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अपने यहां चुनावी चर्चाएं और उनके परिणामों का विश्लेषण इतना रूढ़ हो चुका है कि हमेशा ही कुछ महीन बातें छूट जाती हैं। अब तो दिल्ली से आम आदमी पार्टी के जाने और अरविंद केजरीवाल के हारने को हफ्ता भर हो गया है और टनों कागज काले किए जा चुके हैं। बावजूद इसके, एक बात जो पहले दिन से ही मुझे छूटी हुई लग रही थी उस पर लिखना जरूरी लगा क्योंकि सारे फसाने में उसका जिक्र नहीं आया है।
शुरुआत कुछ परिचित तथ्यों से करते हैं। मसलन, केजरीवाल एक आंदोलन की सार्वजनिक पैदाइश हैं। आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की उपज है। उस आंदोलन की मुख्य ताकत शहरी मध्यवर्ग था और उसका नेतृत्व भी शहरी मध्यवर्गीय ही था, भले चेहरा एक ग्रामीण गांधीवादी बुजुर्ग रहा हो। आंदोलन का मूल तर्क इस व्यवस्था में पारदर्शिता लाना था यानी सरकारों को जवाबदेह बनाना था।
संक्षेप में, कल्याणकारी राज्य वाले संसदीय लोकतंत्र को पटरी पर लाना था। यानी, वह आंदोलन किसी क्रांति, स्वप्नदर्शी आदर्श या युटोपिया को हासिल करने के लिए नहीं हुआ था, बल्कि यथास्थिति को सुगम बनाने के लिए हुआ था। चूंकि मामला यथास्थिति के दुरुस्तीकरण का था, तो उस आंदोलन की शिकारगाह स्वाभाविक रूप से शहरी-कस्बाई मध्यवर्गीय समाज था, जो सामान्यत: यथास्थिति का पोषक होता है।
आंदोलनों की बेचैनी
लिहाजा, मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को जाने-अनजाने स्वर देने वाले तमाम लोग, समूह, संगठन और यहां तक कि राजनीतिक दल इस आंदोलन की छतरी के नीचे अपने आप आ गए थे। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी, जो किसान-मजदूर को अपना जनाधार मानती रही हैं। मानना एक बात है, होना दूसरी बात। 2010 तक बीते उदारीकरण के दो दशकों में उनका यह जनाधार अस्मिता की राजनीति के प्रभाव में आकर खिसक चुका था। यही हाल समाजवादी आंदोलन का भी था।
इसीलिए हम पाते हैं कि 2014 के चुनाव में भाकपा (माले-लिबरेशन) जैसी किसी जमाने की क्रांतिकारी पार्टी भी आम आदमी पार्टी के भरोसे आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाती है, तो किशन पटनायक की विरासत समाजवादी जन परिषद के अहम नेता आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ जाते हैं। देश के सबसे बड़े और सबसे पुराने जिंदा आंदोलनों में एक नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर को भी हमने आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ते देखा।
ये सभी बदलावकारी ताकतें घोषित रूप से यथास्थितिवाद का पोषण कर रही आम आदमी पार्टी के लिए लड़ रही थीं, यह बात भुलाई नहीं जानी चाहिए। क्या समझदारी रही होगी इन सब की? उस दौरान बहुत से सच्चे आंदोलनकारियों से मैंने एक ही सवाल पूछा था- आप क्यों चुनाव लड़ रहे हैं? सबके जवाब में एक उम्मीद थी। यह उम्मीद गैर-वाजिब नहीं थी। बरसों के संघर्ष की थकान एक तरफ, विचारधारा की लड़ाई की दुश्वारियां दूसरी तरफ। सबको यही लगा था कि शायद अब कुछ हो जाए, कुछ बदल जाए।
अंधेरी सुरंग की दूसरी तरफ कोई रोशनी दिखाई देती थी सबको। बाद में पता चला कि एक ट्रक आ रहा था जो एक झटके में सबको कुचल कर चला गया। चार साल तक चले आंदोलन और उससे पार्टी बनने की प्रक्रिया की परिणति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी के सत्ता-उत्थान में हुई। इस सरकार ने अपने पहले सौ दिनों में ही अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। जो असहमति की स्पेस 2010 से बनी और लगातार फैली थी, अचानक ही ऐसी सिकुड़ने लगी कि लोग अपने-अपने खोल में सिमटने लगे।
2014 के बाद
जन आंदोलनों के सोचने का काम इसके बाद शुरू हुआ। मैं तीन दृष्टान्त गिनाना चाहूंगा। पहला, ओडिशा के जगतसिंहपुर स्थित ढिंकिया गांव में देश भर के जनांदोलनों और उनके प्रतिनिधियों की दो दिन की बैठक, जो 29-30 नवंबर 2014 को हुई। इसके बाद 19-20 मार्च, 2015 को इन्हीं प्रतिनिधियों की भागीदारी से दिल्ली में हुई दो दिन की बैठक। फिर 21-22 मई, 2016 को सिकुड़ती लोकतांत्रिक स्पेस पर जन आयोग का एक सम्मेलन। चूंकि इस समूची प्रक्रिया के भीतर-बाहर मैं किसी न किसी रूप में हिस्सेदार रहा, तो अपनी बात कहने के क्रम में इन तारीखों को दर्ज कराना जरूरी है।
ढिंकिया में तमाम जनांदोलनों के बीच चली चर्चा में एक बात मजबूती से सामने आई थी कि मौजूदा लोकतंत्र में समस्याओं का कोई हल नहीं है। ढिंकिया सम्मेलन में यह जरूरत महसूस की गई कि अब विचार करने का वक्त है कि क्या मौजूदा संसदीय लोकतंत्र अपने आप में परिपूर्ण है या फिर इसका दूसरा विकल्प तलाशा जाए। बिलकुल इसी लीक को पकड़ कर मार्च 2015 वाली दिल्ली की बैठक हुई जिसका विषय बहुत स्पष्ट था: ‘’संसदीय लोकतंत्र की बाधाएं, संभावनाएं और विकल्प’’। यहां से एक बहस चल पड़ी कि मौजूदा दौर में लोकतांत्रिक और संवैधानिक सीमाओं के भीतर असहमति और संघर्ष कैसे हो।
इसका व्यावहारिक परिणाम यह हुआ कि आगामी वर्षों में दो प्रक्रियाएं चलीं: एक, जमीनी संगठनों पर फोकस हुआ (यानी मध्यवर्गीय राजनीति से प्रस्थान) और दूसरा, अलग-थलग पड़े समूहों को अपास में मिलकर एक नेटवर्क की तरह काम करने की अहमियत समझ में आई। नेटवर्क वाली समझदारी की शुरुआती प्रक्रिया का नाम रहा सिकुड़ती लोकतांत्रिक स्पेस पर जन आयोग, जो 2016 में सक्रिय हुआ।
संगठित होकर सोचने का काम इसके बाद नहीं हुआ, जबकि इस विषय पर लगातार सोचा जाना था। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने जब अनुदान के बुनियादी स्रोतों पर हमला करना शुरू किया तो न संगठनों का जमीनी काम बच पाया, न उनके नेटवर्क सक्रिय रह पाए। विडम्बना देखिए कि आम आदमी पार्टी की जिस ‘विचारधाराहीन’ राजनीति से औचक मोहभंग के चलते 2014 के बाद जनांदोलनों ने चिंतन और संगठन की राह पकड़ी थी, उन्हीं में से ज्यादातर खुद को बचाने के लिए कोरोनाकाल के बाद डिलीवरी (लाभ प्रदान करने) की राजनीति में फंस गए।
चूंकि ‘’लाभार्थी चेतना’’ का नारा देकर 2021 तक भाजपा भी डिलीवरी वाले खेल में उतर चुकी थी, तो तमाम जनसंगठन, स्वयंसेवी समूह, आंदोलनकारी जमातें अपने आप कांग्रेस की ओर मुड़ गईं। जाहिर है, इस काम में भी केंद्रीय नायक (या खलनायक) वही शख्स था जिसने कभी इन सबको आम आदमी पार्टी की ओर ठेला था- योगेंद्र यादव। यह प्रक्रिया भारत जोड़ो यात्रा की कांस्टिट्यूशन क्लब में हुई तैयारी बैठक से शुरू हुई। फिर तो सारा मामला संविधान बचाने पर आकर टिक गया। हाथ में लाल किताब लिए राहुल गांधी आंदोलनों के पोस्टर ब्वॉय बन गए।
दस साल पुराना सवाल
संविधान बच गया। भाजपा की सरकार भी बच गई। दिल्ली में भी भाजपा आ गई। सवाल फिर भी वही रहा- इस संवैधानिक लोकतंत्र में असहमति, संघर्ष, जनता के मुद्दों, के लिए कोई गुंजाइश है या नहीं? मिलजुल कर बैठने-सोचने की जो प्रक्रिया दस साल पहले शुरू हुई थी, यदि वह चलती रहती और जनांदोलनों ने जनता की लड़ाई आम आदमी पार्टी के बाद कांग्रेस को आउटसोर्स नहीं की होती, तो शायद कोई ऐसा नुस्खा निकल सकता था जो विशुद्ध ‘’न्यूट्रल’’ होता। न्यूट्रल का मतलब, किसी संसदीय दल के कंधे पर नहीं टिका होता, अपने पैरों पर खड़ा होता।
बहरहाल, याद करें कि जब अपने यहां भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन खड़ा हुआ था, तब बाकी दुनिया में भी वह दौर स्वयं-स्फूर्त से दिखने वाले आंदोलनों का था। अरब स्प्रिंग से लेकर टी पार्टी मूवमेंट और ऑक्युपाइ वॉल स्ट्रीट तक तमाम आंदोलन कोई दशक भर चले। उन्होंने सरकारें बदलीं, लेकिन लोगों के जीने के हालात और बदतर हुए। इसी से एक व्यापक समझदारी कायम हुई कि वे आंदोलन बदलाव के लिए नहीं आए थे बल्कि यथास्थिति का पोषण करने वाले थे जो रहा-सहा बिगाड़ के चले गए। अब वैसे आंदोलनों की उम्र खतम हो चुकी है, उनकी जरूरत भी नहीं। ऐसे सभी आंदोलनों की खासियत यह थी कि वे ऊपर से अराजनीतिक दिखते थे, लेकिन भीतर से प्रतिगामी राजनीति के पोषक थे।
हो सकता है कि संसदीय लोकतंत्र की सीमाओं से जुड़े जिन सवालों पर कभी भारत में आंदोलन सोच रहे थे उन्हें अनुभव से दुनिया के दूसरे देशों में भी लोगों ने महसूस किया हो, लेकिन वहां भी नए के सिरजने की प्रक्रिया नकली आंदोलनों के जोर में दबी रह गई हो। अब, जब 2008-09 के बाद उपजे आंदोलनों की खाल उधड़ चुकी है और उनका हश्र हमारे सामने है, तो जनता फिर से अंगड़ाई ले रही है। जाहिर है, अब जो सामने आ रहा है वह और ज्यादा भ्रामक होने की आशंका लिए हुए है क्योंकि वह घोषित रूप से ‘’अराजनीतिक’’ है।
मैं सर्बिया की बात रहा हूं, चीन की बात कर रहा हूं। दार्शनिक स्लावोइ जीजेक ने अपने एक ताजा लेख में इस ओर इशारा किया, तो अपने दिमाग की भी घंटी बजी। बेशक, अपने यहां ऐसे उदाहरण अभी नहीं दिख रहे, लेकिन भारत के युवाओं के मन में क्या चल रहा है हम नहीं जानते।
सर्बिया की अंगड़ाई
सर्बिया में फिलहाल जो घट रहा है, वह 1968 के छात्र आंदोलन से भी बड़ा है। वहां के दो सौ शहरों में लाखों लोग सड़क पर उतर चुके हैं। यह हमारे काम का कैसे है? वो ऐसे, कि इस आंदोलन का वैचारिक चरित्र बहुत अजीब है, जो दस साल पहले हमारे यहां आंदोलनों के बीच चली विचार-प्रक्रिया के आगे का चरण जान पड़ता है। पहली बात, सर्बिया के आंदोलनकारी सरकार के साथ किसी भी संवाद से इनकार कर चुके हैं। दूसरी बात, वे कोई राजनीतिक मांग नहीं कर रहे और न ही किसी विपक्षी दल से वे जुड़े हुए हैं। यानी, वे मान चुके हैं कि राजनीतिक आंदोलन से कुछ होना-जाना नहीं है। मांगने से कुछ मिलना नहीं है।
परंपरागत रूप से कोई भी विरोध प्रदर्शन कम से कम भीतरी स्तर पर हिंसा की धमकी आदि पर भरोसा करता है और साथ ही उसके बल पर समझौता वार्ता आदि करने के प्रति खुला होता है। हमने अन्ना आंदोलन में भी यही देखा था। सर्बिया में उलटा चल रहा है। यहां वे हिंसा की धमकी भी नहीं दे रहे और बातचीत करने को भी तैयार नहीं हैं। यह सहजता ही भ्रम पैदा कर रही है। दूसरे, इन आंदोलनों का कोई नेता भी नहीं है। इस मायने में यह अन्ना आंदोलन, अरब स्प्रिंग, जैसे आंदोलनों से बहुत आगे की चीज है।
मसलन, डेन्यूब नदी पर बने एक पुल को चौबीस घंटा जाम रखने के बाद प्रदर्शनकारियों ने अगले तीन घंटे तक उस पुल की सफाई की। ऐसा अराजकतावाद से लेकर वामपंथी, समाजवादी आंदोलनों तक कहीं नहीं देखने को मिलता। यानी, ये प्रदर्शनकारी नई बोतल में पुरानी शराब जैसा कुछ नहीं दे रहे, बल्कि नए किस्म की राजनीति की जमीन बनाते दिख रहे हैं। ये कितने दिन संगठित राजनीति या राजनीतिक दलों से दूर रह पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी।
अपना सबक
इस आंदोलन की यह प्रवृत्ति चीन के युवाओं में कुछ दूसरे ही रूप भी देखी जा रही है, जिनका व्यवस्था में काम करने, सफलता पाने, करियर बनाने की चालू अवधारणाओं से ही मोहभंग होता जा रहा है। इस पर सीएनएन ने रिपोर्ट भी किया है।
सर्बिया या चीन के उदाहरण कम से कम इतना दिखाते हैं कि व्यवस्था में चारों तरफ से घिर चुका आदमी भी जिंदगी की बेहतरी के लिए छटपटाते हुए कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेता है। यही रास्ता निकालने की कवायद 2014 में और उसके बाद भारत में वैकल्पिक राजनीति करने वालों ने थोड़ा-बहुत की थी, जो किसी संगठित अंजाम तक नहीं पहुंची। बावजूद इसके, सर्बिया से उठा गुबार कुछ संकेत दे रहा है।
हमारे लिए वह इस काम का हो सकता है कि हमने यानी इस देश के पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों ने 2010-11 में हवा के साथ बह जाने की जो गलती की थी, वह दोबारा न करें। अगर यहां भी सर्बिया जैसी कोई परिघटना दिखती है, तो उसे ठोकें, बजाएं, उसके बाद ही कोई फैसला लें।