ग्यारह दिन की माथापच्ची के बाद भाजपा ने तय कर दिया कि दिल्ली का मुख्यमंत्री कौन बनेगा। शालीमार बाग से पहली बार विधायक चुनी गईं रेखा गुप्ता दिल्ली की नई मुख्यमंत्री बन गई हैं। 27 साल से दिल्ली में बीजेपी के लिए राजपाट का सूखा इसके साथ ही खत्म हो गया। इत्तफाक देखिए कि 1998 में जब बीजेपी के हाथों से राजपाट गया था, तब भी एक महिला मुख्यमंत्री थीं सुषमा स्वराज। 27 साल बाद जनादेश मिला तो बीजेपी ने एक महिला विधायक को ही मुख्यमंत्री बनाया है। नाम है रेखा गुप्ता। इस फैसले के पीछे राजनीति का रेखा गणित चाहे तो भी जो, लेकिन बीजेपी क्यों दूसरी पार्टियों से अलग है, इसको साफ साफ दिखा दिया।
1990 के दशक की शुरुआत में जब समाजवादियों का खेमा बिखर गया। जनता दल अलग अलग पार्टियों में बंट गया जो वंशवाद की बुनियाद बन रही थीं। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, जनता दल सेकुलर, लोक जनशक्ति पार्टी...बड़ी लंबी फेहरिस्त है। उस वक्त कांग्रेस के सामने एक पार्टी बहुत तेजी से उभरी थी। वो वाजपेयी आडवाणी का काल खंड था जब बीजेपी की टैगलाइन थी- पार्टी विद डिफरेंस। यानी दूसरों से अलग एक पार्टी। तब बीजेपी के दूसरों से अलग पार्टी होने के पीछे क्या तर्क था, पहले उसको समझिए।
- बीजेपी तुष्टीकरण की राजनीति नहीं करती।
- बीजेपी अपने तीन मुद्दों को लेकर बेहद स्पष्ट है- अयोध्या में राम मंदिर, जम्मू और कश्मीर से 370 का खात्मा और समान नागरिक संहिता।
-बीजेपी के बड़े नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या दूसरे संबद्ध संगठनों से निकलते हैं, जो कठोर अनुशासन में अपने स्वयंसेवकों को ट्रेनिंग देता है।
- और इन सबसे बड़ी बात ये थी कि बीजेपी वंशवाद का विरोधी है।
वंशवाद के उसी विरोध के सैद्धांतिक पहलू ने बीजेपी में ऐसे ऐसे नेताओं को बड़े पदों पर आसीन करवा दिया, जो दूसरे दलों में रहते तो नेपथ्य के शून्य में विलीन हो जाते। आप मध्य प्रदेश में देखिए। कांग्रेस ने कमलनाथ का नाम आगे रखा था। लेकिन बीजेपी ने उनके बरक्श मोहन यादव जैसे अनाम से चेहरे को आगे कर दिया।
मोहन यादव प्रतिभाशाली हैं, संगठन में कुशल हैं, प्रशासन का हुनर जानते हैं, इसे किसी को पता नहीं था लेकिन बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने इसको अच्छी तरह भांप लिया था। पिछले सवा साल में देखिए तो मोहन यादव ने अपनी योग्यता और प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन किया है। उसी तरह राजस्थान में भजनलाल शर्मा, छत्तीसगढ़ में मोहनदेव साय, हरियाणा में नायब सिंह सैनी, उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ या ओडिशा में मोहन चरण मांझी हों, इनमें से किसी को राजनीति विरासत में नहीं मिली थी। बल्कि इनके संघर्ष और बीजेपी से वैचारिक जुड़ाव ने इनको अपने अपने राज्यों में सत्ता के शिखर पर पहुंचा दिया।
दिल्ली में भी वही हुआ। यहां मीडिया की सुर्खियां तो प्रवेश वर्मा बने हुए थे। प्रवेश वर्मा एक योग्य नेता हैं। युवा हैं। आक्रामक हैं। लोगों से जुड़ना जानते हैं। संघर्ष करने का दमखम है। और सबसे बड़ी बात ये है कि इस चुनाव में सबसे बड़े जाइंट किलर की तरह उभरे। जिस अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की राजनीति के सारे व्याकरण बदल दिए थे। जिस केजरीवाल ने नई दिल्ली सीट पर पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री रहने वाले शीला दीक्षित को बुरी तरह हरा दिया था, जिस केजरीवाल ने 2015 में बीजेपी को तीन पर और 2020 में 8 सीटों पर समेट दिया था, उस केजरीवाल के खिलाफ नई दिल्ली सीट पर चुनाव लड़ना आसान नहीं था। लेकिन एक दिन अचानक पता चला कि प्रवेश वर्मा नई दिल्ली से बीजेपी के उम्मीदवार होंगे।
जब प्रवेश वर्मा के नाम का एलान हुआ तो उस दिन सबको यही लगता था कि प्रवेश वर्मा कड़ी टक्कर दे सकते हैं लेकिन केजरीवाल को हराना आसान नहीं होगा। लेकिन इन मुश्किल लड़ाई को प्रवेश वर्मा ने जीत में बदल दिया। केजरीवाल हार गए। इसके बाद ये चर्चा होने लगी कि क्या दिल्ली के अगले मुख्यमंत्री प्रवेश वर्मा होंगे। लेकिन प्रवेश वर्मा मुख्यमंत्री नहीं बने।
यहां बहुत संभव है कि प्रवेश वर्मा की पारिवारिक पृष्ठभूमि आड़े आ गई हो। प्रवेश वर्मा के पिता साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के बड़े धाकड़ और ताकतवर किंतु विनम्र नेता थे। वो 1996 से 1998 के बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे थे। अब इसी दिल्ली में मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री बने तो बीजेपी किस मुंह से कहती कि वो पार्टी विद डिफरेंस है। वो दूसरों से अलग है। लेकिन रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने ये संदेश दे दिया है कि किसी नेता का बेटा बीजेपी में नेता बन सकता है। लेकिन वो अपने पिता की राजनीति का मुकम्मल वारिस नहीं हो सकता है। बीजेपी ये संदेश नहीं देना चाहती कि दिल्ली बीजेपी में कभी पिता मुख्यमंत्री बने तो अब बेटे की बारी आएगी। और इस फलसफे को लोकसभा में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विस्तार से बता चुके हैं।
जब कांग्रेस से लेकर दूसरी तमाम क्षेत्रीय दलों के वंशवादी प्रवृति और राजनीति पर पीएम मोदी ने प्रहार किया तो विपक्ष की तरफ से सवाल उछला कि राजनाथ सिंह के बेटे भी तो राजनीति में हैं और अमित शाह के बेटे भी तो बीसीसीआई में बड़े ओहदे पर हैं। तब बगैर विचलित हुए पीएम मोदी ने राजनाथ सिंह और अमित शाह का नाम लेकर इस सवाल पर विपक्ष को जवाब दिया था। परिवारवादी पर पीएम मोदी ने संसद में कहा था,
“अगर किसी परिवार में अपने बलबूते पर एक से अधिक, अनेक लोग अगर राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति करते हैं तो उसको हमने कभी परिवारवादी नहीं कहा है। हम परिवारवादी उसे कहते हैं जिसमें पार्टी परिवार चलाता है, जो पार्टी परिवार के लोगों को प्राथमिकता देती है, पार्टी के सारे निर्णय परिवार के लोग करते हैं। न राजनाथ जी की कोई पोलिटिकल पार्टी है, न अमित शाह की पोलिटिकल पार्टी है।”
दूसरी तरफ रेखा गुप्ता की बैकग्राउंड अगर आप देखें तो पाएंगे कि वहां राजनीति में कोई गांव का प्रधान भी नहीं रहा। रेखा गुप्ता के पिता बैंक ऑफ इंडिया में मैनेजर थे। 50 साल की रेखा गुप्ता ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी। वो सिर्फ 18 साल की थीं जब एबीवीपी में शामिल हो गई थीं। एबीवीपी के बैनर तले वो दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ का अध्यक्ष भी बनीं। 2007 में पीतमपुरा उत्तर से पार्षद बनीं। उसके बाद दिल्ली बीजेपी महिला मोर्चा की महासचिव भी रहीं। 2004 से 2006 के बीच भारतीय जनता पार्टी के युवा मोर्चा की राष्ट्रीय सचिव भी रहीं। रीता गुप्ता 2020 के दिल्ली विधान सभा चुनाव में शालिमार बाग सीट से चुनाव लड़ी थीं लेकिन कुछ वोटों के अंतर से हार गई थीं।
पहले एबीवीपी और फिर बीजेपी से जुड़कर राजनीति में उतरने वाली रेखा गुप्ता को जो कुछ मिला, अपने संघर्ष और कौशल से मिला। उनका जन्म 19 जुलाई 1974 को हरियाणा के जींद जिले के जुलाना में हुआ था। छात्र राजनीति से सार्वजनिक राजनीति में आने के क्रम में ही 1998 में उनका विवाह दिल्ली के कारोबारी मनीष गुप्ता से हो गया। रेखा गुप्ता के दो बच्चे हैं। आप देखिए तो बिल्कुल सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार की तरह। लेकिन बचपन में ही वो आरएसएस से जुड़ गई थीं। वो जुड़ाव और उनका समर्पण आरएएस को याद रहा। खबर यही है कि आरएसएस की तरफ से हरी झंडी मिलने के बाद बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने रेखा गुप्ता के नाम पर अपनी मुहर लगा दी।
ऐसा नहीं है कि बीजेपी सिर्फ दूसरों से हटकर राजनीति करती है तो राजनीति की बारीकियों को नजरअंदाज कर देती है। किसी नेता को कमान देने के वक्त वो उससे होने वाले राजनीतिक नफा नुकसान को अच्छे से ठोक बजाकर देख लेती है। रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाकर भी बीजेपी ने दिल्ली की उसी राजनीति को साधा है। ये सही है कि बीजेपी ने शानदार जीत हासिल की है। उसने 48 सीटें जीत ली और आम आदमी पार्टी को 22 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा जबकि पिछले चुनाव में आप ने 62 सीटें जीती थी। यानी चालीस सीटों का नुकसान। लेकिन वोट के हिसाब से देखें तो बीजेपी को जहां 47.15 फीसदी वोट मिले तो वही आप को 43.57 फीसदी वोट। यानी वोटों का फासला तो 3.58 फीसदी का ही रहा। यानी आम आदमी पार्टी लोगों की नजरों से उतर गई हो, ऐसा नहीं दिखता। इसीलिए 27 साल बाद मिली जीत का जश्न भले ही आसमान तक शोर कर रहा हो लेकिन बीजेपी ने अपने पैर जमीन पर मजबूती से जमाए रखा है। इसीलिए मुख्यमंत्री का चुनाव करते समय उन समीकरणों को भी साधा, जो आम आदमी पार्टी के गणित को ध्वस्त कर दे। बीजेपी का रेखा गणित उसके काम आ सकता है। कैसे, अब आप इसको समझिए।
आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल वैश्य समुदाय से आते हैं। बीजेपी ने जवाब में वैश्य समुदाय से ही आने वाली रेखा गुप्ता को कमान सौंप दी। केजरीवाल ने जब मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ी तो आतिशी को मुख्यमंत्री बनाया। बीजेपी ने रेखा के रूप में एक महिला को ही बागडोर दे दी। जहां केजरीवाल ने भले ही आतिशी को मुख्यमंत्री बना दिया था लेकिन वो हमेशा ये जतलाते रहते थे कि सुपर सीएम तो वही हैं, कि चुनाव के बाद वही मुख्यमंत्री बनेंगे, कि आतिशी तो सिर्फ चुनाव तक के लिए ही हैं। वही आतिशी भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बावजूद अपने बगल में अपने से भी ऊंची एक कुर्सी खाली रखी हुई थीं। ये बताने के लिए कि ये तो केजरीवाल जी के लिए है। चुनाव के बाद वही आकर यहां बैठेंगे। रेखा गुप्ता के ऊपर कोई सुपर सीएम नहीं है। यानी बीजेपी ने रेखा गुप्ता के जरिए जहां दिल्ली ही नहीं, देश की आधी आबादी को ये संदेश दिया है कि उनके बीच से किसी सामान्य सी परिवेश की महिला भी बीजेपी में बड़े पद पर जा सकती है।
हिंदुस्तान की चुनावी राजनीति में जातियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बीजेपी ने रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला उस वक्त लिया है जब बिहार में विधानसभा के चुनावों की तैयारी शुरु हो गई है। बिहार में वैश्य और तेली समुदाय का वोट पांच फीसदी से भी ज्यादा है। जहां वोट की गलाकाट प्रतियोगिता हो, वहां पांच फीसदी वोट पर एकाधिकार नतीजों का समीकरण बदल सकता है। यूं तो वैश्यों को बीजेपी का वोटबैंक माना जाता है। कभी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कहा करती थीं कि बीजेपी तो बनियों की पार्टी है। यानी जब बीजेपी का कोई मजबूत वजूद नहीं था, तब भी वैश्यों की पहली पसंद बीजेपी ही थी।
अब बीजेपी ने दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाकर वैश्य समुदाय का शुकराना अदा किया है। फिर बिहार ही क्यों, रेखा गुप्ता के जरिए दिल्ली को भी आगामी चुनावों के लिए साधना बीजेपी का अहम मकसद हो सकता है, जहां 8 फीसदी वैश्य वोटों का समीकरण खेल बना भी सकता है, बिगाड़ भी सकता है। फिर रेखा गुप्ता हरियाणा से आती हैं जहां दो महीने पहले ही बीजेपी ने शानदार जीत हासिल की। वहां भी पांच फीसदी वैश्य हैं। जबकि पूरे देश के बारे में सोचें तो भी रेखा गुप्ता के जरिए बीजेपी उस आर्थिक रूप से संपन्न समुदाय को ये संदेश देने की कोशिश करती दिख रही है कि उनके प्रतिनिधित्व की उसे चिंता है।
इस वक्त उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तराखंड, ओडिशा, असम, त्रिपुरा जैसे राज्यों में बीजेपी की सरकार चल रही है लेकिन कहीं भी वैश्य समुदाय से कोई मुख्यमंत्री नहीं है। लेकिन दिल्ली में रेखा गुप्ता के जरिए बीजेपी ने अपने मजबूत जनाधार वाले वोट बैंक को कायम रखने की कोशिश की है।
तो बीजेपी ने राज्य दर राज्य मुख्यमंत्री चुनने में चौंकाने वाले फैसले किए जो दूसरी पार्टियों की तुलना में बेहद अलग होते हैं।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, ओडिशा से लेकर गुजरात और हरियाणा तक जिस तरह बिल्कुल अनाम से नाम मुख्यमंत्री बन गए, उसमें दिल्ली में रेखा गुप्ता का मुख्यमंत्री बनना किसी को चौंकाता नहीं है। बस आप चौंकने के लिए तैयार रहिए कि आगे किसी राज्य में बीजेपी जीतेगी तो उसका मुख्यमंत्री कौन होगा। अगली बारी बिहार की है जहां बीजेपी फिलहाल नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनावी लड़ाई लड़ सकती है।