शिबू सोरेन का निधन Photograph: (आईएएनएस)
रांचीः झारखंड के आदिवासी समुदाय के लिए 'देवता' और हेमंत सोरेन के अनुसार राज्य के नेल्सन मंडेला - 82 वर्षीय शिबू सोरेन का सोमवार की सुबह दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे। साथ ही लोकसभा, राज्य सभा, बिहार और झारखंड में विधान सभा के सदस्य भी रहे।
शिबू सोरेन जो कुशल राजनीतिक खिलाड़ी रहे। कई वर्षों तक जेल में रहे। यही नहीं, मुख्यमंत्री रहते एक बार तमाड़ से उप चुनाव भी हार गए थे। उन्होंने कभी बीजेपी और कभी राजद से मिल कर सरकार भी बनाई। सांसद रहते जेल भी गए। शिबू सोरेन के निधन पर उनकी पहली राजनीतिक पाठशाला - धनबाद-गिरिडीह रोड पर जंगलों के बीच स्थित टुंडी ब्लॉक का एक दूरदराज गांव, पोखरिया- आज फिर चर्चा में है।
करीब चार दशक पहले, इसी पोखरिया आश्रम से सोरेन जमींदारों, सूदखोरों और अवैध शराब कारोबारियों के खिलाफ अपने फरमान जारी करते थे।
एक सरकारी अफसर ने दी थी राजनीति में उतरने की सलाह
कभी जिनका नाम जमींदारों, सूदखोरों और आदिवासी जमीनों पर कब्जा करने वालों के लिए खौफ का पर्याय था, उस शिबू सोरेन ने राजनीति की प्रारंभिक शिक्षा धनबाद के तत्कालीन उपायुक्त के. बी. सक्सेना से ली, जिन्हें आज भी एक ईमानदार अफसर के रूप में याद किया जाता है।
सक्सेना ने उस युवा आदिवासी पर विश्वास जताया जो हजारीबाग जिले के नेमरा (गोला) से था और आदिवासियों के अधिकारों के लिए सामाजिक सुधार की लड़ाई लड़ रहा था। सक्सेना ने उन्हें पालमा गांव (पोखरिया से कुछ किलोमीटर दूर) में अपने भूमिगत अभियान को छोड़ने और मुख्यधारा में आने की सलाह दी थी। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा भी सोरेन के कार्यों से प्रभावित थे।
उसी दौरान, उपायुक्त ने टुंडी के आदिवासी इलाके में एक जनसभा कराई, जहां मुख्यमंत्री और सोरेन की मुलाकात हुई। कृषि सुधारों में सामुदायिक खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सोरेन को एक ट्रैक्टर पुरस्कार स्वरूप दिया था।
शराब पीने वाले आदिवासी को देते थे बेंत मारने की सजा
पोखरिया में अपने "भूमिगत" दौर के सात वर्षों के दौरान, सोरेन ने प्रशासन से कई बार टकराव मोल लिया। जमींदारों, व्यापारियों और जमीन हड़पने वालों के खिलाफ उन्होंने जोरदार अभियान चलाया। वे पोखरिया आश्रम में अपनी “जन अदालत” लगाते थे, जहां आदिवासियों पर भी सख्त सजा दी जाती थी। अगर कोई आदिवासी शराब पीकर पकड़ा जाता, तो उसे सबके सामने 20 बेंत मारने की सजा मिलती।
आदिवासी अधिकारों की इस लड़ाई ने उन्हें “दिशोम गुरु”- यानी आदिवासी देश का नेता का नाम दिलाया। हालांकि, जैसे-जैसे उनका आंदोलन बढ़ा, गैर-आदिवासी वर्ग भी उनके खिलाफ गोलबंद होने लगा। इसके चलते कई बार तीर और गोलियों की लड़ाई तक हुई।
सोरेन के समर्थकों ने दुर्गाडीह आश्रम के पास लालू चौधरी की जमीन पर कब्जा कर लिया था, जिसके बाद हिंसक प्रतिशोध हुआ। टोपचांची में जब "दिशोम गुरु" की रैली निकली, तो एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर की मौत हो गई।
अपने भूमिगत काल में भी, सोरेन केवल टुंडी थाने के सब-इंस्पेक्टर से संवाद करते थे, जो उपायुक्त से उनकी बातचीत का जरिया था। उस समय वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के बजाय ‘झारखंड लिबरेशन फ्रंट’ चला रहे थे।
साक्षरता बढ़ाने के लिए सोरेन ने आदिवासी इलाकों में रात के स्कूल खुलवाए, जहां पढ़े-लिखे आदिवासी खुद पढ़ाते थे।भूमि विवादों के निपटारे के लिए उन्होंने समानांतर अदालतें चलाईं और शराब के खिलाफ एक मजबूत आंदोलन चलाया। उनके "राज" में टुंडी में पूर्ण शराबबंदी थी।
अपना पहला लोकसभा चुनाव हार गए थे शिबू सोरेन
सोरेन के राजनीतिक गुरु विनोद बिहारी महतो, जेएमएम के सह-संस्थापक और मार्क्सवादी नेता ए. के. रॉय ने उन्हें 1977 के विधानसभा चुनाव में खड़े होने के लिए कहा क्योंकि वे लोकप्रिय हो चुके थे। हालांकि, सोरेन उस चुनाव में सत्यानारायण दुधानी (तत्कालीन जनसंघ) से हार गए। इसके बाद उन्होंने अपनी गतिविधियों का केंद्र संथाल परगना के मुख्यालय दुमका को बना लिया।
पोखरिया आश्रम अब उनके भूमिगत काल के साथी श्यामलाल मुर्मू के परिवार द्वारा संभाला जा रहा है। अब आश्रम की सुरक्षा के लिए दो पुलिस पिकेट हैं- एक सड़क किनारे और दूसरा मणियाडीह स्कूल के पास। मुर्मू की हत्या नक्सलियों ने कर दी थी।
फूलचंद कहते हैं, “गुरूजी आदिवासियों के लिए भगवान जैसे थे। लोग ज़मींदारों और सूदखोरों के अत्याचार से राहत मांगने उनके पास आते थे।”
उनके आने से पहले, जमींदार सीधे खेतों से आदिवासियों की फसल उठाकर अपने महलों में ले जाते थे। यह कर्ज के बदले जबरन वसूली थी। 1972 में जब उन्होंने पोखरिया में “जन अदालत” लगाई और स्थानीय आदिवासी नेताओं को “जज” बनाया, तो हालात सुधरने लगे।
जब दो आदिवासी बहनों की जमीन से अवैध कब्जा हटवाया
यहां एक बड़ा मैदान है जुड़ीकिनाहर। यह कभी दो आदिवासी बहनों की जमीन थी, जिसे स्थानीय जमींदार ने कब्जा कर लिया था। सोरेन ने जब जमीन से जुड़े दस्तावेज देखे, तो तुरंत जमींदारों को हटाने का आदेश दिया। इनमें एक वरिष्ठ सिविल अफसर भी शामिल थे। जमीन को आदिवासियों में बांट दिया गया।
पूर्व जेएमएम विधायक और सोरेन के पुराने मित्र सरदार मुर्मू बताते हैं कि इसी घटना के बाद से सोरेन की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। कई बार तो आश्रम में एक लाख तक की भीड़ जुट जाती थी।
अगर ज़मींदारों ने जंगल की जमीन पर कब्जा कर रखा होता था, तो सोरेन उसे भी छुड़वा लेते थे। वन विभाग के कर्मचारियों का आदिवासियों पर आतंक खत्म हो गया और यह साफ निर्देश था कि आदिवासियों की फसल उनके खेत से उठाकर किसी जमींदार के महल में नहीं जाएगी।
इनके बेटे हेमंत सोरेन ने एक सरकारी स्कूल- पटना हाई स्कूल में पढ़ाई की, शिबू सोरेन उस समय बिहार विधान सभा सदस्य थे। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। जेएमएम के धनुष-बाण वाले झंडे टुंडी में कम दिखते हैं, उनकी जगह माओवादी नारे और मार्क्सवादी झंडों ने ले ली है।