राज की बातः आपातकाल- जब नेताओं को चिड़ियों और जानवरों की आवाज निकालनी पड़ती थी

आपातकाल आज से पचास साल पहले लगाया गया था—26 जून 1975 की सुबह। उस दौर में न सिर्फ विपक्षी नेताओं को जेल भेजा गया, बल्कि गुप्त बैठकों के लिए उन्हें जानवरों और पक्षियों की आवाजें निकालकर अपनी पहचान बतानी पड़ती थी। यह लोकतंत्र के इतिहास का सबसे भयावह अध्याय था।

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26 जून 1975 की सुबह, ऑल इंडिया रेडियो पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्र को सूचित किया- 'राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा कर दी है' और उन्होंने आश्वस्त किया- 'घबराने की कोई जरूरत नहीं है।' उस समय मैं 'द सर्चलाइट' में कार्यरत था। ड्यूटी सुबह की थी- 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक।

यकीन मानिए, बिहार में इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) के प्रमुख, जो अक्सर आंदोलन के दौरान जेपी और संघर्ष समिति की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्तियाँ या हस्ताक्षरित बयान इकट्ठा करने हमारे समाचार कक्ष आया करते थे, उन्हें उस दिन सुबह तक आपातकाल लागू होने की कोई जानकारी नहीं थी।

वे संपादन कक्ष और रिपोर्टिंग टीम के कई साथियों के अच्छे मित्र थे। जब सुबह की पारी संभाल रहे मुख्य उपसंपादक ने उनसे कहा—"अब आपको पुराने प्रेस रिलीज़ नहीं मिलेंगे," तो उन्हें यह बात रास नहीं आई। लेकिन जब उन्हें बताया गया कि आपातकाल लागू हो चुका है और अब कोई नेता प्रेस में आने की हिम्मत नहीं करेगा, तो उन्होंने तुरंत और विस्तार से जानकारी मांगी और चाय का प्रस्ताव ठुकराकर सीधे अपनी विली जीप में बैठकर रवाना हो गए।

उस समय पटना में कोई बड़ा होटल या अतिथिशाला नहीं था। गैर-कांग्रेस के विधायकों ने सदन से इस्तीफा दे दिया था। उनके सरकारी आवास भी नहीं थे, जहां विपक्षी दलों के लोग बैठक कर सकें।

अभी का बेली रोड भी सुनसान रहता था। शेखपुरा मोहल्ला के बाद कोई बस्ती नहीं थी। तब स्वर्गीय मुंदर शाह का विशाल कोल्ड स्टोरेज, जिसमें आर्य निकेतन था, विपक्ष के लोग गुप्त बैठक करते थे। इनके पुत्र, जो बाद में सिक्किम के राज्यपाल बने, गंगा प्रसाद ने प्याज के गोदाम को बैठकों के लिए चुना था। राजेंद्र सिंह रज्जू भैया, भाऊ साहेब देवरस, गोविंदाचार्य, कैलाशपति मिश्र सभी इसी प्याज के कोल्ड स्टोरेज में मिलते थे।

उस विशाल आवास के बाहर पुलिस के गुप्तचर रहते थे। उनकी नजरों से बचने के लिए प्रवेश द्वार पर आर्य निकेतन के कर्मियों को भी कोड दिए गए थे। इन नेताओं को विभिन्न जानवरों या चिड़ियों की आवाज निकालनी पड़ती थी, कोल्ड स्टोरेज को अपनी पहचान के लिए।

पटना जंक्शन पर एक चाय के दुकानदार की जिम्मेदारी होती थी जनसंघ के बड़े नेताओं को पहचानने की, और उन्हें रामायण के पात्रों का कोड नाम दिया गया था। स्टेशन से वे राजवंशी नगर के पास रिक्शे से उतरकर एक अन्य चाय वाले के पास चाय पीते और वहां महाभारत के पात्रों के नाम से नई पहचान होती। और गंगा बाबू के कोल्ड स्टोरेज के गेट पर चिड़िया या जानवर की आवाज से पहचान होती थी।

कैलाशपति मिश्र, जो बाद में गुजरात के राज्यपाल बने, को सिर्फ "ताऊ जी" कहा जाता था। उस समय खाना बनाने के लिए लकड़ी और उपले का उपयोग होता था, गैस सिलेंडर नहीं था। एक कुएं से पानी निकालकर लोग स्नान करते थे। गंगा बाबू की धर्मपत्नी कमला देवी ही सभी के लिए भोजन बनाती थीं क्योंकि अन्य सेवकों को हटा दिया गया था और घर का मालिक भी गिरफ्तार किया जा चुका था।

सोशलिस्ट पार्टी के कई बड़े नेता और छात्र आंदोलन के नेता पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जूनियर डॉक्टर्स के क्वार्टर्स जो कैदी वार्ड में बदल दिए गए थे, इलाज के बहाने भर्ती हुए थे, जिनमें लालू प्रसाद भी थे। बाकी बांकीपुर और फुलवारी जेल में रहे।

गौतम सागर राणा जो हजारीबाग में गिरफ्तार हुए, उन्हें जेल भेजने से पहले उपायुक्त आवास ले जाया गया क्योंकि जिले के उच्च अधिकारियों की पत्नियां उन्हें देखना चाहती थीं। जहां तक प्रेस पर अंकुश का सवाल था, यहां दिल्ली जैसा किसी अखबार की बिजली नहीं काटी गई।

प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) तो बस सर्चलाइट अखबार के बगल में ही था—पेट्रोल पंप के पीछे। वहां यदुनाथ सिन्हा प्रभारी थे—वरिष्ठ रिपोर्टरों और उपसंपादकों के मित्र, और सूर्यास्त के बाद हमेशा सौम्य मेज़बान। कुछ समय तक गृह विभाग के एक संयुक्त सचिव को सेंसर अधिकारी बनाया गया। उन्होंने “अल्प ज्ञान, घातक होता है” को बखूबी चरितार्थ किया।

एक दिन संपादक एस.आर. राव ने अपनी संपादकीय में सब्ज़ियों की बढ़ती कीमतों का जिक्र किया—जो मंजूर नहीं हुआ। नतीजतन, अगली सुबह अखबार का संपादकीय रिक्त छपा। बाद में पीआईबी अधिकारी यदुनाथ सिन्हा ने सेंसर अधिकारी की जिम्मेदारी संभाली। चूंकि वे स्वयं एक पत्रकार रह चुके थे, उन्हें खबरों और विचारों की समझ थी। इसके बाद रिपोर्टरों, संपादन कक्ष और सेंसर अधिकारी के बीच सहयोग बेहतर हुआ, और एक-दूसरे के प्रति सम्मान भी बढ़ा। डीपीआर/पीआईबी की विज्ञप्तियों को अखबार में ज्यादा स्थान मिलने लगा।

मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र, जो स्वयं भी एक पत्रकार रह चुके थे, कठोर नहीं थे। क्योंकि उनके पूर्ववर्ती अब्दुल गफूर, जो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से पीड़ित थे, ने द सर्चलाइट को “झूठी और गढ़ी हुई खबरें छापने” के आरोप में डीलिस्ट कर दिया था। उन्होंने आदेश में कहा- "The Searchlight is bent upon publishing false and concocted stories. It should be delisted at once and the order should be implemented effectively"। डॉ. मिश्र इस मोर्चे पर अधिक सतर्क थे और सरकारी विज्ञापन जारी रखा।

पूरे 21 महीनों के आपातकाल में किसी भी पत्रकार को गिरफ्तार नहीं किया गया—सिर्फ पाँच लोग मीसा (MISA) के तहत नजरबंद हुए। कर्पूरी ठाकुर तो अंडरग्राउंड ही रहे और आपातकाल खत्म होने की घोषणा के बाद गांधी मैदान में जेपी की मीटिंग में ही उपस्थित हुए।

संपादक एस.आर. राव ने अपने प्रतिभाशाली पूर्ववर्तियों—मुरली बाबू, एम.एस.एम. शर्मा, के. रामाराव, टी.जे.एस. जॉर्ज, और सुभाष सरकार—द्वारा स्थापित उच्च मानकों को बनाए रखा और कभी समझौता नहीं किया। यही कारण था कि वाजपेयी, राजमाता सिंधिया, कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता द सर्चलाइट आकर उनसे राजनीतिक मुद्दों पर सलाह लिया करते थे।

और जब 21 महीने के आपातकाल के बाद मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के आवास पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, तो इंदिरा गांधी ने कहा— "क्या आपको लगता है, ये लोग आपातकाल संभाल पाएंगे?" (Do you think, they will handle emergency?) उनका यह कथन जनता पार्टी शासन के दौरान बढ़ती महंगाई, ग्रामीण अशांति और हिंसा के संदर्भ में था। उनके अनुसार, आपातकाल ही अराजकता पर काबू पाने का उपाय था।

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