बरेली में एक टूटे हुए पुल से कार गिरी और तीन लोग मारे गए। हादसा इसलिए हुआ क्योंकि गाड़ी गूगल मैप देखकर चलाई जा रही थी और नैविगेशन ने यह नहीं बताया कि आगे पुल टूटा है। इस घटना पर परिचित अंदाज में बातें हुईं। सामान्य लोगों ने गूगल मैप को दोषी ठहराया। खुद को पढ़े-लिखे और समझदार मानने वाले अन्य लोगों ने इसका मजाक बनाया और प्रशासन को दोषी ठहराया। पुलिस ने दोनों का मान रखते हुए गूगल मैप के एक ‘अज्ञात’ कर्मचारी और चार इंजीनियरों को एफआइआर में नामजद कर दिया।
यह घटना प्रौढ़ शिक्षा की कार्यशालाओं में दिए जाने वाले एक परिदृश्य से मेल खाती है। उसमें प्रतिभागियों को एक काल्पनिक कथा सुनाई जाती है और पूछा जाता है- मौत का जिम्मेदार कौन। कहानी कुछ यूं है।
एक गांव में एक दंपत्ति रहता था। उसकी आजीविका का सहारा लकड़ी की बिक्री थी। पति (क) जंगल से लकड़ी काट कर, शाम को बाजार में बेच कर, काफी देर से घर लौटता और खाना खाते ही घोड़े बेचकर सो जाता था। सुबह जब तक पत्नी (ख) की आंख खुलती, वह फिर से जंगल निकल जाता। उसके पास पत्नी के लिए समय ही नहीं था। गांव में एक नदी बहती थी। नदी उस पार दूसरा गांव था, जहां पहुंचने के लिए एक पुल था या फिर कुछ नावें। उस पार वाले गांव के एक लड़के (ग) से पत्नी (ख) की दोस्ती हो गई। धीरे-धीरे ख हर बात के लिए ग पर निर्भर रहने लगी। रोज जब क लकड़ी काटने जंगल चला जाता तो ख दूसरे गांव ग से मिलने चली जाती, लेकिन शाम होने से पहले पुल से अपने गांव वापस चली आती।
दरअसल, ख के मन में दो डर थे। एक तो शाम होते-होते पुल पर एक पागल आकर बैठ जाता था जो किसी को भी पुल पार नहीं करने देता था। यदि कोई जबरदस्ती पुल पार करना चाहे तो वह उसकी हत्या कर देता था। ख उससे डरती थी। दूसरे, ख और ग के बीच प्रेम की जानकारी ख की एक सहेली (घ) को थी जो कि ग के गांव की रहने वाली थी। घ इस मित्रता को बिल्कुल पसंद नहीं करती थी क्योंकि वह मानती थी कि औरतों को पतिव्रता होना चाहिए। इसलिए ख को डर था कि ग से उसके रिश्ते के बारे में कहीं घ से पति को पता न चल जाए।
एक दिन हर रोज की भांति ख अपने प्रेमी ग से मिलने उसके गांव गई। वह अपने गांव के लिए वापस आने ही वाली थी कि जोर से बारिश शुरू हो गई। बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी जबकि शाम ढ़ल रही थी। वह वापस जाने के लिए भागी। अब तक पुल पर पागल पहुंच चुका था। पागल ने उसे चेतावनी दी कि यदि उसने पुल पार करने की कोशिश की तो वह उसे मार देगा। ख घाट पर पहुंची। घाट पर एक नाविक था। ख ने नाविक से विनती की वह उसे नदी पार करा दे। नाविक ने कहा कि वह पैसे लिए बगैर नदी पार नहीं करा सकता। फिर ख मदद के लिए अपनी सहेली घ के पास गई। घ ने मदद देने से इंकार कर दिया क्योंकि वह उसके प्रेम प्रसंग के विरुद्ध थी। ख वापस अपने प्रेमी ग के पास पहुंची। उसने उसे सारी स्थिति बताई और उसे रात भर वहीं रुकने देने का आग्रह किया। प्रेमी ने यह कह कर मना कर दिया कि उसे हर हालत में अपने पति के पास जाना चाहिए क्योंकि वह बहुत परेशान होगा। दिक्कत यह थी कि प्रेमी के पास पैसे ही नहीं थे कि वह नाव से जाने के लिए ख को दे देता।
हर तरफ से निराश हो कर ख ने किसी भी तरह पुल पार करने की ठान ली। वह पुल पर पहुंची, तो पागल ने उसे फिर से पुल पार नहीं करने की चेतावनी दी। ख नहीं मानी। उसने पागल को चकमा देकर निकलने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही। पागल ने एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर दे मारा और ख वहीं ढ़ेर हो गई।
यह कहानी सुनाकर ख की मौत के लिए जिम्मेदार शख्स को चुनने के विकल्प प्रतिभागियों को दिए जाते हैं: (1) खुद महिला ख, (2) उसका पति क, (3) प्रेमी ग, (4) सहेली घ, (5) नाविक, या (6) पागल। इस परिदृश्य के साथ हम बरेली की घटना की तुलना करें, तो पाते हैं कि कहानी में महिला की मौत इसलिए हुई क्योंकि उसे किसी ने अपने घर तक जाने का रास्ता ही नहीं बताया जबकि घटना में गूगल मैप लगातार रास्ता बताता रहा। कहानी की पात्र मजबूरी में पुल पर गई जहां मौत उसका इंतजार कर रही थी, जबकि घटना के पात्र जानते-बूझते मौत के पुल तक गए। कहानी और घटना के बीच एक मार्गदर्शक का बुनियादी अंतर है।
हम नहीं जानते कि बरेली में रामगंगा पार कर रहे लोगों को किसी व्यक्ति ने रास्ते में बताया था या नहीं कि आगे नहीं जाना है। बहुत संभावना यह है कि उन्होंने किसी से पूछा ही न हो। नैविगेशन इस्तेमाल करने वालों का अनुभव यही बताता है कि जब तक गूगल मैप हमें भुलवाता नहीं, हम खिड़की का कांच नीचे नहीं करते। यानी, मारे गए तीनों व्यक्तियों के सफर में जो कोई राहगीर मार्गदर्शक बनने की वास्तविक संभावना रखता था, उनकी जगह गूगल मैप नाम के ऐप ने ले ली और गलत रास्ता बता दिया। बेशक यह हो सकता है पूछने पर कोई सही रास्ता बताता या गलत, लेकिन बताता तो जरूर। गूगल मैप ने इस मानवीय मुठभेड़ की संभावना को ही खत्म कर दिया।
इस सच्ची घटना के मुकाबले कार्यशालाओं में तार्किकता के अभ्यास के लिए सुनाई जाने वाली एक नकली कहानी कहीं ज्यादा वास्तविक बन बैठी है, जहां संकट में फंसा किरदार अपने जानने वालों (सहेली, प्रेमी) और अनजान (नाविक) दोनों से ही मदद मांग रहा है। कहानी में मानवीय मुठभेड़ होती है और हर किरदार अपने-अपने कारण से अपना-अपना फैसला लेता है, भले उनके किए या अनकिए का अंतिम अंजाम वही होता है जो तीन लड़कों के साथ हुआ।
अब एक सवाल: किसी आसन्न संकट से एक मनुष्य को चेताने या उसे रास्ता बताने वाले सहजात मनुष्य की संभावना किसने खत्म की? यानी, किसने इतने ढेर सारे मनुष्यों और उनके सामूहिक विवेक से बनने वाली संभावनाओं को महज एक ऐप से बदल डाला? इस सवाल को पलट कर ऐसे भी पूछ सकते हैं कि जब भारत नाम का यह गणतंत्र पैदा हुआ था, तब करोड़ों लोगों की सामूहिक नियति की जिम्मेदारी किसे सौंपी गई थी? भटके हुए लोगों का मार्गदर्शक किसे माना गया था? आसन्न खतरों से हमें चेताने का नैतिक दायित्व किसे सौंपा गया था?
गूगल मैप को? नहीं। पीडब्लूडी के इंजीनियर को? कतई नहीं। यह जिम्मेदारी राज्य की थी, ‘स्टेट’ की। संविधान के चौथे अध्याय में एक शीर्षक के तहत यह सब दर्ज है। इसे ‘राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत’ कहा जाता है। ये सिद्धांत सरकारों को दिशानिर्देश या आदर्श बताते हैं। इन सिद्धांतों का मकसद सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को कायम रखना होता है। ये सिद्धांत राज्य के अधिकारियों पर नैतिक दायित्व डालते हैं। चूंकि वे दायित्व नैतिक हैं, इसलिए इन सिद्धांतों का उल्लंघन करने पर अदालतें कार्रवाई नहीं कर सकती हैं। यह हमारे संविधान निर्माताओं की सदिच्छा थी कि वे मनुष्य के नैतिक कर्तृत्व पर भरोसा रखते थे, लेकिन राज्य चलाने वालों के लिए यही बात सुविधा बन गई।
इस सुविधा के सहारे बीते पचहत्तर वर्षों में राज्य ने किया क्या? सवा अरब से ज्यादा लोगों को रास्ता दिखाने का दायित्व सवा दो ट्रिलियन डॉलर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को सौंप दिया जबकि चेतावनी देने वाला लकड़ी का एक फट्टा तक पुल पर लगाने की नैतिक जिम्मेदारी से खुद को बरी कर लिया।
काल्पनिक कथा के अभ्यास वाला सवाल तो यहां भी बनता है- मौतों का जिम्मेदार कौन? विडम्बना देखिए, कि मुजरिमों की संभावित सूची में कहानी के मूर्त किरदारों (क, ख, ग, घ, आदि) के मुकाबले वास्तविकता (स्टेट) कहीं ज्यादा काल्पनिक लगती है। दूसरी विडम्बना यह है कि अगम, अगोचर स्टेट ने गूगल मैप के ‘अज्ञात’ के खिलाफ मुकदमा किया हुआ है। यानी, सब हवा में चल रहा है। क्या इसीलिए हर मौत के बाद किरदार खोजे जाते हैं, जिम्मेदार नहीं? क्या इसीलिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में होने वाली हर मौत एक कहानी बन जाती है?
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