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नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर के सत्तारूढ़ गठबंधन के सभी विधायकों की एक आपातकालीन बैठक बुलाई। इस दौरान काफी जोश में एनसी, कांग्रेस और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का समर्थन कर रहे निर्दलीय विधायकों ने काफी कुछ कहा। हालांकि, सभी बैठक में मुख्य निशाना रहे उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के खिलाफ कुछ भी खुल कर कहने से बचते रहे। बैठक के बाद एनसी विधायक और इसके मुख्य प्रवक्ता तनवीर सादिक ने कांग्रेस के निजामुद्दीन भट के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया।
उन्होंने कहा कि विधायकों ने केंद्र सरकार को कड़ी चेतावनी देने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में एनसी-कांग्रेस गठबंधन सरकार को मिले जनादेश को कमतर करने नहीं आंकना चाहिए। इन्होंने मोदी सरकार द्वारा हाल में पारित वक्फ बिल के बारे में भी बात की, जिसे इन्होंने मुस्लिम विरोधी करार दिया।
जोश-जोश में हुए बैठक से कुछ निकला क्या?
कुल मिलाकर, ये बैठक बेकार हो चकी मिसाइल साबित हुई। इसमें एलजी सिन्हा द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शक्तियों को चुनौती देने के लिए कोई तथ्य ठीक तरह से नहीं रखे जा सके। जबकि इस बैठक को बुलाने का अहम कारण एलजी सिन्हा की अध्यक्षता वाले सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) द्वारा हाल ही में जारी किए गए जम्मू कश्मीर प्रशासनिक सेवा (जेकेएएस) के 48 अधिकारियों के स्थानांतरण आदेश थे।
यह आदेश 1 अप्रैल को जारी किया गया था। इसे तब एलजी सिन्हा द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग और अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करने का मामला बताया गया था। हालांकि, आपात बैठक के बाद एलजी सिन्हा ने एक संक्षिप्त बयान जारी कर इस बात पर जोर दिया कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के तहत निहित अपनी शक्तियों की सीमाओं का कभी उल्लंघन नहीं किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि संसद द्वारा पारित यह अधिनियम उनके कार्यालय की शक्तियों के साथ-साथ शासनादेश से मिली जिम्मेदारियों को भी परिभाषित करता है।
एलजी ने अपने बयान में क्या कहा था?
एलजी ने शुक्रवार को अपने बयान में कहा, 'मैं यह बिल्कुल स्पष्ट करना चाहता हूं। संसद ने 2019 में जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम पारित किया था, और मैंने पूरी तरह से उस अधिनियम द्वारा परिभाषित क्षेत्राधिकार के भीतर काम किया है। मैंने कभी भी अपनी संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं किया है। मैं अपने अधिकार क्षेत्र और जिम्मेदारियों से पूरी तरह वाकिफ हूं। मैंने कभी उनका उल्लंघन नहीं किया है और न ही कभी ऐसा करूंगा।'
यह स्पष्टीकरण तब जारी किया गया जब सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों ने यह बात फैलानी शुरू की और इशारा किया कि एलजी सिन्हा ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है। इनका कहना था कि जेकेएएस अधिकारियों को स्थानांतरित करके एलजी सिन्हा ने सरकार के अधिकारों पर अतिक्रमण किया है। स्थानांतरित किए गए और नई तैनाती पाने वालों में 14 अतिरिक्त उपायुक्त (एडीसी) और 26 उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) शामिल हैं।
पुलवामा, कुपवाड़ा, बसोहली, डोडा, अनंतनाग, सुंदरबनी, राजौरी, नौशेरा, बारामुल्ला, श्रीनगर, गंदेरबल, कठुआ, भद्रवाह और हंदवाड़ा के एडीसी को नई जिम्मेदारी दी गई है। जीएडी की ओर से यह आदेश ऐसे समय में जारी किया गया है, जब उमर सरकार करीब एक महीने पहले बनाए गए कामकाज के नियमों पर अमित शाह की अध्यक्षता वाले केंद्रीय गृह मंत्रालय से मंजूरी का इंतजार कर रही है। इन नियमों के सुचारू शासन चलाने को लेकर मंजूरी के लिए एलजी के पास भेजा गया था।
सबसे शक्तिशाली से बने अब सबसे कमजोर मुख्यमंत्री
असल में इन बिजनेस रूल्स के जरिए उमर सरकार सीएम और एलजी के बीच शक्तियों के बंटवारे पर स्पष्टता चाहती है। हालांकि, यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है क्योंकि उमर आजकल भारत के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री में से एक बन गए हैं। जम्मू और कश्मीर राज्य के सीएम के रूप में अपने पिछले कार्यकाल में जनवरी 2009 से 2014 के अंत तक देश के सबसे शक्तिशाली सीएम थे। जाहिर तौर पर इसकी वजह आर्टिकल 370 था।
नेशनल कॉन्फ्रेंस विधायक तनवीर सादिक ने कहा, 'आज की बैठक में संसद में पारित वक्फ विधेयक सहित प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया। यह विधेयक देश में मुसलमानों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ है, और हम इसका विरोध करते हैं। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा जम्मू-कश्मीर के लोगों द्वारा एनसी के नेतृत्व वाली सरकार को दिया गया जनादेश था। हमने एक बार फिर मांग की है कि भारत सरकार इस जनादेश का सम्मान करे। इस पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। आज इन दो प्रस्तावों को सर्वसम्मति से पारित किया गया।'
दिलचस्प बात यह भी है कि सादिक ने जेकेएएस अधिकारियों की पोस्टिंग का उल्लेख नहीं किया क्योंकि नियमों को सरसरी तौर पर पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके तबादले एलजी के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। इसका यह भी मतलब है कि मुख्यमंत्री उमर या उनके मंत्रियों के पास विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले जेकेएएस अधिकारियों पर कोई अधिकार नहीं है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस मौजूदा सच्चाई क्यों नहीं समझ रही?
कुछ लोगों ने हालिया बैठक को केंद्र सरकार के लिए 'कड़ी चेतावनी' बताया, लेकिन एनसी के बयान में नई दिल्ली से 'आखिरी बार' जम्मू-कश्मीर में लोगों के व्यापक जनादेश को कमतर नहीं आंकने का आग्रह किया गया। इसमें कहा गया कि केंद्र को 'लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को बिना किसी हस्तक्षेप के काम करने देना चाहिए।' यह शब्द उस दिशा के लिए बहुत कम जगह छोड़ते हैं जिस दिशा में जम्मू-कश्मीर अब बह रहा है। ऐसा लगता है कि जल्द ही, जम्मू-कश्मीर के लिए राज्य का दर्जा बहाल करने की मांगों के बारे में बयान फिर से आने लगेंगे।
ऐसा जाहिर तौर पर इसलिए क्योंकि राजनीतिक नेताओं को लगता है कि एक बार राज्य का दर्जा बहाल हो जाने के बाद, वे अपने अधीन काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों के 'मालिक' हो जाएंगे। वे और अधिक अधिकार चाहते हैं, जैसा कि पड़ोसी हिमाचल प्रदेश और पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को प्राप्त है।
इसका मतलब यह भी है कि वे केंद्र शासित प्रदेश के एलजी के मुकाबले अपनी खुद की कम शक्ति के बारे में जमीनी हकीकत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। एनसी के नेता यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि उनकी स्थिति दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के मंत्रियों जैसी हो गई है। दिल्ली की तरह, जम्मू-कश्मीर में मंत्रियों के पास 2019 के अधिनियम के अनुसार बहुत ही सीमित शक्तियां और सीमित भूमिकाएं हैं।
दिल्ली की तरह, जम्मू-कश्मीर में पुलिस को नियंत्रित करने वाला गृह विभाग और आईएएस, आईपीएस, आईएफएस और जेकेएएस अधिकारियों को नियंत्रित करने वाला जीएडी एलजी सिन्हा के अतर्गत आता है। सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों की इच्छा जो भी हो, इसका मतलब यह नहीं है कि इन विभागों को मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को सौंप दिया जाए।