पत्रकारिता के लिए यह नया साल एक ठेकेदार के सेप्टिक टैंक में तैरती एक पत्रकार की लाश के नाम रहा। ठेकेदारी और पत्रकारी के रिश्तों से मिलकर बना यह दृश्य समकालीन मीडिया का एक ऐसा बिंब है जिस पर कई कोण से बात की जा सकती है, लेकिन सबसे पहले बीजापुर के पत्रकार मुकेश चंद्राकर को श्रद्धांजलि।
मुकेश बस्तर में काम करते थे। रिपोर्टर थे। अपना यूट्यूब चैनल चलाते थे। साथ में एनडीटीवी के लिए स्ट्रिंगर का काम भी करते थे। बताया जा रहा है कि एक स्थानीय ठेकेदार सुरेश चंद्राकर ने उन्हें एक जनवरी को अपने यहां बुलवा भेजा था। उसके बाद से मुकेश लापता थे। मुकेश के भाई, वरिष्ठ पत्रकार कमल शुक्ला और अन्य स्थानीय पत्रकार लगातार तीन दिन से उनकी गुमशुदगी के बारे में यहां-वहां चिंता के साथ लिख रहे थे। पुलिस में तहरीर दी गई थी। शुक्रवार को जब मुकेश की लाश बरामद हुई तो सनसनी फैल गई।
चालू फिल्मों या वेब सीरीज की तर्ज पर लाश कहीं और से नहीं मिली, जैसा कि आम तौर से हत्यारे अपने गुनाह को छुपाने के लिए करते हैं और मार कर लाश को ठिकाने लगा देते हैं। लाश बिलकुल उसी ठेकेदार के परिसर में एक सेप्टिक टैंक से मिली। परिस्थितिजन्य या अन्य साक्ष्य सीधे-सीधे सुरेश चंद्राकर की ओर इशारा कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि मुकेश की हत्या इस ठेकेदार ने उनकी पत्रकारिता के चलते की या करवाई है। यह सच है कि ठेकेदार की बनाई सड़क में लापरवाही की एक रिपोर्ट 24 दिसंबर को एनडीटीवी मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ पर चली थी, लेकिन वह नीलेश त्रिपाठी की बाइलाइन से है। उसमें मुकेश चंद्राकर का नाम कहीं नहीं है। चूंकि खबर में ‘एनडीटीवी की टीम’ का जिक्र है, तो बहुत संभव है कि स्ट्रिंगर होने के चलते मुकेश उस टीम का हिस्सा रहे हों।
यानी, खुद मुकेश चंद्राकर का और उनके यूट्यूब चैनल ‘बस्तर जंक्शन’ का भी उस रिपोर्ट से कोई वास्ता नहीं दिखता जो नीलेश त्रिपाठी के नाम से एनडीटीवी की वेबसाइट पर लगी हुई है। इसीलिए जल्दबाजी में यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं होगा कि मुकेश की हत्या हाल में उनकी की हुई किसी रिपोर्ट के चलते हुई है, बेशक उसके तार सुरेश चंद्राकर से जुड़ते हुए साफ दिखते हैं। इसके बावजूद, मुकेश की उत्साही और साहसिक पत्रकारिता के गवाह इलाके के बहुत सारे पत्रकार हैं।
मुकेश की हत्या की घटना क्यों अहम है? यह घटना अगर आज से दसेक साल पहले होती तो शायद वह उस दौर में हो रहे उत्पीड़न के सिलसिले में एक और कड़ी होती। आज यह अलग से दिखती है। भूलना नहीं चाहिए कि बस्तर कभी पत्रकारिता का ‘ब्लैक होल’ हुआ करता था जहां हमले, हत्याएं, गिरफ्तारियां, पुलिस उत्पीड़न और वसूली जैसी बातें आम हुआ करती थीं। पत्रकारों को तब भी राज्य और राज्येतर दोनों किस्म की ताकतों के दबाव में काम करना होता था, लेकिन पत्रकारिता पर हमले में नैरेटिव का पलड़ा पुलिस-प्रशासन और राज्य के खिलाफ ही झुका रहता था। तब भी भाजपा की सरकार थी और आज भी है, लेकिन बीच के कांग्रेसी वक्फे में ऐसा कुछ घटा है कि स्थानीय पत्रकारिता का चरित्र बदल गया। उस पर बात किए बगैर ताजा प्रकरण को समझना थोड़ा मुश्किल होगा।
बीते दसेक साल में सबसे बड़ा बदलाव यह हुआ है कि पत्रकार संस्थागत नहीं रह गए हैं। अब ज्यादातर पत्रकार अखबार, टीवी छोड़ के यूट्यूब उद्यमी बन गए हैं। जितनी कमाई अपना यूट्यूब चलाने में है उतनी नौकरी करने में नहीं, इस धारणा ने नए पत्रकारों को स्वतंत्र काम करने के लिए उकसाया। बेशक, हर कोई यूट्यूब से वैसी कमाई नहीं कर पाया लेकिन अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ और भी लाभ आते हैं। जैसे, भूपेश बघेल की सरकार में शायद पहली बार मीडिया पर जो सरकारी खर्च हुआ, उसमें मीडिया संस्थानों के अलावा निजी उद्यमों, सोशल मीडिया, आदि को भी तरजीह दी गई। बाकायदा सरकार की ओर से पत्रकारों को सरकारी प्रचार के ठेके दिए गए। यानी, खबरों की ठेकेदारी वाले मॉडल को जहां राजकीय प्रोत्साहन मिला, तो साथ ही पुराने संस्थागत मीडिया से पत्रकारों के मोहभंग ने उनमें अपना ब्रांड खड़ा करने की ललक को बढ़ाया।
इसी के साथ तीसरी बात यह हुई कि एक समय में बहुत मजबूत रहा माओवादी आंदोलन धीरे-धीरे सिमटता गया। इसका लाभ भी पत्रकारिता के परिदृश्य को मिला। इस तरह बस्तर बीते वर्षों में पत्रकारिता का डार्क जोन नहीं रह गया। यह डार्क जोन पहले के वर्षों में (2015 के बाद) कश्मीर शिफ्ट हुआ, फिर 2019 के बाद उत्तर प्रदेश चला गया। अब पत्रकारों पर हमले की चर्चा में छत्तीसगढ़ या बस्तर का नाम ऊपर नहीं, बहुत नीचे आता है। हां, पत्रकारों की चर्चा अब भी होती है लेकिन अन्यथा कारणों से। जैसे, बस्तर में बीते दिनों में एक बार माओवादी तो दूसरी बार ठेकेदार ही पत्रकारों के खिलाफ परचे निकाल चुके हैं।
जाहिर है, केवल तकनीकी प्लेटफॉर्म के सहारे अपने चेहरे पर पत्रकारिता करने के अपने खतरे थे, लेकिन मीडिया संस्थानों की गुलामी से मुक्त होने के फायदे भी थे। अब एक पत्रकार अपनी माइक आइडी लेकर अपने विवेक, निर्णय, और व्यावसायिक हित के हिसाब से खबरें करना चुन सकता था। उसके ऊपर उसे आदेश देने वाला कोई संपादक नहीं था। हर रोज सुबह वह खुद तय करता कि आज किसकी बजानी है और किसको रियायत देनी है; कौन सी खबर व्यू और रेवेन्यू लाएगी और कौन सी मर जाएगी। यह दिखाई-कमाई का हिसाब-किताब ही उसे एक साथ पत्रकार और ठेकेदार दोनों बना रहा था। पुरानी अखबारी पत्रकारिता या संस्थागत पत्रकारिता में हर प्रवृत्ति का अपना एक अनुशासन होता था, एक खूंटी होती थी। उसके नीचे गिरना है या नहीं अथवा उसके ऊपर चढ़ना है या नहीं, यह प्राय: अपने हाथ में नहीं होता था। संपादक ही रिपोर्टरों को चढ़ाते-गिराते थे।
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में पहले संपादक नाम के संस्थान की मौत हुई, फिर बीते एक-डेढ़ दशक में पत्रकार ही खबरों का स्वयंभू ठेकेदार बन गया। इस प्रक्रिया ने मीडिया के परिदृश्य को बुनियादी रूप से बदल डाला। ठीक उसी तरह, मीडिया के बरअक्स समाज का परिदृश्य भी बदला। पुलिस मनबढ़ हुई, अभिव्यक्ति की आजादी कमजोर हुई और हर आदमी मोबाइल आने के साथ सौ-पचास ग्राम पत्रकार, इतिहासकार और दार्शनिक सब कुछ बन बैठा।
लिहाजा, पत्रकारों का परंपरागत ‘प्रिविलेज’ जाता रहा- संस्थानों का बैकअप तो पहले ही जा चुका था। फिर भी, एक सामान्य ट्रेंड यह बना रहा कि स्थानीय पुलिस-प्रशासन पत्रकारों को उनके काम के लिए सामान्यत: तब तक नहीं छेड़ता जब तक कि ऊपर से आदेश न हो या सीधे उसके हित न जुड़े हों। हित का सीधा मतलब कमाई से है।
रेत या पत्थर का खनन, उसकी तस्करी, परिवहन, निर्माण कार्य, सरकारी ठेके, आदि ऐसे काम हैं जहां सभी की कमाई की संभावना हमेशा होती है। उसमें एक खिलाड़ी अगर दूसरों की पोल खोलने पर आ जाए, तो खेल बदमजा हो जाता है। इस बदमजगी के चक्कर में हत्याएं हो जाती हैं। प्राय: हितों के बीच संतुलन बना रहता है, तो काम-धंधे भी सुचारु रूप से चलते रहते हैं और पत्रकार, तस्कर या ठेकेदार के बीच फर्क करने की विभाजक रेखा बरामद नहीं होती। ऐसे में हम मानकर चलते हैं कि सब अपना-अपना काम कर ही रहे होंगे। कभी-कभार अपवादस्वरूप जब कोई मामला खुल जाता है, तो पत्रकार भ्रष्टाचार की गटरगंगा से पवित्र बचकर निकल आता है जबकि बाकी के मुंह पर कालिख पुत जाती है- जैसा चार महीने पहले छत्तीसगढ़ में ही हुआ था।
अगस्त 2024 की बात है। चार पत्रकार दक्षिण बस्तर में एक स्टोरी करने गए थे। कहानी छत्तीसगढ़ से आंध्र प्रदेश में रेत की कथित तस्करी पर थी। जब वे लोगों से बात और इंटरव्यू कर रहे थे उस बीच कोंटा थाने के प्रभारी वहां आए और बताया जाता है कि पत्रकारों के साथ उनकी बकझक हुई। रात में ये चारों पत्रकार स्थानीय होटल में ठहरे, फिर सुबह गाड़ी में तेल भराने के लिए आंध्र प्रदेश के एक पेट्रोल पंप की तरफ गए। राज्य की सीमा पर आंध्र पुलिस ने उनकी गाड़ी से 15 ग्राम गांजे की जब्ती दिखा कर चारों पर केस ठोंक दिया। बाद में कोंटा थाने के प्रभारी को सीसीटीवी फुटेज से छेड़छाड़ के आरोप में जब पकड़ा गया, तो बात सामने आई कि दोनों राज्यों की पुलिस और रेत माफिया की मिलीभगत से पत्रकारों को फंसाया गया था। फिर भी, यह न आज तक सिद्ध हुआ है न ही कभी होगा, कि राज्य और राज्येतर खिलाड़ी मिलकर तस्करी करते हैं और पत्रकारों को फंसाते हैं।
बीते डेढ़-दो दशक के दौरान हमने जब विकास को इस देश में अलग-अलग परियोजनाओं और ठेकों के रूप में फलते-फूलते देखा, तो पत्रकारों की हत्या को भी बीच-बीच में गिनते रहे। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हर जगह से खनन और निर्माण ठेकों में भ्रष्टाचार की खबर करने वाले पत्रकारों की हत्या हुई। जब एक हत्या होती है, तब जाकर हमें पता चलता है या बताया जाता है कि इस देश में पत्रकारिता अब भी हो रही है। जब हत्या नहीं होती, तब? क्या इस देश में पत्रकारों की दो हत्याओं के बीच पत्रकारिता हो रही होती है? या पत्रकारिता और ठेकेदारी के बीच कोई महीन सा संतुलन बना रहता है? क्या सभी पक्षों के बीच संतुलन के बिगड़ने का नतीजा एक हत्या है या किसी एक पक्ष द्वारा संतुलन बिगाड़ने की कोशिश का सिला? बहुत पतली विभाजक लकीर है दोनों के बीच।
एक और बात ध्यान रखने वाली है कि छत्तीसगढ़ में पत्रकार सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद मुकेश चंद्राकर की हत्या हुई है। इस सुरक्षा कानून के लिए पत्रकारों ने बहुत लड़ाइयां लड़ी हैं, बावजूद इसके गिरफ्तारी, उत्पीड़न, हत्या जारी है। मुकेश के बहाने ही सही, पत्रकारों को अब साथ आकर राज्य और राज्येतर खिलाडि़यों के बीच कायम भ्रष्टाचार के उस संतुलन पर बात करनी चाहिए जिसमें एक बेरोजगार, संसाधनविहीन, कमजोर पत्रकार भी गाहे-बगाहे एक पार्टी होता है और यही बात पत्रकारिता को और मुश्किल बनाए जा रही है। साथ ही, यूट्यूब की मरीचिका में फंसे माइकवीरों के भ्रष्ट आचरण पर खुलकर ईमानदारी से बात करनी चाहिए जिसकी बानगी रोज हमें सरकारी ठेकों और परियोजनाओं के संदर्भ में देखने-सुनने को मिल रही है।
यह मसला किसी पार्टी, किसी सरकार या किसी ठेकेदार से बहुत आगे का है। यह पत्रकारिता के बदले हुए अनुशासन और उसके रेवेन्यू-केंद्रित होते जाने से जुड़ा हुआ है। मुकेश चंद्राकर को सही श्रद्धांजलि यही होगी कि पत्रकार बिरादरी मिल-बैठ कर पत्रकारिता के परिदृश्य पर ईमानदारी से बात करे। साथ ही जिम्मेदार संस्थाएं और प्रेस क्लब आदि मुकेश की हत्या की स्वतंत्र जांच की मांग करें, ताकि पत्रकार की हत्या और उसकी पत्रकारिता के बीच के अंधेरे पक्षों पर कुछ रोशनी पड़ सके।
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