दुनिया की सबसे पुरानी नीति-कथाओं में एक कथा एक कमरे में बंद हाथी और पांच अंधों की है। कहते हैं कि इस कथा का स्रोत भारतीय उपमहाद्वीप का कोई बौद्ध ग्रंथ (संभवत: खुद्दक निकाय) था। कहानियां जि‍स तरह पूरी दुनिया में फैलती हैं, वैसे ही यह कहानी भी फैली होगी। तभी अंग्रेजी में एक मुहावरा चला और लोकप्रिय हुआ, जिसका हिंदी तर्जुमा है- ‘’कमरे में एक हाथी है’’ (एलि‍फैन्ट इज़ इन द रूम)। इसके बावजूद, कहानी जब एक जगह से चलती है तो भौगोलिक और सांस्‍कृतिक परिवेश के हिसाब से रूप बदलते हुए उसका नैतिक सबक भी बदलता जाता है। 

इस कथा के भारतीय संस्‍करण में यह कभी भी स्‍पष्‍ट नहीं था कि कमरे में क्‍या है। केवल इतना स्‍पष्‍ट था कि कमरे में पांच अंधे व्‍यक्ति हैं जिन्‍हें हाथी को छूकर बताना है कि वह क्‍या है। यानी, कहानी सुनाने वाले और सुनने वाले को पता है कि कमरे में हाथी है, लेकिन कहानी के भीतर पांच जिंदा पात्रों को अपने ऐंद्रिय अनुभव से अभी पता लगाना है कि उनके सिवा कमरे में और कौन है। तो पांचों अंधे अपने-अपने हिसाब से हाथी के अंग पकड़ते हैं और अपने अनुभव से कोई उसे खंबा कह देता है, कोई पंखा, कोई रस्‍सी, तो कोई झाड़ू। हाथी कोई नहीं कहता। जाहिर है, जब पांचों को हाथी के होने का ज्ञान ही नहीं है तो उससे उत्‍पन्‍न खतरे या भय का ज्ञान होना कहां से संभव होगा? यानी, खुद को बचाने या कमरे से हाथी को बाहर निकालने जैसी व्‍यावहारिक बातों की अभी जमीन ही नहीं बन पाई है। इन अंधों को हाथी से बचाने का काम कथावाचक और श्रोता का नहीं है, यह पहले से तय है क्‍योंकि यह नीति‍-कथा है, राजनीति नहीं।       

पश्चिम के समाज में यह कहानी लोकप्रिय कहावत में बहुत देर से बदली। संभवत: उन्‍नीसवीं सदी की शुरुआत में इसका पहला उपयोग किया गया, फिर कई साल बाद दोस्‍तोयेव्‍सकी ने अपनी एक कहानी में बेलिंस्‍की के लिए लिखा कि संग्रहालय में उसे हाथी दिखा ही नहीं था। इस कहावत को गणितज्ञ ए. एन. वाइटहेड ने बहुत बाद में श्‍वेत-श्‍याम ढंग से समझाया। अपनी प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘प्रॉसेस ऐंड रियलिटी’ (1929) में वाइटहेड प्रत्‍यक्ष अनुभव के संदर्भ में लिखते हैं: ‘’कभी हम हाथी को देख लेते हैं, कभी नहीं देख पाते। इसका कुल परि‍णाम बस इतना है कि हाथी अगर उपस्थित है, तो दिख ही जाता है।‘’ यानी, जरूरी नहीं कि हाथी को वही देखे जिससे अपेक्षा की जा रही हो। वह कि‍सी और को भी दिख सकता है, और जिसे दिखा है उसका कर्तव्‍य है कि कमरे में मौजूद दूसरे अंधों को चेताए और बचाए।    

देखिए, कैसे कहानी भारत से यूरोप पहुंच कर बदल गई। भारत में अभी हाथी के होने का ज्ञान ही नहीं है। परीक्षण चालू है। इसीलिए अंधे अन्‍वेषियों को जो भी बरामद होगा उसे वे हाथी कहेंगे भी या नहीं उस पर भी संदेह है। यूरोप के समाज में स्‍पष्‍ट है कि हाथी या तो है या नहीं है। इसलिए अगर हाथी है, तो कोई न कोई उसे पहचान ही लेगा और तब असल सवाल हाथी को जानने का नहीं, उससे निपटने का होगा। कार्ल मार्क्‍स ने जब लिखा था कि दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की केवल व्याख्‍या की है पर असल सवाल दुनिया को बदलने का है, तो बात दरअसल यही थी। वे अपने समय की दुनिया में मौजूद हाथी को यानी केंद्रीय संकट को जान चुके थे और शिद्दत से समझ रहे थे कि‍ उस दुनि‍या को जस का तस नहीं छोड़ा जा सकता, उसमें रहना है तो उसे बदलना होगा। दुश्‍मन से लड़ना होगा, हाथी को घर से निकाल बाहर करना होगा। उन्‍होंने हाथी को नाम दिया ‘पूंजीवाद’ और उसे पहचानने के कुछ नुस्‍खे भी दिए। उनके पदचिह्नों पर चले कुछ लोगों ने पूंजीवाद से लड़ने के नुस्‍खे दिए और प्रयोग किए। इन नुस्‍खों पर पीढ़ियां चलती रहीं और बदलती हुई दुनिया में दुश्‍मन की नि‍शानदेही करती रहीं। 

कालान्‍तर में कुछ ऐसे लोग भी हुए जिन्‍होंने अतीत के नीति-उपदेशों पर भरोसा करने के बजाय पहिये का आवि‍ष्‍कार करने की फिर से ठानी। उन्‍हें इसका अधिकार भी था। इन्‍हीं में से एक हुए दार्शनिक स्‍लावोइ जीजेक, जिन्‍होंने मार्क्‍स के डेढ़ सौ साल बाद कहा, ‘’बीसवीं सदी में हमने दुनिया को शायद बहुत तेजी से बदलने की कोशिश की, इतना बदल डाला कि वह हमें अब समझ में ही नहीं आती। इसलिए अब समय आ गया है कि हम एक बार फि‍र से सोचना शुरू करें, दुनिया की फिर से व्‍याख्‍या करें।‘’ जाहि‍र है, बीते सौ साल में तो छोड़ दें, देखते-देखते बीते दसेक साल में हमारी दुनिया वास्तव में इतनी बदल गई कि यह बात भी बराबर जान पड़ती है। यानी, मार्क्‍स के समय से बदलाव यह हुआ है कि कमरे में हाथी है, बेशक दि‍ख भी रहा है, लेकिन हमारे मन में हाथी की जो स्‍थापि‍त छवि थी जिससे ‘हाथी’ नामक संज्ञा जुड़ी हुई थी, यह पशु वैसा नहीं है। शायद बहुरूपिया है, मायावी है, या शायद कुछ और है। ठीक-ठीक समझ नहीं आ रहा। 

स्‍वाभाविक है कि बीते दस साल में मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (सीपीएम) के बौद्धिकों ने भी इस मायावी दुनि‍या पर सोचा ही होगा। पार्टी की इक्कीसवीं कांग्रेस दस साल पहले हुई थी। उस समय जो आधिकारिक राजनीतिक ड्राफ्ट जारी हुआ था, वह विवाद में फंस गया था क्‍योंकि उसके विकल्‍प में दो और ड्राफ्ट पेश किए गए थे, जि‍नमें एक दि‍वंगत हो चुके पूर्व महासचिव सीताराम येचुरी का था। उस ड्राफ्ट में पार्टी के पतन का सारा दोष करात पर डाला गया था। अंतत: जिस ड्राफ्ट को कांग्रेस में अपनाया गया, दिवंगत कामरेड सुनित चोपड़ा के मुझसे एक निजी बातचीत के दौरान कहे शब्‍दों में वह ‘’मध्‍यमार्ग’’ था। उनके मुताबिक मध्‍यमार्ग का एक अर्थ है सुविधा के मुताबिक यथास्थिति को बरकरार रखना; दूसरा अर्थ है आधा प्रकाश करात और आधा सीताराम येचुरी। 

मध्‍यमार्ग पर काटे दस वर्षों ने सीपीएम को (2014 में) पौने चार फीसदी से (2024 में) डेढ़ फीसदी वोट पर ला दिया। येचुरी अब रहे नहीं और करात पार्श्‍व में हैं। आश्‍चर्य है कि करात की ‘निरंकुशता’ वाली लाइन अप्रैल में होने वाली पार्टी की अगली कांग्रेस के लिए जारी हुए राजनीतिक ड्राफ्ट की आधिकारिक लाइन है। इस पर कांग्रेस और सीपीआइ खफा हैं, हालांकि ड्राफ्ट में ‘फासिस्‍ट’ शब्‍द पांच बार आया है और बिंदु संख्‍या 2.69 में भाजपा को ‘’‍फासिस्टिक आरएसएस का राजनीतिक चेहरा’’ बताया गया है। कांग्रेस और सीपीआइ को इससे संतोष नहीं है। वे चाहते हैं कि सीधे मोदी सरकार को फासिस्‍ट कहा जाय। अब हाथी को हाथी न कह कर उसे हाथी का बच्‍चा कह दिया, तो कायदे से इसमें कोई बहस वाली बात नहीं होनी चाहिए थी। मूल बात तो यही है कि सामने एक संकट है और उसे हर कोई पहचान रहा है, तो आगे की साझा कार्रवाई की जाए, वाम-जनवादी मोर्चा मजबूत किया जाए जिस पर किसी को व्‍यवहार में कोई आपत्ति नहीं है।   

लेकिन (यह लेकिन बड़ा है क्‍योंकि मैं लेकिन से वाक्‍य शुरू नहीं करता), जैसा कि शुरुआत में मैंने बताया, कथावाचक और कथाश्रोता हाथी के लिए कभी जिम्‍मेदार नहीं होते। जिम्‍मेदारी अंतत: उन अंधों की है जिन्‍हें एक साझा रणनीति के लिए सहमति पर पहुंचना है। कथावाचक यहां इतिहास है और श्रोता जनता है। जनता संकट को सीधे अपने दफ्तर से लेकर थाली तक महसूस कर रही है। इतिहास के आईने में संकट साफ-साफ दिख रहा है। इतिहास ने जनता के जिन नुमाइंदों के कंधों पर संकट से लड़ने का कार्यभार सौंपा था, वे अगली पार्टी कांग्रेस की तैयारियों में व्‍यस्‍त हैं क्‍योंकि लेनिन ने कहा था कि हर पार्टी कांग्रेस क्रांति की दिशा में एक कदम होती है। 

इसके बावजूद, सीपीएम के यथास्थितिवादी ड्राफ्ट की उपेक्षा नहीं की जा सकती। विडम्‍बना देखिए कि ऐतिहासि‍क रूप से मध्‍यमार्गी पार्टी रही कांग्रेस को सीपीएम के मध्‍यमार्गी सूत्रीकरण से दिक्‍कत है जबक‍ि सीपीएम इसी लाइन पर वाम-जनवादी मोर्चा बनाने की बात कर रही है। इस रोशनी में राजनीतिक ड्राफ्ट की बिंदु संख्‍या 1.32 को ध्‍यान से देखा जाना चाहिए जो कहता है: 

‘’सार्वभौमिक मताधिकार के शुरू होने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब विकसित देशों के सभी सत्‍ताधारी दलों की वोट में हिस्‍सेदारी घटी है। कुल मिलाकर ये चुनाव बढ़ते हुए बिखराव और ध्रुवीकरण की झलक देते हैं, जहां सामाजिक-जनवादी, मध्‍यमार्गी और ग्रीन पार्टियां दक्षिणपंथी ताकतों के सामने अपनी जमीन खोती जा रही हैं।‘’       

भारत के संदर्भ में यह टिप्‍पणी खुद सीपीएम पर तो है ही, लेकिन मुख्‍यत: सत्‍ता में रही कांग्रेस के ऊपर ज्‍यादा लागू होती है क्‍योंकि इसमें मूल सबक कांग्रेस नेतृत्‍व के लिए छुपा है जो आजकल जरूरत से ज्‍यादा प्‍याज खा रहा है और फासीवाद के आंसू रो रहा है। 

बहरहाल, जो कुछ भी हमारे इर्द-गिर्द चल रहा है, उसे फासीवाद कह देने के कांग्रेसी सरलीकरण के अपने खतरे हैं तो माकपाई मध्‍यमार्ग के अपने जायज कारण भी हैं। इसलिए, राजनीतिक शब्‍दावली की बहस में फंसे बगैर सीपीएम का राजनीतिक ड्राफ्ट जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इस देश-दुनिया को टुकड़े-टुकड़े में समझने का यह एक संक्षिप्‍त, मुकम्‍मल और कारगर औजार है, और जाहिर है उनके द्वारा तैयार किया गया है जो हमसे थोड़ा कम अंधे हैं। हाथी के अंग-उपांग ही अगर ठीक-ठाक समझ में आ गए तो हो सकता है किसी दिन जोड़जाड़ कर भरापूरा हाथी भी बरामद हो जाए।