मार्च, 2014 का कोई दिन था। याद नहीं। लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच चढ़ती गर्मी में तपता हुआ बनारस नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े 49 दिन के पूर्व-मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का इंतजार कर रहा था, जिनके हाथ से बीते महीने ही दिल्ली फिसल गई थी। शाम को लंका पर उनकी एक सभा थी। हम लोग भी समय काटने के लिए सिलसिलेवार चाय और पान लड़ाते हुए टंडनजी के ठीहे से रविदास गेट पर राजेंदरजी की अड़ी के बीच चक्कर काटे जा रहे थे। इसी बीच विनोद सिंह ने एक ऐसी बात कह दी थी जिस पर मैं ठिठक गया और कालान्तर में अटक भी गया। होंगे केजरीवाल दिल्ली के नेता, लेकिन विनोदजी जैसे नेता उस विरल प्रजाति के अवशेष हैं जो केजरीवालों का माथा पढ़ लेते हैं।
विनोद भैया ने कहा था- केजरीवाल संघ का भिंडरावाले है। इसको संघ ने पैदा किया है और खत्म भी संघ ही करेगा, बस कुछ साल इंतजार कर लीजिए। तकरीबन यही शब्द रहे होंगे, लेकिन बात शत प्रतिशत याद है क्योंकि उस दिन मेरे माथे में यह वाक्य अटक गया था। साथ में चौधरी राजेंद्र, शक्ति सिंह और एकाध बड़े भाई लोग और थे। शायद सबको याद हो। वो दिन और आज का दिन, विनोदजी की बात सही साबित हुई है। ज़फ़र के हाथ से दिल्ली जा चुकी है। वह एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहां वह ‘’न किसी की आंख का नूर है न किसी के दिल का करार है, जो किसी के काम न आ सके वो एकमुश्त गुबार है...।‘’
अब तो दसेक साल हो गए। शुरुआती कुछ साल तक भाजपा और संघ के लोग अन्ना आंदोलन में अपना बाजा बजाने की बात पर जो ना नुकुर करते थे। अब वह भी राजनीतिक बाध्यता नहीं रही। पिछले दिनों भाजपा के एक विधायक से बात हो रही थी। वह खुलकर बता रहे थे कि कैसे अन्ना आंदोलन में वे लोग खाना लेकर जाया करते थे और अपने पैसे-संसाधन से उन्होंने अरविंद को खड़ा करने में हाथ लगाया था। इस खुले सच की स्वीकार्यता के बाद इस चुनाव में मेरी सबसे बड़ी जिज्ञासा यही थी कि अपने भिंडरावाले को निपटाने की नौबत संघ के लिए आखिर क्यों आ गई? इसका सबसे सटीक जवाब राजेंद्र गौतम ने दिया जो दिल्ली की सरकार में मंत्री रह चुके थे और बीते सितंबर में भागकर कांग्रेस चले आए।
गौतमजी ने मुझे ‘हीरो’ फिल्म की कहानी सुनाई जिसमें अमरीश पुरी अपने बेटे की तरह जैकी श्रॉफ को पालकर बड़ा करता है। बाद में जब जैकी श्रॅाफ फिरंट हो जाता है तो अमरीश पुरी कहता है- मेरा कुत्ता मुझे ही काटेगा? तो केजरीवाल की सबसे बड़ी समस्या यह हो गई कि वे अपनी चादर से ज्यादा पैर फैलाने लगे थे। इसीलिए जब पानी सिर के ऊपर से चला गया और उन्हें अहसास हो गया कि भाजपा अबकी रियायत बरतने वाली नहीं है, तब उन्होंने बीते साल के अंत में सरसंघचालक मोहन भागवत को शिकायत करते हुए चिट्ठी लिख मारी। राजेंद्र गौतम ने इस पर जबरदस्त चुटकी ली थी। कह रहे थे कि जैसे एक ही बाप के दो लड़के जब आपस में मार कर लेते हैं तो बाप के पास जाकर एक-दूसरे की शिकायत करते हैं, ठीक वही हो रहा है। इसलिए बहुत लोड लेने की जरूरत नहीं है।
वास्तव में, मोहन भागवत ने चिट्ठी का कोई लोड नहीं लिया। संघ की ओर से कोई जवाब नहीं आया। एक भी प्रतिक्रिया नहीं। पांचेक महीने से संघ के विस्तारक दिल्ली की विधानसभाओं में डेरा डाले ऐसे ही तो नहीं बैठे थे। संघ और भाजपा की केजरीवाल से निर्णायक बेचैनी का पूरा अंदाजा कांग्रेस को भी था। अब बात भिंडरावाले की होगी, तो कांग्रेस के जिक्र के बगैर कहानी कैसे पूरी होगी जिसने पंजाब में ऑपरेशन ब्लूस्टार कामयाबी से चलाया। दिल्ली में हालांकि कांग्रेस सीधी लड़ाई में नहीं थी। लड़ाई तो भाजपा ही लड़ रही थी। कांग्रेस को बस इतना करना था कि मैदान उसके लिए खुला छोड़ देना था।
दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष देवेंद्र यादव से मैंने गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले लंबी बात की थी। मेरे एक सवाल के जवाब में उनका यह वाक्य बड़े मार्के का था, ‘’घर में भी कई बार कोई ऐसा व्यक्ति घुस आता है जो आपकी आइडियोलॉजी के खिलाफ काम करता है। इसे देखना नेतृत्व का काम होता है। वह मेरे पेस्केल से ऊपर है।‘’ यह घर में घुसा व्यक्ति केजरीवाल था, जिसकी ओर उनका इशारा था।
जाहिर है, केजरीवाल जैसे नेता से निपटना एक पीसीसी अध्यक्ष के पेस्केल से ऊपर की चीज है जो खुद अपनी सीट हार रहा हो। इसका मतलब कि कांग्रेस नेतृत्व की समझदारी दिल्ली असेंबली चुनाव को लेकर पहले से बिलकुल साफ थी। खासकर, नई दिल्ली सीट से खड़ा किए गए संदीप दीक्षित के लिए तो यह ‘’गैंग्स ऑफ वासेपुर’’ वाले फैसल जैसी लड़ाई थी, जिसे अपनी मां का बदला लेना था। सियासत और सिनेमा दोनों में दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इसी समझदारी के साथ दिल्ली के दरवाजों को घेरा गया और संघ के भिंडरावाले को पटकनी दे दी गई। किसी को भी इस बात में शक नहीं होना चाहिए कि यह चुनाव कांग्रेस और भाजपा का संयुक्त उपक्रम नहीं था। यह तो दिल्ली की दीवार पर लिखी इबारत थी। कांग्रेस-प्रेमी इस बात को शायद पचा न पाएं, लेकिन उनकी सदिच्छा और दुख का कुछ नहीं किया जा सकता। आज की तारीख में कांग्रेस और संदीप दीक्षित से ज्यादा खुश और कोई नहीं होना चाहिए।
बहरहाल, वापस विनोदजी पर आते हैं। उनका बताया ‘’भिंडरावाले’’ कोई किरदार नहीं, एक परिघटना है। यह समाज, सत्ता और उसके खानदानी उद्यम ऐसे किरदारों को रह-रह के अपने लाभ के लिए पैदा करते और निपटाते रहते हैं। संघ ने भी वही किया जो कांग्रेस बरसों की सत्ता में करती आई है। इससे कुछ सबक लेने लायक काम हो सकता है। पहला, स्वयं-स्फूर्त दिखने वाली परिघटनाओं को फेस वैल्यू पर न लिया जाए, जैसा इस देश ने अन्ना आंदोलन के साथ किया और उसके साथ बिना सोचे-समझे बह गया। दूसरे, सत्ता-प्रतिष्ठान के बाहर से आए किसी व्यक्ति की चमत्कारिक उन्नति को भी शक के साथ देखा जाना चाहिए।
दुनिया भर में लोकतंत्रों के पतन का इतिहास बताता है कि जब-जब कोई ‘’आउटसाइडर’’ सत्ता में आता है, वह लोकतंत्र की चौकीदारी की प्रणालियों को कमजोर कर के अपने मनमाफिक उन्हें ढाल देता है। इससे लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण होता है और सत्ता के निरंकुश हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। हमारे दौर में एक ही वक्त में दो ‘’आउटसाइडर’’ चेहरे सत्ता की सीढ़ी चढ़े- अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी। दोनों का उभार तकरीबन एक-दूसरे से नत्थी है। याद करें 2015 के दिल्ली चुनाव का वह नारा- ‘’मोदी फॉर पीएम, केजरीवाल फॉर सीएम’’। यह युग्म ऐसे ही नहीं बना। इसके ऐतिहासिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं।
केजरीवाल का तो जो होना था आज हो गया, नरेंद्र मोदी अब भी केंद्र में नाबाद पारी खेल रहे हैं। मोदी को खुद लगातार शिकायत रही है कि लुटियन की दिल्ली उनहें बाहरी मानती रही है। इतने बरस की सत्ता के बाद भी जो राजधानी का ‘’ईको-सिस्टम’’ है, मोदी उसमें ‘’आउटसाइडर’’ ही हैं। राजनीतिक परिदृश्य से केजरीवाल के किनारे हो जाने के बाद मोदी का अकेला बाहरी बच जाना एक जरूरी सवाल खड़ा करता है- आखिर कितने दिन और? संघ की स्थापना के सौवें साल पर यह सवाल और मौजूं हो उठा है। चूंकि केजरीवाल संघ का प्रोजेक्ट थे और नरेंद्र मोदी भी हैं, तो इस पर भी संघ को ही सोचना है। कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा अपनी लड़ाइयां संघ को आउटसोर्स करने की स्थिति में है और यही उसके लिए बेहतर भी है।