय मांगने की सीमा इससे बेहतर उजागर नहीं हो सकती।
हाइकोर्ट के पास किसी मुख्यमंत्री को निलंबित करने की ताकत है या नहीं, इसके लिए बहुत सी न्यायिक नजीरें मौजूद हैं। दिल्ली में शराब घोटाले के कथित रूप से आरोपी अरविंद केजरीवाल जब जेल में थे तो उन्हें पद से हटाने के लिए हाइकोर्ट में तीन बार पीआइएल लगाई गई थी और हर बार मामले में न्यायिक हस्तक्षेप के आधार के अभाव में खारिज हो गई। याचिका पर रविकिरन जैन जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता बहस करेंगे, तो हो सकता है एकाध तारीख तक वह टिकी रहे वरना तकनीकी रूप से इसमें दम नहीं दिखता।
मैं नहीं जानता कि पीयूसीएल की याचिका में स्टेट और नॉन-स्टेट की धुंधलाती सीमाओं और परस्पर अतिक्रमण पर कुछ लिखा है या नहीं, लेकिन यह सवाल व्यापक और भयावह है। इसे तात्कालिक रूप से अमुक के बयान या तमुक के समर्थन पर पटक कर संबोधित नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद, मुख्यमंत्री को निलंबित करने की मांग, चाहे कितनी ही निरर्थक जान पड़े और खारिज भी हो जाए तो क्या, एक बहाना बेशक है जिसके सहारे राज्य और राज्येतर ताकतों के सुविधाजनक संगम की गहराती हुई समस्या को शायद एक सिरे से पकड़ा जा सके।
पीयूसीएल की याचिका का परिणाम जो भी आए, लेकिन वह इस मायने में अहम है कि उसके बहाने हम संवैधानिक राष्ट्र-राज्य के विस्थापित होते ढांचे और असंवैधानिक ताकतों के स्थापित होते रसूख पर कुछ बातें कर सकते हैं। पीयूसीएल की याचिका ‘सेकुलरिज्म’ को लेकर चिंतित है, लेकिन वास्तव में मामला उससे बहुत आगे बढ़ चुका है। जब एक इकाई के रूप में आधुनिक राज्य की शुचिता और अखंडता ही नहीं बचेगी, तो रेनेसां से निकले किसी भी आधुनिक मूल्य या ढांचे का क्या मतलब रह जाएगा?
हो सकता है कि यह अंडे और मुर्गी वाली पहेली जैसा लगे, कि पहले मूल्य बचाएं या संस्थाएं। दरअसल, मूल्य तो पांच हजार साल से हैं, लेकिन इन्हें संरक्षित करने वाला संवैधानिक राष्ट्र-राज्य और उसकी संस्थाओं की उम्र दो सौ साल ही हुई है। संवैधानिक लोकतंत्र केवल मूल्यों के सहारे हवा में नहीं बनता। वह संवैधानिक राष्ट्र-राज्य का मोहताज है, जब तक कि कोई दूसरी व्यवस्था नहीं खोज ली जाती। राजकीय संस्थाएं मूल्यों के प्रसार का काम करती हैं, बशर्ते वे अखंड रहें। संस्थाओं में असंवैधानिकता का अतिक्रमण उन्हें मूल्यों को पोसने के लायक नहीं छोड़ता। जब संस्थाएं निष्क्रिय हो जाती हैं, तभी कोई भी कुछ भी अंट-शंट बोलने और करने को स्वच्छंद हो जाता है।
शेखर यादव का कहा या मुख्यमंत्री का उसे समर्थन, संस्थाओं की दीवारों में सेंध लगने के बाद हुई परिघटनाएं है। अब यह रोज होगा। रोज हो ही रहा है। संसद में जो आंबेडकर के नाम पर हो रहा है, इसी का दुहराव है। निष्क्रिय और अपवित्र हो चुकी संस्थाओं से उम्मीद करना कि वे मूल्यों को बचाएंगी, सदिच्छा है। बावजूद इसके, हस्तक्षेप के रूप में यह बेशक स्वस्थ और जरूरी है। बस, परिप्रेक्ष्य ठीक करने की दरकार है।
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