केजरीवाल के 'शीशमहल' के ध्वस्त होने की दास्तां!

कभी अरविंद केजरीवाल हवाई चप्पल पहने, मफलर लपेटे, वैगनर कार वाले ईमानदार व्यक्ति के रूप में राजनीति की सीढ़ी चढ़े थे। एक दशक बाद उनकी व्यक्तिगत छवि का वैगनर कार से दो कमरों के मुख्यमंत्री आवास में जाने वाली नहीं रही है।

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ऐतिहासिक तथ्य है कि 17वीं शताब्दी में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने अपनी दूसरी बेगम एजुनिशा के प्रति प्रेम की निशानी के तौर पर दिल्ली के शालीमार बाग में शीश महल का निर्माण करवाया था। मुग़ल बादशाह कभी-कभार अपनी बेगमों के साथ शीश महल में रमण करने भी आया करते थे। शाहजहां को व्यक्तिगत रूप से स्थापत्य कलाओं के प्रति रुचि लेने वाले बादशाह के रूप में याद किया जाता है। उसने ताज महल से लेकर जामा मस्जिद और लाल किला तक बनवाया। लेकिन उसके जीवन का दुखांत ऐसे हुआ कि शायद ही कोई सियासतदां अपने अंतिम क्षण को शाहजहां की तरह बिताना पसंद करेगा।

बहरहाल, नई दिल्ली का "शीश महल" फिर से सुर्खियों में हैं। किंतु इस "शीश महल" की चर्चा किसी मुग़ल बादशाह के वजह से नहीं बल्कि लोकतंत्र की चक्की में पीस कर निकले नई दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल के द्वारा बनवाए गए मुख्यमंत्री आवास की वजह से है। निश्चित रूप से यह एक बेहतरीन सुविधाओं से लैस मुख्यमंत्री आवास है। किंतु भारतीय जनता पार्टी ने इस आवास के वीडियो जारी कर केजरीवाल को इस तरह घेरा कि आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी सियासी हार के कारणों में से इसे एक माना जा रहा है। तथाकथित "शीश महल" की चमक से  हवाई चप्पल पहने वैगनर कार से चलने वाले आम आदमी अरविंद केजरीवाल का तिलिस्म भी बिखर गया है। ध्यान रहे कि भारतीय जनता पार्टी के सांसद योगेश चंदौलिया ने अरविंद केजरीवाल को जेल भेजने की बात कही है। केजरीवाल आबकारी नीति के मामले में जेल जा भी चुके हैं। अब सियासी हार के बाद यदि उन्हें फिर से जेल जाना पड़े तो तो शाहजहां की याद आना लाजिमी है। जिन्हें उनके पुत्र औरंगजेब ने सत्ता हासिल करने के लिए जेल भेज दिया था। मौजूदा सियासत भी तो सत्ता का ही कुचक्र है!

कभी अरविंद केजरीवाल हवाई चप्पल पहने, मफलर लपेटे, वैगनर कार वाले ईमानदार व्यक्ति के रूप में राजनीति की सीढ़ी चढ़े थे। एक दशक बाद उनकी व्यक्तिगत छवि का वैगनर कार से दो कमरों के मुख्यमंत्री आवास में जाने वाली नहीं रही है। उनकी छवि अब "शीशमहल" वाले मुख्यमंत्री की हो गई है, जो आबकारी नीति के मामले में जेल जा चुका है, ऐसे में अंजाम तो यही होना था। गठबंधन की राजनीति के सवाल पर अपने बच्चों की कसम खा कर तोड़ने वाले केजरीवाल शायद अकेले नेता है, जिन्होंने अपनी हर प्रतिज्ञा तोड़ कर व्यक्तिगत छवि का नुकसान किया। उनके कार्यकाल में मुख्यमंत्री आवास पर अत्यधिक पैसे खर्च करना, विज्ञापनों पर फिजूल खर्च करना, मीटिंग में फिजूलखर्ची जैसी कारिस्तानी मीडिया में सामने आई, जो उनके वादों के विपरीत थी।

नई दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को 48, आप को 22 सीटों पर जीत हासिल हुई है। आम आदमी पार्टी की करारी हार अचंभित करने वाली नहीं है। पिछले पांच वर्षों में भारतीय जनता पार्टी ने अरविंद केजरीवाल को विभिन्न मुद्दों पर जम कर घेरा है। भ्रष्टाचार के आरोप, व्यक्तिगत शुचिता को लेकर केजरीवाल पर हमला बोलने के साथ ही, जनता को मिलने वाली बेसिक सुविधाओं को लेकर  बीजेपी केजरीवाल पर लगातार हमलावर रही है। बीजेपी के प्रचार तंत्र का मुकाबला करने के लिए केजरीवाल के पास संसाधनों की कमी नहीं थी, लेकिन सिपहसालारों की कमी स्पष्ट रूप से सामने दिखाई देती है। अरविंद के साथ अब न प्रशांत भूषण हैं, न योगेन्द्र यादव,  न प्रोफेसर आनंद कुमार, कुमार विश्वास या आशुतोष का साथ है , और न ही ईमानदार होने का तमगा बचा है। वे अब जेल की कोठी से लौटे हुए उस नेता की तरह से जिसकी कमीज जनता की नजर में गंदी हो चुकी है। वे जिस साख की बदौलत राजनीति में उभरे थे, अब न उनके पास वह साख बचा है, न ईमानदार राजनीति की दुहाई देने की साहस। उधर बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी के पास परसेप्शन की राजनीति के लिहाज से वह हर क्षमता मौजूद है जो संभवतः भारत की किसी भी अन्य पार्टी के पास नहीं है।

बीते वर्षों में बीजेपी केजरीवाल पर जो भी आरोप लगा रही थी, उन आरोपों की काट के लिए आम आदमी पार्टी के पास ठोस रूप से जबानी खर्च के अलावा कुछ भी उपलब्ध नहीं था। यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि नई दिल्ली से निकल कर पंजाब, गोवा, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हाथ आजमा चुकी आम आदमी पार्टी आम आदमी के दिए दान से चल रही है। "आप" तो ईमानदार राजनीति के वादे के साथ अस्तित्व में आया था। किंतु धन के पुजारियों को राज्यसभा भेज कर केजरीवाल ने कौन सी नई राजनीति शुरू की है, काश यह जनता को समझा पाते तो प्रवेश वर्मा के हाथों उनकी खुद की सीट पर लुटिया नहीं डूबती।

केजरीवाल अपनी राजनीति की शुरुआत में नई दिल्ली की स्वास्थ्य सुविधाओं का मसला उठाया करते थे। उन्होंने नई दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक खोल कर कुछ अच्छी शुरुआत करने की कोशिश भी की थी। नई दिल्ली सरकार के अकूत पैसे खर्च कर विज्ञापनों के सहारे मोहल्ला क्लिनिक और स्कूल जैसे विषयों पर पूरे देश में अपनी लार्जर दैन लाईफ की छवि पेश करने वाले केजरीवाल नई दिल्ली को प्रदूषण के मामले में उस जगह पहुंचा चुके हैं, जहां शहर के वातावरण को खतरनाक समझा जाता है। हालांकि, केजरीवाल सरकार ने नई दिल्ली में कुल 500 से अधिक मोहल्ला क्लीनिक खोले थे। किंतु मोहल्ला क्लीनिक में दवाइयों और स्टाफ की कमी के कारण मरीजों ने मुंह मोड़ लिया था। एक सूचना के अधिकार के माध्यम से प्राप्त जानकारी के अनुसार, 2024 में मोहल्ला क्लीनिकों में आने वाले मरीजों की संख्या में 28% की कमी देखी गई। अर्थात, तस्वीर साफ है कि नई दिल्ली के लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने में केजरीवाल असफल साबित होने हैं।

इसी तरह केजरीवाल ने यमुना नदी की सफाई को लेकर बड़े-बड़े वादे किए थे। किंतु न यमुना नदी साफ़ हुई और न ही दिल्ली में पेयजल की समस्याओं का समाधान हुआ। सनद रहे कि भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा किए गए परीक्षणों में नई दिल्ली का पेयजल 11 गुणवत्ता मानकों में से लगभग 10 में फेल रहा हैं। यमुना नदी साफ़ होने की जगह और अधिक गंदी होती चली गई। केजरीवाल के शासन में ही नई दिल्ली ने शहर को जल जमाव में डूबता हुआ देखा है। इसी बीच चुनाव में केजरीवाल झूठ के सौदागर की तरह दिखे जब उन्होंने कहा कि हरियाणा की तरफ से यमुना के पानी में जहर डाला गया है। यह जहर की राजनीति शायद केजरीवाल के लिए अब पछतावा का कारण बन रही होगी।

हालांकि, दस साल सत्ता में रहने के बाद उपलब्धियों की फेहरिस्त गिनाना था। केजरीवाल ऐसा करने में नाकाम रहे। संभव है कि उन्होंने बुजुर्गों को पेंशन, स्कूल में सुधार, इत्यादि उपलब्धि गिनवाने की भरसक कोशिश की हो। लेकिन उनमें कथनी और करनी को सही ठहराने का माद्दा नहीं बचा था, क्योंकि उनकी व्यक्तिगत छवि एक भ्रष्ट और झूठे व्यक्ति के रूप में स्थापित हो गई है।यदि ऐसा नहीं होता तो शायद स्वयं केजरीवाल को चुनाव नहीं हारना पड़ता।

चुनाव में नई दिल्ली के गलियों की टूटी हुई सड़कें, दमघोंटू प्रदूषण के ऊपर आप-दा सरकार का स्लोगन आम आदमी पार्टी के लिए नीम चढ़े करेले की तरह साबित हुआ। नतीजतन, पिछले दो चुनावों में बीजेपी को धूल चटाने वाली आम आदमी पार्टी को 22 सीटें ही नसीब हुई है। बीजेपी को 48 सीटों पर मिली शानदार जीत के बाद केजरीवाल के पास बहानेबाजी का मौका भी नहीं है। क्योंकि नई दिल्ली की जनता ने केजरीवाल के साथ-साथ उनके प्रमुख साथियों में मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और सौरभ भारद्वाज को भी हरा दिया है। यूं कहे कि आम आदमी पार्टी की पूरी लीडरशिप हार चुकी है। यह नई दिल्ली के गुस्से का परिणाम है। निश्चित ही केजरीवाल की काम से ज्यादा की गई बातें नई दिल्ली को रास नहीं आई है।

2025 विधानसभा चुनाव का एक दिलचस्प पहलू यह रहा कि केजरीवाल को उन्हीं के दांव से बीजेपी ने पटखनी दी है। पिछले दशक में जब दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल का पदार्पण हुआ था तो उन्होंने मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी का राग अलाप कर अपनी अलग पहचान बनाई थी। इस चुनाव में वादों की फेहरिस्त देख कर यह कहना मुनासिब होगा कि नई दिल्ली में केजरीवाल के "मुफ्त" हथियारों से ही आम आदमी पार्टी हताहत हुई है। उदाहरण के लिए इस चुनाव में बीजेपी को महिलाओं को 2500 रुपए प्रति माह देने के साथ ही गरीब परिवारों को 500 रुपए से एलपीजी सिलेंडर देने का वादा किया था। "मुफ्त" स्कीम की घोषणा तो आम आदमी पार्टी ने भी की थी। लेकिन उनके वादों से बड़े वादे बीजेपी ने किए थे। बीजेपी ने बुजुर्गों को पेंशन राशि 2000 रुपए से बढ़ा कर 2500 रुपए प्रति माह देने की घोषणा की थी। इसके अलावा दस लाख रुपए तक के इलाज मुफ्त करने की घोषणा कर बीजेपी ने "आप" से बाजी मार ली।

नई दिल्ली भारत की आबादी की विविधताओं का प्रतीक है। किंतु केजरीवाल ने अपनी राजनीति में स्पष्ट रूप से भारत की सामाजिक संरचनाओं के प्रति असंवेदनशील दिखे। उन्होंने न कभी दलित, पिछड़े के मुद्दों को गंभीरता को उठाया और न ही टिकट वितरण में दिल्ली की सामाजिक विविधताओं का ध्यान रखा। एक पॉलिटिकल स्टार्ट अप के रूप में आम आदमी पार्टी ने शहरी आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बनने की भरसक कोशिश की थी। लेकिन उनका मुकाबला उस बीजेपी से था जो ऑक्टोपस की तरह अपना आकार बदल कर अपनी पकड़ मजबूत कर लेती है। देश भर के चुनावी नतीजे साबित करते हैं कि बीजेपी शहर में शहरी और गांव में देहाती ठाठ की पार्टी बनने में  पारंगत हो चुकी है। उसके सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी सम्मान रूप से गांव और शहर दोनों में लोकप्रिय हैं। मोदी ने जैसे ही "शीश महल" का आरोप लगा कर केजरीवाल को "बादशाह" घोषित करने का प्रयास किया, वैसे ही मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा जो एक दशक से आम आदमी पार्टी के साथ था, वो बीजेपी के पास वापस लौट आया। अर्थात् , मतदाताओं की नब्ज को टटोलने में बीजेपी पारंगत दिखी वही बीजेपी से अलग दिखने में "आप" असफल हो गई। एक दशक से अधिक समय के राजनीतिक जीवन में केजरीवाल ने अपनी पार्टी के लिए कोई वर्गीय आधार नहीं तैयार किया, वे उस मध्य वर्ग की राजनीति करने में केंद्रित रहे, जिसकी स्वाभाविक पार्टी बीजेपी है। यह भूल उन पर भारी पड़ा है।

नई दिल्ली की राजनीति में बीजेपी को मिले 45.56 प्रतिशत, आप को 43.57 प्रतिशत के मुकाबले कांग्रेस को मिले वोट 06.34 प्रतिशत उसे महत्वहीन साबित करने के लिए काफी है। ऐसे में केजरीवाल अब कोई बहाना भी नहीं कर सकते हैं। अब जनता ने उन्हें फिर से सड़क पर ला दिया है। यदि सड़क की जगह उन्हें "शीश महल" के शाहजहां की गति मिल जाय तो हैरत की बात न होगी, क्योंकि बीजेपी बनाम आप की राजनीति अब रंजिश की तरह है।

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