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ऑक्सफर्ड का शब्दकोश हर साल के अंत में उस साल सर्वाधिक प्रचलित एक शब्द की घोषणा करता है। उसने 2020 में ऐसा नहीं किया था क्योंकि उस वर्ष को ही ऑक्सफर्ड ने ‘अभूतपूर्व’ मान लिया था। वैसे तो हर नया पल अभूतपूर्व होता है, लेकिन भाषा के मामले में 2020 पर ऑक्सफर्ड की टिप्पणी शब्दकोशों के अप्रासंगिक कर दिए जाने का भी एक संकेत थी। आज 22 मार्च को- जब हम में से बहुत से लोग पांच साल पहले अपने किये या अनकिये को सुविधाजनक ढंग से भुला चुके हैं- पीछे मुड़कर देखना एक अनिवार्य धर्म जैसा लगता है।
यही वह सुबह थी जब हमने लोकतांत्रिक ढंग से चुने अपने शासक द्वारा समर्थन की एक अदद अपील को चुपचाप अपनी सामूहिक सहमति दे दी थी। वह अपील 19 मार्च 2020 को जारी हुई थी, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री ने कहा था: ‘’आज प्रत्येक देशवासी से एक और समर्थन मांग रहा हूं। ये है जनता कर्फ्यू। जनता कर्फ्यू यानी जनता के लिए, जनता द्वारा खुद पर लगाया गया कर्फ्यू। इस रविवार यानी दो दिन के बाद 22 मार्च को सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक सभी देशवासियों को जनता कर्फ्यू का पालन करना है।‘’ इसके बाद जो कुछ भी हुआ, वह अभूतपूर्व ही नहीं अप्रत्याशित भी था।
इतिहास में इंग्लैंड का पहला नॉर्मन (नॉर्मैन्डी की राजशाही) शासक हुआ था विलियम ‘द बास्टर्ड’। वह 1066 सामान्य संवत से अपनी मौत तक इंग्लैंड पर राज करता रहा। ज्ञात जानकारी के अनुसार एंग्लो-सैक्सन सहित सभी विजित समूहों की बगावत को रोकने के लिए कर्फ्यू लगाने की शुरुआत उसने ही की थी। तब से लेकर आज तक दुनिया में जितने भी शब्दकोश बने, सभी ने कर्फ्यू को राजा द्वारा प्रजा पर थोपे गए एक शासनादेश की तरह ही परिभाषित किया है। विलियम के हजार साल बाद राजा गए, प्रजा गई, लोकतंत्र आया, राष्ट्र-राज्य बने, तब भी कर्फ्यू का पर्याय ‘शासनादेश’ ही रहा। 2020 में पहली बार नरेंद्र मोदी ने कर्फ्यू को ‘जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता पर’ (लोकतंत्र की सर्वाधिक प्रचलित परिभाषा) के मुहावरे में प्रस्तुत कर के विलियम ‘द बास्टर्ड’ से लेकर तमाम शब्दकोशों को धता बता दिया। यानी, ऑक्सफर्ड का द्वंद्व अनायास नहीं था। वास्तव में कुछ नया घट रहा था।
हमारे संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत नाम का एक खंड है। उसमें एक अनुच्छेद संख्या 47 है। वह राज्य के लिए अपने नागरिकों का कल्याण सुनश्चित करना बाध्यकारी बनाता है ताकि वे स्वस्थ, सुरक्षित और प्रतिष्ठापूर्ण जीवन बिता सकें। यानी, राज्य का काम लोगों को चैन से जीने देना है। राज्य जब नागरिकों से कहता है कि तुम अब कैद में रहो और इसे अपनी स्वेच्छा भी मानो, तो लोकतांत्रिक राज्य की परिपाटी के हिसाब से यह एक अपवाद जैसी स्थिति बन जाती है। यहां ‘जीने देने’ और ‘जीवन लेने’ के बीच का फर्क धुंधला पड़ जाता है। इसे ऐसे समझें, कि लोगों को जीने देने की सकारात्मक शर्त को संरक्षित रखने के लिए राज्य लोगों का जीवन लेने का नकारात्मक अधिकार अपने हाथ में ले रहा होता है। हमारे प्रधानमंत्री की 19 मार्च 2020 वाली अपील दरअसल राज्य के इसी अधिकार पर हमारी सहमति मांग रही थी।
याद रखें, 1975 में लगाई गई इमरजेंसी के लिए हमसे सहमति की अपील नहीं की गई थी। उसे ‘जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता पर’ के मुहावरे में लपेट कर घोषित नहीं किया गया था। वहां राज्य और नागरिक का फर्क हमेशा की तरह स्पष्ट था। उसके उलट, 2020 के 22 मार्च की सुबह सात बजे इस देश में जो कुछ भी हुआ, वह भारतीय राष्ट्र-राज्य के इतिहास में अपवाद था। इस अपवाद को हमने थाली, घंटी, बरतन बजाकर जब अपनी उत्साहजनक सहमति दी, तो तीन दिन बाद उसे ‘लॉकडाउन’ की नई शब्दावली में पेश कर के सामान्य बना दिया गया। यानी, अपवाद ही नियम हो गया। राज्य का चरित्र 18 घंटे के प्रयोग और तीन दिन के अंतराल में निर्णायक रूप से बदल गया। जॉर्जियो अगम्बेन ने ऐसे राज्य को ‘स्टेट ऑफ एक्सेप्शन’ की संज्ञा दी और लिखा, ‘’अपवादी राज्य की एक विडम्बना यह है कि यहां कानून के उल्लंघन को कानून के अनुपालन से अलगा पाना मुश्किल होता है। मने, किसी नियम का पालन और उसका उल्लंघन इस तरह से एकमेक हो जाते हैं कि कुछ शेष नहीं बचता।‘’
इतना समझ लेने के बाद, 22 मार्च 2020 को बने इस नए राज्य के नागरिकों का जीवन कालान्तर में कैसा कटा, मेरी दिलचस्पी इसमें ज्यादा है। मुझे इस बात का अफसोस है कि बीते पांच साल में इस देश के लोगों की जिंदगी को बहुत व्यवस्थित ढंग से कहीं दर्ज नहीं किया गया। यह हमारे लेखकों, पत्रकारों और बौद्धिक तबके की सामूहिक नाकामी का भी साक्ष्य है। लॉकडाउन के दौरान बहुत से लोगों ने अपने-अपने स्तर पर पोस्ट लिखे, अनुभव लिखे, निजी डायरियां लिखी थीं, लेकिन नए अपवादी राज्य की कार्यप्रणाली और चरित्र को समझने तथा उसकी कारगुजारियों का प्रतिरोध करने के संदर्भ में उनका कोई गंभीर विश्लेषण नहीं दिखाई देता है। ऐसा कोई अकादमिक उपक्रम भी बमुश्किल ही दिखता है कि लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद आम लोगों के लिखे, रचे या किए को किसी ने संग्रहित करने की कोशिश की हो। यह अपवाद के नियम बनने और उसे सामान्य के रूप में मनोवैज्ञानिक स्तर पर स्वीकारे जाने का भी संकेत है।
इस संदर्भ में दो किताबों का जिक्र करना आज जरूरी लगता है। एक किताब 2023 में चीन पर केंद्रित आई थी। उसे पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त पत्रकार इयान जॉनसन ने लिखा था। पेंग्विन से प्रकाशित इस किताब का नाम है ‘’स्पार्क्स: चाइनाज़ अंडरग्राउंड हिस्टॉरियन्स ऐंड देयर बैटल फॉर द फ्यूचर’’। दूसरी किताब ओरिएंट ब्लैकस्वान से 2025 में छपी दिलीप के. दास की है, ‘’एपिडेमिक नैरेटिव्स: द कल्चरल कंस्ट्रक्शन ऑफ इनफेक्शियस डिज़ीज़ आउटब्रेक्स इन इंडिया’’। दोनों ही किताबें बदले हुए राज्य में बदलती हुई प्रजा के मानवीय, प्रतिरोधी और त्रासद अफ़सानों का निचोड़ है।
अफ़साने इतिहास को गढ़ते रचते हैं, इतिहासकार नहीं। दिलीप के. दास की पुस्तक का आखिरी अध्याय ‘वाइ नैरेटिव्स’ दो अहम सवाल उठाता है: पहला, किसी आपदा की नुमाइंदगी के लिए सबसे सरल माध्यम उसके अफसाने क्यों होते हैं? दूसरा, कोई आपदा अफ़साने सुनाने की मांग क्यों करती है? इन सवालों का जवाब खोजते हुए लेखक इतिहास को गढ़ने में सामूहिक स्मृतियों की केंद्रीयता पर बात करता है। स्मृतियां इस देश में ऐतिहासिक रूप से ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रसारित करने का माध्यम रही हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि 22 मार्च 2020 को कायम नए राज ने मानवीय स्मृति के दो अहम तत्वों- देश और काल- को बुरी तरह विकृत कर डाला है। शायद इसीलिए आज का दिन सवा अरब लोगों के लिए वैसे ही है जैसे कल का दिन था। हम 22 मार्च को भुला चुके हैं।
स्मृतिलोप, आत्मसमर्पण और प्रमाद के इस दौर में फिर भी कुछेक उम्मीदें बाकी हैं। ‘तद्भव’ पत्रिका का पचासवां अंक पढ़ते हुए राजेश जोशी की एक कविता (अब तुम उड़ सकते हो) पर नजर अटकी। उसकी कुछ पंक्तियां आप भी पढ़ें और पांच साल पीछे जाकर धीरे-धीरे अनलॉक की गई हमारी जिंदगियों से बनी इस दुनिया के मौजूदा सूरत-ए-हाल पर एक बार ठहरकर सोचें।
डॉक्टर ने हंसते हुए कहा... अब तुम उड़ सकते हो
पंख खोलो और उड़ जाओ
मैं बाहर जाने की इतनी हड़बड़ी में था
कि मैंने डॉक्टर की हंसी पर ध्यान ही नहीं दिया
उस हंसी के पीछे छिपा था जो नहीं कहा गया
कि अब उड़ो बच्चू... हमारे नियंत्रण में रहेगी अब
तुम्हारी हर एक उड़ान...!