बिहार में अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव हैं। चुनाव से पहले राज्य सरकार हर दिन कुछ न कुछ ऐसी घोषणाएं कर रही हैं, जिसे राजनीति में लोकलुभावन फैसला कहा जाता है।
बिजली फ्री से लेकर बिहार में होने वाली शिक्षक बहाली में 84.4 फीसदी सीटें सिर्फ राज्य के मूल निवासियों के लिए आरक्षित करने जैसे फैसले लेकर नीतीश इन दिनों राज्य भर में सुर्खियां बटौर रहे हैं। वैसे भी नीतीश कुमार सियासी खेल में मास्टरस्ट्रोक चलाने के लिए जाने जाते हैं।
याद करिए 2005 में सत्ता संभालते ही नीतीश ने सबसे पहले आधी आबादी पर फोकस किया था। दरअसल वे जानते थे कि आने वाले वक्त में महिला वोटर्स उन्हें अजेय बना सकती है।
आंकडों की बात करें तो 2010 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं का मत प्रतिशत 54.5 था तो पुरुषों का 53 फीसदी। 2015 में महिलाओं का वोट प्रतिशत बढ़ कर 60.4 पहुंच गया जब कि पुरुषों का घट कर 51.1 फीसदी हो गया। 2020 में महिलाएं 59.7 फीसदी वोट के साथ फिर अव्वल रहीं। पुरुषों का मतदान प्रतिशत पहले से कुछ बढ़ा लेकिन वह 54.6 फीसदी तक ही पहुँच पाया। कहा जाता है कि जब-जब महिलाओं का वोट शेयर बढ़ा तब-तब नीतीश कुमार के गठबंधन को जीत मिली है। इसके बाद यह माना जाने लगा कि नीतीश कुमार की जीत में अन्य कारणों के अलावा महिला भागीदारी भी एक प्रमुख कारक है।
गौरतलब है कि नीतीश की इस कामयाबी को देख कर ही अब राजद ने भी अपना ध्यान महिला वोटरों पर फोकस किया है। राजद ने घोषणा की ही है कि अगर 2025 के चुनाव में उसके गठबंधन को जीत मिलती है तो हर मां- बहन को ढाई हजार रुपये प्रतिमाह दिये जाएंगे। इसे माई-बहिन योजना का नाम दिया गया है। इसका पैसा सीधे बैंक खाता में जाएगा। दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी यही घोषणा की है। इस योजना के क्रेडिट के लिए राजद-कांग्रेस में होड़ भी है। यानी 2025 के विधानसभा चुनाव में महिलाएं पहले से भी ज्यादा निर्णायक स्थिति में हैं।
नीतीश के गिरते स्वास्थ्य को लेकर आज हम भले ही जो कह लें लेकिन बिहार में उन्होंने कुछ ऐसी योजनाओं लागू की, जिसने बिहार को एक समय में नई दिशा दी।
उन्होंने 2006 में दो ऐसी योजनाएं लागू की, जिससे महिलाएं सशक्त हुई। मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना और पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, इन दो सरकारी योजनाओं ने बिहार की सामाजिक व्यवस्था का रंग ही बदल दिया।
पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिला तो ग्रामीण परिवेश में पर्दा प्रथा खत्म होने लगी। महिलाएं मुखिया, सरपंच, प्रमुख बनीं। हालांकि यह कटु सत्य है कि वे आज भी अपने अधिकार का प्रयोग पुरुष अभिभावकों की सलाह पर कर रहीं हैं लेकिन शासन की कुर्सी ने उनमें एक नया आत्मविश्वास तो जरुर पैदा किया।
कुछ ऐसा ही प्रयोग बिहार में नीतीश ने ‘स्वयं सहायता समूह’ के जरिए किया। 2006 में विश्व बैंक से कर्ज लेकर राज्य में स्वयं सहायता समूह (जीविका) का गठन किया गया था। जीविका से जुड़ने वाली महिलाओं को जीविका दीदी कहा गया। आज नीतीश की सबसे बड़ी ताकत या आप वोट बैंक, जो कहिए जीविका दीदी हैं। उनकी हर सभाओं में जीविका दीदी आगे रहती हैं।
लेकिन इन सब के बीच बिहार की सियासत जिस बात पर चुप्पी साधे हुए है, वह है 'विशेष राज्य का दर्जा'। अब तक विधानसभा चुनाव को लेकर जो कुछ सियासी बातें सुनने – देखने को मिल रही है, उसमें विशेष राज्य का दर्जा रुपी की-वर्ड गायब है।
पिछले कई चुनावों में यह मुद्दा प्रमुख था, लेकिन अब सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों इसे नजरअंदाज कर रहे हैं। राजनीतिक दल लोकलुभावन योजनाओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, क्योंकि खास दर्जा से वोट बैंक पर ज्यादा असर नहीं दिख रहा।
इस मुद्दे पर कहीं भी चर्चा नहीं हो रही है, ना सत्ता पक्ष में ना विपक्ष में। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वर्षों तक इसे लेकर अभियान चलाया। एक समय तो वे इस मुद्दे पर केंद्र सरकार पर दबाव बनाया करते थे। वहीं विपक्षी दल भी इस मुद्दे को लेकर लगातार केंद्र को निशाने पर लेते रहे।
लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा पूरी तरह से गायब है। याद करिए, नीतीश ने तो 2023 में तो केंद्र को खुली चेतावनी तक दे डाली थी कि "अगर दर्जा नहीं मिला तो बड़ा आंदोलन होगा!" लेकिन 2024 में एक बार फिर एनडीए में लौटने के बाद उनका यह एजेंडा अचानक ठंडा पड़ गया। वहीं पहले राजद के नेता तेजस्वी यादव इस मुद्दे पर नीतीश कुमार और बीजेपी को लगातार घेरते रहते थे, लेकिन अब उनके राजनीतिक भाषणों से भी यह विषय गायब है।
जबकि बिहार के समग्र विकास के लिए विशेष राज्य का दर्जा खास मायने रखता है। आज बिहार की हर पार्टी को यह लगता है कि इस मुद्दे को लंबे समय तक उठाकर चुनावी लाभ नहीं मिलेगा।
गैरतलब है कि 1969 में पांचवें वित्त आयोग की सलाह पर पहली बार विशेष राज्य का दर्जा देने का प्रावधान किया गया था। विशेष राज्य का दर्जा उन राज्यों को दिया जाता है जो आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक आधार पर पिछड़े होते हैं।
देश में कई राज्य हैं, जिन्हें विशेष दर्जा प्राप्त है। इनमें असम, नगालैंड, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड जैसे राज्य शामिल हैं।
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि लोकलुभावन बातों में फंसने वाली जनता को इस बार चुनाव से पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चॉकलेट थमा दिया है। अब जनता तय करे कि उसके लिए क्या महत्वपूर्ण है, लोकलुभावन फैसले या फिर विशेष राज्य का दर्जा!