किसी की मौत पर उसे याद करने के दो रास्ते होते हैं। पहला, कि फलाने कैसे थे। दूसरा, कि उन्होंने क्या-क्या किया था। यानी, व्यक्तित्व और कर्तृत्व के दो पक्षों पर ही बात की जा सकती है। डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बाद उन्हें जिस ढंग से याद किया जा रहा है उसमें उनकी निजी शख्सियत को लेकर तकरीबन आम राय है, कि वे भले इंसान थे। उनके काम पर आम राय नहीं है।
व्यक्तित्व पर आम सकारात्मक राय बनने की वजह सिर्फ इतनी है कि डॉ. सिंह मुखर नहीं थे। हो सकता है कि उनका स्वभाव ही अंतर्मुखी रहा हो, लेकिन मूल बात यह थी कि लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बावजूद वे उस बिरादरी से नहीं आते थे। वे नेता नहीं थे, समाजकर्मी नहीं थे। इसलिए लोग जब उनके व्यक्तित्व पर करते हैं तो जाने-अनजाने में नेताओं या निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से तुलना कर के निर्णय देते हैं। यह पैमाना ही गड़बड़ है। मनमोहन सिंह कभी जनता के वोट से चुने नहीं गए। पहली बार वित्त मंत्री भी वे अन्यत्र कारणों से बने (देखें अशोक मित्रा की ‘’प्रैटलर्स टेल: बंगाल, मार्क्सिज्म, गवर्नेंस’’, 2007)।
मनमोहन सिंह के किए-धरे पर आम राय बंटी हुई है। जो लोग निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के समर्थक हैं वे उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कह रहे हैं। जो विरोधी हैं, वे उन्हें आधुनिक भारत की बरबादी का सूत्रधार कह रहे हैं। फिर भी दोनों विरोधी पक्षों में एक समानता निकलती है कि आज के भारत पर कोई भी बात मनमोहन सिंह की भूमिका के बगैर पूरी नहीं हो सकती। इसीलिए वे अपरिहार्य हैं, अनिवार्य हैं।
अपने देशकाल में व्यक्ति की भूमिका उसकी जगह से तय होती है, कि वह कहां है, क्या है और क्या कर रहा है। उसका होना और उसका करना यदि समय और समीकरण में उपयुक्त बैठ जाए, तो वह व्यक्ति कालान्तर में बात करने के लायक बन जाता है। मनमोहन सिंह पर यह बात सटीक लागू होती है। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री और विश्व बैंक के भूतपूर्व चीफ इकॉनमिस्ट जोसेफ स्टिगलिज ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक की आलोचना करते हुए जो लिखा है, मनमोहन सिंह पर बात करने का सूत्र वहां छुपा है।
‘’ग्लोबलाइजेशन ऐंड इट्स डिसकंटेंट्स’’ (2002) में स्टिगलिज लिखते हैं: ‘’वित्त मंत्री और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों के वित्तीय बिरादरी के साथ करीबी रिश्ते होते हैं। वे वित्तीय फर्मों से आते हैं और सरकार में कुछ बरस अपनी सेवा देकर वहीं लौट जाते हैं। ये लोग स्वाभाविक रूप से दुनिया को वित्तीय समुदाय की नजर से देखते हैं। किसी भी संस्था के निर्णय जाहिर तौर से उन व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य और हितों को झलकाते हैं जो फैसले लेते हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की नीतियां हमेशा ही विकसित औद्योगिक देशों के वाणिज्यिक और वित्तीय हितों के अनुकूल रहती हैं।‘’
यह बात पहले से बहुत से लोग समझते रहे हैं कि विश्व बैंक और आइएमएफ के ऊपर दुनिया के अमीर देशों का कब्जा है, लेकिन स्टिगलिज की बात एक नई व्यवस्था की ओर इशारा कर रही थी कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं अपने कर्मचारियों की मार्फत भारत सरकार को नियंत्रित करती हैं। खासकर सन 1991 से देखा जाए तो आर्थिक नीति बनाने वाले भारत के तमाम लोग विश्व बैंक और आइएमएफ का स्टाफ रह चुके थे। योजना आयेाग के सदस्य हों, वित्त मंत्रालय के सचिव या रिजर्व बैंक के गवर्नर, इनका अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से भारत सरकार में आना-जाना ऐसे लगा रहा जैसे खाला का घर हो।
मोंटेक सिंह अहलुवालिया, शंकर आचार्य और बिमल जालान इस मामले में कुख्यात रहे। अहलुवालिया और आचार्य ने तो अपना करियर ही विश्व बैंक और आइएमएफ से शुरू किया। वे उन्हीं संस्थाओं के पढ़ाए अर्थशास्त्र के अनुयायी थे। मनमोहन सिंह ने वैसे तो प्रोफेसरी से अपना करियर शुरू किया, लेकिन 1966 में वे संयुक्त राष्ट्र की व्यापार संस्था अंकटाड में चले गए। जब वहां से लौटे तो विदेश व्यापार मंत्रालय में सलाहकार हुए। फिर मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद से होते हुए वित्त सचिव तक पहुंचे, योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने और 1987 में जिनेवा स्थित स्वतंत्र थिंकटैंक साउथ कमीशन में चले गए।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विजय प्रशाद ने हवाना में जून 1990 में हुई साउथ कमीशन की एक बैठक की तस्वीर फेसबुक पर साझा करते हुए दिलचस्प टिप्पणी लिखी है। वे लिखते हैं, ‘’मनमोहन सिंह का सबसे अहम और फलदायी कार्यकाल तब था जब वे जूलियस नेरेरे के साथ साउथ कमीशन का काम देखते थे। यहीं उन्होंने नवउपनिवेशवादी तंत्र के शिकंजे को समझना शुरू किया और जानने की कोशिश की कि प्रतिकूल परिस्थितियों में साउथ कैसे इस शिकंजे से मुक्त हो सकता है। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद मनमोहन सिंह बहुत गर्व के साथ उस दौर की बातें मुझसे करते थे, लेकिन एक सवाल का जवाब उन्होंने मुझे कभी नहीं दिया: अगस्त 1990 में साउथ कमीशन के पक्ष में अपनी मजबूत दलीलों से अचानक हटकर आपने जुलाई 1991 में बैंकॉक में आइएमएफ के सामने भारत के आत्मसमर्पण को कैसे अंजाम दिया?”
यह जो ‘’आत्मसमर्पण’’ वाली बात है, यही मनमोहन सिंह को उनके पूर्ववर्ती उन व्यक्तियों से अलग करती है जो भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के बीच आजादी के बाद से ही पुल बने हुए थे। 1991 के पहले दो मौके आए थे जब भारत ने आइएमएफ से कर्ज लिया था। पहला 1966 में और दूसरा 1981 में। 1966 का कर्ज सत्तर के दशक की शुरुआत तक ही लौटा दिया गया था। उसके लिए कोई शर्त नहीं थी सिवाय रुपये के अवमूल्यन के, जिससे घरेलू कीमतों और बाहरी कीमतों का तालमेल बैठ जाता और निर्यात के साथ भुगतान संतुलन का संकट पट जाता। 1981-83 वाले कर्ज के समय आइएमएफ की ओर से शर्तें तकरीबन नहीं के बराबर थीं क्योंकि उन सभी देशों के लिए फंड उपलब्ध करवाया जा रहा था जो तेल का उत्पादन नहीं करते थे।
इसके अलावा, इस अवधि में एक दिलचस्प बात यह थी कि आइएमएफ के कर्ज का विरोध खुद वित्त मंत्री वेंकटरमण और वित्त सचिव आरएन मल्होत्रा कर रहे थे। इसे मुकम्मल किया विश्व बैंक और आइएमएफ में भारत के कार्यकारी निदेशक डॉ. एम. नरसिम्हन ने, जिन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कर्ज के लिए मनाया और वेंकटरमण-मल्होत्रा को वॉशिंगटन भिजवाया। विडम्बना है कि हम नरसिम्हन को उस तरह से नहीं जानते जिस तरह से मनमोहन को जानते हैं।
दूसरी दिलचस्प बात यह थी कि अमेरिका इस कर्ज के खिलाफ था, जो आइएमएफ का सबसे बड़ा अंशधारक है। ऐसे में भारत ने बहुत मजबूती के साथ इस बार अपना पक्ष रखा और आइएमएफ को अपने हिसाब से तैयार किया। यह स्थिति 1966 वाली नहीं थी। तब भारत की आर्थिक हालत कहीं ज्यादा पतली थी। संसद में कर्ज लेने का जब भीषण विरोध हुआ, तो वित्त मंत्री को कहना पड़ा कि इसके कारण भारत का हित या आत्मसम्मान प्रभावित नहीं होगा। समय पर कर्ज चुका दिया गया और ऐसा कोई ढांचागत बदलाव भी नहीं किया गया जिससे देश की सम्प्रभुता खतरे में पड़ती।
इस संदर्भ में दिसंबर 1981 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का संसद का बयान महत्वपूर्ण है, जो आइएमएफ के कर्ज पर बहस के बीच उन्होंने दिया था। उन्होंने कहा था, ‘’कोई अगर यह सोच रहा हो कि हमें किसी ऐसी बाहरी एजेंसी से सहयोग ले लेना चाहिए जो हमारे ऊपर ऐसी शर्तें थोपती हो जो हमारी नीतियों के अनुकूल नहीं हैं, तो यह अकल्पनीय है।‘’
इंदिरा गांधी की हत्या के चार साल बाद तीसरा आर्थिक संकट आते-आते स्थिति बदल चुकी थी। 1988 से 1990 के बीच भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे डॉ. नितिन देसाई कहते हैं (‘’इंडियाज रिलेशंस विद आइएमएफ’’, सप्रू हाउस) कि इस अवधि में वित्त मंत्रालय को प्रधानमंत्री कार्यालय चला रहा था, बजट की बैठकें पीएमओ में बुलाई जाती थीं और प्रधानमंत्री ही अकसर वित्त मंत्री के साथ बैठकों की सह-अध्यक्षता करते थे। प्रधानमंत्री के सलाहकार मोंटेक सिंह अहलुवालिया थे (जो 11 साल विश्व बैंक में बिताकर आए थे और सरकार में कई अहम पदों पर रहने के बाद 2001 में आइएमएफ के निदेशक बनकर वॉशिंगटन चले गए, फिर योजना आयोग में लौट आए)।
ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1989 से 1991 के बीच विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री रहे। भुगतान संतुलन के संकट पर पहली बार संसद में प्रोफेसर मधु दंडवते ने 1990-91 के बजट अभिभाषण में स्थिति देश के सामने रखी थी। चूंकि वीपी सिंह और चंद्रशेखर की सरकारें वैचारिक रूप से पूंजीवादी शर्तों के खिलाफ थीं इसलिए सरकार ने आइएमएफ के पास जाने से संकोच किया और संकट को गहराने दिया। डॉ. देसाई कहते हैं कि अगर 1988-89 में ही भारत सरकार आइएमएफ के पास चली गई होती तो 1991 वाले सशर्त कड़े उपाय लागू नहीं करने पड़ते। 1991 में जब संकट पूरी तरह खुलकर सतह पर आ गया तो सोना तक गिरवी रखना पड़ा, जबकि दो साल पहले यह स्थिति नहीं होती।
दो साल पहले ही भारत सरकार आइएमएफ के पास कर्जा मांगने क्यों नहीं गई? डॉ. देसाई के मुताबिक, माहौल कर्जा लेने के एकदम लायक था लेकिन 1989 के आम चुनाव होने का इंतजार किया जा रहा था। चुनाव के बाद जो सरकार आई उसका राजनीतिक आधार पिछड़ा वर्ग था इसलिए उसके वैचारिक खांचे में विदेशी कर्जा फिट नहीं बैठता था। फिर चंद्रशेखर की सरकार आ गई। बदलती हुई सरकारों के बीच संकट की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक के कंधे पर आ पड़ी। सोना गिरवी रखने का खयाल और प्रस्ताव यहीं से उपजा। तत्कालीन आरबीआइ गवर्नर वेंकटरमण के साथ नाटकीय सोना प्रकरण का पूरा हवाला डॉ. सी. रंगराजन ने ‘’इंडियाज रिलेशंस विद आइएमएफ’’ में बहुत विस्तार से बताया है। वे लिखते हैं कि सारी विधायी तैयारियों के बावजूद सोना बाहर तभी गया जब केंद्र में नरसिंह राव की सरकार आ गई और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बन गए। इसके बाद का सब इतिहास है।
इस कहानी से हमें क्या समझ में आता है? यही, कि मनमोहन सिंह मात्र सही समय पर, सही जगह पर, सही आदमी थे। उससे ज्यादा और कुछ नहीं। उनका जो किया हमें दिखता है, वह वास्तव में उनका अनकिया ज्यादा है। जो हो रहा था, या कहें जो होना था, उसमें उन्होंने टांग नहीं अड़ाई, बल्कि इसके उलट उसके होने के हक में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को राजी किया (सी. रंगराजन)। नियति के सामने सिर को झुकाए रखा। अगर आर्थिक संकट के हिसाब से कर्ज, उदारीकरण और निजीकरण दो साल पहले आ गया होता तो परिदृश्य में शायद मनमोहन नहीं कोई और व्यक्ति होता। विजय प्रशाद जिसे बैंकॉक में आइएमएफ के सामने उनका ‘’आत्मसमर्पण’’ कहते हैं, वह किसी क्रिया का संकेत नहीं है। आत्मसमर्पण का मतलब होता है कुछ नहीं करना।
मनमोहन सिंह ने केंद्रीय भूमिका में रहते हुए 1991 में जो ‘’नहीं किया’’, आधुनिक भारत का इतिहास उससे बना है, उनके किए से नहीं। उनके वित्त मंत्री बनने से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक और उसके बाद नरेंद्र मोदी के दस साल बीत जाने तक, किसी भी नेतृत्व ने विदेशी पूंजी की ताकत के सामने कुछ नहीं किया। क्यों नहीं किया? क्योंकि इन सभी की आस्था आवारा पूंजी और बाजार में थी। ये सभी बड़े पैमाने पर निजीकरण की क्षमता को मानते थे। ये सभी राज्य की ताकत में कमी को स्वीकार कर चुके थे, राज्य के बदले हुए चरित्र को मान चुके थे।
नतीजतन, इन सभी ने बीते तीन दशक में मिलकर एक सुनियोजित प्रक्रिया के तहत राज्य की भूमिका को बस ‘’अनुकूल कारोबारी माहौल’’ बनाने वाले डंडे तक सीमित कर दिया। मनमोहन सिंह संयोग से वह डंडा एक गाढ़े वक्त में लेकर आए थे। अपना वक्त पूरा होने पर उन्होंने वह डंडा नरेंद्र मोदी को थमा दिया। नरेंद्र मोदी ने उसे राजदंड में तब्दील कर के नई संसद में स्थापित कर दिया। इस तरह की निष्क्रियताओं से मिलकर आधुनिक भारत का इतिहास बना।
मनमोहन सिंह कहते थे कि इतिहास उन्हें याद करने में उदारता दिखलाएगा। अभी उनके कार्यकाल को बीते दस साल ही हुए हैं और उन्हें गुजरे दस दिन भी नहीं, इसलिए इतिहास को कोई जल्दी नहीं है। यह अब भी इतिहास के गर्भ में ही है कि वह उन्हें कैसे याद करता है। हां, हम जब भी मनमोहन सिंह को याद करेंगे, अतीत की रोशनी में ही याद करेंगे, उससे हटकर नहीं।
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