20 मई 1991 को तीन राष्ट्रीय दलों के अध्यक्ष— श्री चंद्रशेखर, श्री मुरली मनोहर जोशी और श्री राजीव गांधी — चुनाव प्रचार के लिए भुवनेश्वर में मौजूद थे और तीन अलग-अलग स्थानों पर जनसभाएं की थीं। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जहाँ राजभवन में ठहरे थे, वहीं श्री जोशी और श्री गांधी को वीआईपी गेस्ट हाउस में ठहराया गया था।
21 मई की सुबह राजीव गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस की। उनका मूड खुशनुमा था, चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था। उन्होंने पंजाब और अयोध्या के मुद्दों पर बात की और कहा, 'कुछ ही दिनों की तो बात है। हम वापस आ रहे हैं, और सरकार बनते ही ये मुद्दे हल हो जाएंगे।'
प्रेस कांफ्रेंस के बाद वे विशाखापट्टनम के लिए रवाना हुए। एक दिन पहले ही उन्होंने दिल्ली में वोट डालने के बाद उसी निजी विमान को खुद उड़ाकर भुवनेश्वर लाया था। आंध्र प्रदेश में चुनावी रैलियां करने के बाद उसी शाम वे चेन्नई (तब मद्रास) पहुँचे।
थोड़ी देर बाद एक फोन कॉल आया — 'राजीव गांधी की मद्रास में बम विस्फोट में मौत हो गई है।'
मैं उस वक्त लुंगी में ही था। झटपट भागते हुए, अपने घर — 25ए, स्टेशन स्क्वायर, मास्टर्स कैंटीन, यूनिट-3 — के पास स्थित टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर पहुँचा। दफ्तर के चौकीदार और चपरासी माधव को नींद से जगाकर टेलीप्रिंटर रूम का दरवाजा खुलवाया।
मैं सीधे टेलेक्स मशीन पर गया और दिनभर की सारी घटनाएं याद करते हुए टाइप करना शुरू किया। मुझे याद आया कि 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी भुवनेश्वर में 30 अक्टूबर को एक भविष्यवाणी जैसी बात कही थी —'मेरे खून का एक-एक कतरा इस देश के काम आएगा' और ठीक दो दिन बाद उनकी हत्या कर दी गई थी।
यहां तक कि उनके पिता पं. जवाहरलाल नेहरू को भी 1964 में भुवनेश्वर में ही दिल का दौरा पड़ा था। कुछ ही दिनों बाद, 27 मई को उनका निधन हुआ। अब राजीव गांधी ने भी अपनी आखिरी सुबह भुवनेश्वर में ही देखी थी।
अगले दिन टाइम्स ऑफ इंडिया के सभी संस्करणों में मेरी यह खबर पहले पन्ने पर छपी — 'भुवनेश्वर — नेहरू-गांधी परिवार के लिए मनहूस शहर'