1989 के अंत में (या 1990 की शुरुआत में) जब आतंकवाद सही मायने में  शुरू हुआ, तब श्रीनगर (कश्मीर) में हुई सबसे सनसनीखेज हत्याओं में से एक कश्मीर विश्वविद्यालय (केयू) के तत्कालीन कुलपति मुशीर उल हक और उनके निजी सचिव की हत्या थी। वीसी का उनके निजी सचिव के साथ 6 अप्रैल 1990 को जम्मू कश्मीर स्टूडेंट्स लिबरेशन फ्रंट (जेकेएसएलएफ) के गुर्गों ने अपहरण कर लिया था। जेकेएसएलएफ कैडरों की मांग थी कि जेलों में बंद उनके कुछ सहयोगियों को रिहा किया जाए। 

सीबीआई जांच रिपोर्ट के अनुसार जेकेएसएलएफ के स्वयंभू मुख्य कमांडर हिलाल बेग ने अपने कुछ सहयोगियों जिनमें आरोपी जावेद शाला, ताहिर अहमद मीर, मुश्ताक अहमद शेख, मुश्ताक अहमद खान, मोहम्मद हुसैन खान और मोहम्मद सलीम जरगर जैसे लोग शामिल थे, इनके साथ केयू के वीसी मुशीर-उल-हक का अपहरण कर लिया था। इनकी मांग की थी कि सरकार उनके सहयोगियों - निसार अहमद जोगी, गुलाम नबी भट और फैयाज अहमद वानी को रिहा करे।

हक और उनके निजी सचिव अब्दुल गनी को इन आतंकवादियों ने अपने सहयोगियों की रिहाई की मांग के लिए अगवा किया था। आरोप है कि मांगें पूरी न होने पर 10 अप्रैल 1990 को दोनों बंधकों की हत्या कर दी गई। 

सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को किया बरी

करीब 35 साल बाद यानी 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने इस सनसनीखेज मामले में प्रतिबंधित जेकेएसएलएफ के कथित सदस्यों को बरी करने के फैसले को बरकरार रखते हुए सीबीआई का मुकदमा खारिज कर दिया। पिछले हफ्ते जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने अब निरस्त हो चुके आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1987 (टाडा) के तहत दर्ज मामले में सात लोगों को बरी करने के फैसले को चुनौती देने वाली सीबीआई की अपील खारिज कर दी।

न्यायालय ने मामले को संभालने के तरीके की आलोचना करते हुए कहा कि प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को “पूरी तरह से दरकिनार” कर दिया गया और सत्य और न्याय आरोपी और पीड़ित दोनों की पहुंच से दूर बना रहा। न्यायालय ने कहा कि भारी सुरक्षा वाले बीएसएफ शिविर में इकबालिया बयान दर्ज करना, जहां आरोपी के लिए माहौल आमतौर पर डरावना और दबाव वाला होता है, उसे स्वतंत्र माहौल नहीं कहा जा सकता। 

पीठ ने कहा, “यह यूं ही नहीं है कि ऐसे कठोर प्रावधानों (जिसे टाडा कहते हैं) को निरस्त कर दिया गया है। हम यही कहते हैं और इससे ज्यादा कुछ नहीं।” सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उसे विशेष न्यायालय द्वारा आरोपी को बरी करने के दृष्टिकोण में कोई त्रुटि या कमजोरी नहीं दिखती। 

जांच प्रक्रिया और न्यायिक प्रणाली पर सवाल

इस वाकये के बाद हम उस सवाल पर पहुंचते हैं जहां ऐसे सनसनीखेज मामलों में दोषसिद्धि या बरी होने की बात आती है। और जिस मामले पर हम यहां चर्चा कर रहे हैं, उसमें 35 साल का लंबा समय लगा। उस समय, आतंकवादियों का पूरे कश्मीर घाटी पर दबदबा था और शाम से सुबह तक कर्फ्यू रहता था, वाहनों की आवाजाही लगभग नगण्य थी। इसके अलावा, आम लोगों, छोटे सरकारी अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों की हत्याएं लगभग हर रोज हो रही थीं। 

फिर भी, दशकों बाद हमारी न्यायिक प्रणाली और हमारी जांच प्रक्रिया ऐसी है कि उस समय आतंक फैलाने के इरादे से एक वीसी की हत्या के मामले में सजा मिलने में देरी हो रही है।

हम यह मान सकते हैं कि उस समय दर्ज किए गए आतंकवाद के सैकड़ों मामले निचली अदालतों में लटके हुए हैं और अभियोजन पक्ष औपचारिक रूप से चल रहा है। 

यहाँ यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि उन दिनों सबसे शक्तिशाली आतंकवादी संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) था, जिसका नेतृत्व यासीन मलिक करता था, जो वर्तमान में तिहाड़ जेल में है। आतंकवाद के पहले पाँच वर्षों के दौरान, JKLF को पाकिस्तानी प्रतिष्ठान और उसकी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) का भरपूर समर्थन प्राप्त था। यह हमें दिसंबर 1989 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण में यासीन मलिक की संलिप्तता के प्रश्न की ओर भी लाता है। 

गृह मंत्री से जुड़ा मामला भी न्याय खोज रहा

रुबैया का अपहरण उस समय आतंकवाद के लिए एक बड़ा बढ़ावा था। JKLF ने सरकार को अपने सामने झुका दिया था और हजारों आम कश्मीरियों ने इसका जश्न मनाया था। क्या यह मजाक नहीं है कि एक केंद्रीय गृह मंत्री के परिवार से संबंधित मामला अभी भी अधूरा है और 36 वर्षों में भी अपने समापन तक नहीं पहुँचा है? 

उल्लेखनीय है कि रुबैया के पिता पहली बार नवंबर 2002 में और दूसरी बार मार्च 2015 में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने थे। रुबैया की बहन महबूबा मुफ़्ती भी 2016 की शुरुआत से जून 2018 तक दो साल से ज्यादा समय तक जम्मू-कश्मीर की सीएम रहीं।

अगर भारत में कहीं किसी आम नागरिक के परिवार के सदस्य का अपहरण हो जाता है, तो क्या यह मानने का कोई कारण है कि पुलिस और हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था अपहरण के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिलवा पाएगी? भले ही वे किसी न किसी कारण से पकड़े जाएं। एक मुहावरा है जो एक गंभीर संदेश भी देता है। मुहावरा कुछ इस तरह है- अगर आप जज या जजों को खरीद सकते हैं तो वकील रखने की क्या जरूरत है? 

आम नागरिकों के सामने मौजूदा न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता लगातार कम होती जा रही है और क्या ऊपर बताए गए मामलों में इसके कारण छुपे हैं? नहीं, यह हमारी बीमार और सड़ती हुई न्यायिक व्यवस्था का निर्णायक सबूत नहीं है, चाहे वह निचली अदालतों, उच्च न्यायालयों या यहां तक ​​कि सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर हो? जरा इस पर भी विचार करें।

आज से करीब 25 साल पहले 23 मार्च, 2000 को नादिमर्ग में 22 कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ था। उस मामले में क्या हुआ? क्या कोई अपराधी पकड़ा गया? क्या उनमें से कोई दोषी ठहराया गया? क्या उनमें से कोई सुरक्षा बलों द्वारा मारा गया? जाइए और पता कीजिए।