इस चढ़ते वसंत में पूरा देश एक ही सवाल पर सोच रहा है- कुम्भ में हुई भगदड़ और मौतों का जिम्मेदार कौन? अलग-अलग हलकों में जिम्मेदारियां गिनाई जा रही हैं, जिम्मेदार चेहरे दिखाए जा रहे हैं। जितने मुंह उतनी बातें, गोया प्राचीन बौद्ध कथा के हाथी और अंधों की कहानी हो कि जिसके हाथ जो अंग आया उसने वैसी परिभाषा दी।
शत्रुओं की खोज अकसर इतनी आसान नहीं होती। खासकर, जब ऐसे अपरिचित क्षेत्रों में हादसे घटें जहां किसी की सीधी मंशा उजागर न होती हो और जवाबदेही सामूहिक दिखती हो। ऐसे मामलों में पत्रकार हमेशा ही नाकाम हो जाते हैं, चाहे कितने ही तीक्ष्ण क्यों न हों। अव्वल तो उनसे अपेक्षा होती है कि वे सच न बोलें, तो अपेक्षा पर खरा उतरना ही उनके धंधे का सूत्र बन जाता है। दूसरे, उनकी ट्रेनिंग ऐसी होती है कि हाथी का पहला अंग जो पकड़ में आ जाए उसे ही वे सच मान लेते हैं।
इस मामले में एक कवि किसी भी पत्रकार से कोसों आगे होता है। उसे सही-सही जवाब भले पता नहीं होता, लेकिन एक आभास जरूर होता है क्योंकि वो सतह के पार गोता मारने की कल्पनाशीलता को बचाए रखता है। कवि के आभास में यदि इतिहासबोध भी शामिल हो, तो उससे उम्दा पत्रकार मिलना मुश्किल है। इस बात को कहने का मतलब क्या है?
समझने के लिए उदाहरण के तौर पर कुम्भ की भगदड़ के दौरान देश में घटी ऐसी दो घटनाएं लेते हैं जिनकी चर्चा मीडिया में नहीं हुई या कह सकते हैं कवरेज और चर्चा का बायस वे नहीं बनी क्योंकि हिंसा जितनी प्रत्यक्ष हो, उतनी चर्चित भी होती है। अदृश्य या कम दृश्य हिंसाओं में पत्रकारों की दिलचस्पी नहीं होती। दोनों घटनाएं दिल्ली की सरहदों पर हुई हैं और जारी हैं।
मारुति सुजुकी का मजदूर आंदोलन
गुडगांव में 29 जनवरी को बैठक के लिए इकट्ठा हुए मारुति सुजुकी के मजदूरों के ऊपर लगातार तीन दिन तक पुलिस का दमन चला। 31 जनवरी की शाम तक सैकड़ों मजदूर गायब थे या हिरासत में थे। बीती 10 जनवरी को गुड़गांव में श्रम विभाग के सामने मारुति के वर्तमान और पूर्व अस्थायी कर्मचारियों की एक विशाल सभा हुई थी जिसमें ‘मानेसर चलो’ का आह्वान किया गया था। उस दिन मज़दूरों ने प्रबंधन और श्रम विभाग को एक मांग पत्र सौंपा था, जिस पर मारुति सुजुकी अस्थाई मजदूर संघ (MSAMS) की ओर से चार हजार से ज्यादा कर्मचारियों ने दस्तखत किए थे। इस प्रदर्शन के माध्यम से कर्मचारियों को छोटी अवधि के लिए काम पर रखने, कंपनी की ‘हायर एंड फायर’ की प्रणाली को चुनौती दी जानी थी।
मारुति सुजुकी अस्थाई मजदूर संघ की स्थापना बीती 5 जनवरी को गुड़गांव में श्रमिकों की एक सामूहिक बैठक में की गई थी, जो वर्तमान आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है। जिन्हें याद नहीं, उनके लिए यह जानकारी जरूरी है कि मौजूदा आंदोलन दरअसल 2011 के आंदोलन का विस्तार है। मारुति सुज़ुकी, मानेसर के मज़दूरों ने 2011 में अपनी यूनियन बनाने के लिए आंदोलन शुरू किया था। साल भर आंदोलन करने के बाद 1 मार्च, 2012 को मज़दूर अपनी एक स्वतंत्र यूनियन बनाने में सफल भी हुए थे, लेकिन उसी साल 18 जुलाई को हिंसा भड़कने के साथ प्रबंधन ने इसे कुचलने की कोशिश की और हिंसा के बहाने बिना किसी जांच के 1800 ठेका मजदूरों और 546 स्थाई मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया। उस वक्त 147 मज़दूरों को जेल में डाल दिया गया था, जिनमें से 31 को अंतत: दोषी ठहराया गया। 117 को पांच साल की जेल के बाद बरी कर दिया गया जबकि यूनियन बॉडी के 13 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।
मारुति सुजुकी के मजदूरों का आंदोलन पिछले कुछ दशकों के दौरान देश का सबसे जुझारू, लंबा और महत्वपूर्ण ट्रेड यूनियन संघर्ष रहा है। जब यह आंदोलन शुरू हुआ था और मजदूरों को जेल हुई, तब भी मीडिया कवरेज की स्थिति कमोबेश वही थी जो आज है। उसकी एक ठोस वजह है। मजदूरों के दुश्मन यानी कंपनी के विदेशी प्रबंधन (सुजुकी) को लेकर दशकों से भारतीय मानस में एक सुनियोजित धारणा बैठा दी गई है। जैसे, जापानी बहुत मेहनती होते हैं, उद्यमी होते हैं, वहां की कार्य संस्कृति बहुत जबरदस्त है, इत्यादि। जिन्हें इस मसले में दिलचस्पी है, उन्हें नंदिता हक्सर और अंजलि देशपांडे की लिखी किताब ‘’जापानी मैनेजमेंट, इंडियन रेजिस्टेंस’’ पढ़नी चाहिए।
दशकों के दौरान एक विदेशी कंपनी की कार्य संस्कृति के प्रति बैठाई गई सकारात्मक धारणा ने उसे गैर-श्रमिक मध्यवर्ग से लेकर प्रशासन तक स्वीकार्य बना दिया है। इसलिए मारुति सुजुकी के मजदूर जब कंपनी के विदेशी प्रबंधन के खिलाफ लगातार चौदह साल संघर्ष करते हैं, तो वे खबर नहीं बनते। यहां एक पत्रकार साफ-साफ जानता है कि मजदूरों का दुश्मन मालिक है, प्रबंधन है, लेकिन वह सच नहीं बोलता क्योंकि उससे व्यवस्था और जनधारणा यह अपेक्षा ही नहीं करती- बहुत कुछ वैसे ही जैसे रतन टाटा के निधन पर किसी ने भी जमशेदपुर में आदिवासियों के सफाये और टाटा कंपनी के जुल्मों पर एक शब्द नहीं लिखा, बोला।
यानी, मारुति सुजुकी के मजदूर संघर्ष में मजदूरों के दुश्मन की पहचान तो स्पष्ट है, लेकिन आर्थिक उत्पादन के क्षेत्र में निजी पूंजी नाम का दुश्मन अब स्वीकार्य हो चुका है। इसकी स्वीकार्यता को अब तीन दशक हो रहे हैं। अब दूसरे उदाहरण पर आते हैं।
किसान आंदोलन का दूसरा चरण
बहुत से लोगों को खनौरी और शम्भू बॉर्डर पर चल रहे किसानों के आंदोलन का ताजा संदर्भ समझ में नहीं आ रहा, जिसका एक बरस आगामी 13 फरवरी को पूरा होने वाला है। कुम्भ में भगदड़ की हाहाकार के बीच शम्भू बॉर्डर पर परगट सिंह नाम का एक और किसान दो दिन पहले शहीद हो गया, लेकिन चर्चा का विषय नहीं बना। करीब सत्तर दिन से अनशनरत जगजीत सिंह दल्लेवाल की प्रोफाइलें एकाध जगह बेशक छपी हैं, लेकिन आंदोलन का ताजा संदर्भ वहां भी गायब है।
साल भर चले आंदोलन के दबाव में तीन नए कृषि कानूनों के ताखे पर धर दिए जाने के बाद बीते साल नवंबर में सरकार ने ‘’नेशनल पॉलिसी फेमवर्क ऑन ऐग्रिकल्चरल मार्केटिंग’’ का मसौदा सुझावों के लिए सार्वजनिक किया था। इस मसौदे के अनुसार देश में कृषि उत्पादों के लिए एक आदर्श मार्केटिंग आर्किटेक्चर बनाया जाना है जो चार स्तरों पर होगा। मसौदा दस्तावेज के आठवें पन्ने पर एक पिरामिड से चार स्तर दिखाए गए हैं। सबसे नीचे एफपीओ और ठेका खेती है; उसके ऊपर प्राथमिक मंडियों का फिजिकल और वर्चुअल निजी बाजार; फिर द्वितीयक मंडियों का फिजिकल और वर्चुअल निजी बाजार; सबसे ऊपर निर्यात बाजार। नीचे के तीनों विपणन स्तर गोदाम आधारित बिक्री वाले हैं और गोदामों का निजीकरण प्रस्तावित है।
इस मसौदे के सोलहवें पन्ने पर एक तालिका है। इसमें कृषि सुधारों के अलग-अलग क्षेत्र, उन्हें अपनाने वाले राज्यों की सूची और इसके संबंध में नियमों को अधिसूचित करने वाले राज्यों की सूची दी गई है। ध्यान से देखने पर समझ आता है कि गिनवाए गए कुल 12 सुधारों को सभी राज्यों ने बराबर लागू नहीं किया है। चूंकि कृषि उत्पदों की मार्केटिंग का मसला राज्य सूची के अंतर्गत आता है, तो जिन राज्यों ने सुधारों को अब तक नहीं अपनाया है वह संभवत: वहां चल रहे किसान आंदोलन के दबाव में होगा या फिर खेती में निजीकरण को लेकर उन राज्यों की नीतियां उतनी खुली नहीं होंगी।
खनौरी और शम्भू बॉर्डर पर धरनारत किसान साल भर से इसी मार्केटिंग मसौदे का विरोध कर रहे हैं। वे इसे संघीयता के खिलाफ बता रहे हैं। उनका कहना है कि तीनों कृषि कानूनों को नए आवरण में कहीं ज्यादा खतरनाक ढंग से इस पॉलिसी फ्रेमवर्क मसौदे के माध्यम से पेश किया गया है।
यानी, किसानों का दुश्मन उनकी निगाह में बिलकुल साफ है- निजी और विदेशी पूंजी- लेकिन आर्थिक उत्पादन के क्षेत्र की तरह अभी खेतीबाड़ी में उसकी स्वीकार्यता उतनी सपाट नहीं है। समाज में अब भी खेतीबाड़ी में निजी पूंजी के दखल पर बहस है। इसीलिए मारुति के मजदूर आंदोलन के मुकाबले पंजाब के किसान आंदोलन को अब भी खबर के लायक कहीं-कहीं समझ लिया जाता है, क्योंकि उसका सही संदर्भ पत्रकारों को समझ में नहीं आता।
संक्षेप में कहें, तो मशीन उत्पादन में दुश्मन स्पष्ट है, लेकिन उसकी स्वीकार्यता चौतरफा कायम हो चुकी है इसलिए सच गायब है। अन्न उत्पादन के क्षेत्र में दुश्मन वही है, स्पष्ट भी, लेकिन जनधारणा और व्यवस्था में उसकी सपाट स्वीकार्यता नहीं बनी है इसलिए सच बोलना अपेक्षाकृत संभव है। दल्लेवाल इसीलिए मीडिया में जिंदा हैं।
कुम्भ में शत्रु
कारखाने से लेकर खेत तक जब हम देख पा रहे हैं कि राज्य अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही को राज्येतर ताकतों के भरोसे छोड़ चुका है, तो कुम्भ जैसा सार्वजनिक मेला इसका अपवाद कैसे हो सकता है? कारखानों और खेतों में निजी पूंजी के दखल का इतिहासबोध क्या हमें कुम्भ जैसे आस्था-उत्पादन के केंद्रों में मानवीय त्रासदी पैदा करने वाले शत्रु की पहचान करने का कोई सूत्र दे सकता है?
दिवंगत कवि मंगलेश डबराल पत्रकार और संपादक भी थे। उनके पास ठोस जवाब नहीं थे, लेकिन एक आभास था जो इतिहासबोध से निर्मित था। ‘’नए युग में शत्रु’’ के बारे में मंगलेश जी लिखते हैं:
“...अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊंची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है
ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें...”
बीते तीन-चार दिनों से यही हो रहा है। सैकड़ों लोगों की मौत और गुमशुदगी के पीछे केवल कारिंदों को दोषी दिखाया-गिनवाया जा रहा है। पत्रकारों को दोषियों के नाम पर कोई डीआइजी, कोई आइजी, कोई मुख्यमंत्री, कोई दरोगा, पकड़ा दिया गया है। पांच निलंबन होंगे, चार इस्तीफे, और अगली बार फिर से आस्था के उत्पादन का प्रबंधन एक विदेशी एजेंसी को आउटसोर्स कर दिया जाएगा (देखें पिछला स्तंभ ‘’अबकी कुम्भ होकर आना क्यों जरूरी है?”)। दुर्भाग्य है कि आस्था के अनुबंध का न तो कोई कागज बनाया जाएगा, न ही इसके लिए कोई पॉलिसी फ्रेमवर्क मसौदा सार्वजनिक किया जाएगा।
इस समूचे प्रसंग में सबसे बड़ी विडम्बना वह आदमी है जो गुड़गांव में अपने कारखाने के विदेशी प्रबंधन का विरोध कर के जब वापस गांव आता है तो वहां खेती के निजीकरण का विरोध करता है, लेकिन जब श्रद्धा के मारे कुम्भ नहाने जाता है तो बिना यह जाने ही भीड़ में दब कर मर जाता है तो कि उसका दुश्मन तो पीछे-पीछे यहां तक चला आया था।
बेरोजगारी का विरोध करते हुए कारखाने में मरना, कृषि के निजीकरण का विरोध करते हुए सड़क पर मरना और डुबकी लगाने की जद्दोजहद में संगम पर मरना, तीनों के पीछे आम आदमी का शत्रु एक ही है, जो ‘’कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता / हमें ललकारता नहीं / हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है / कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है / हम सब एक दूसरे के मित्र हैं / आपसी मतभेद भुलाकर आइए हम एक ही प्याले से पिएं / वसुधैव कुटुंबकम् हमारा विश्वास है / धन्यवाद और शुभरात्रि”।