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अंतरराष्ट्रीय राजनीति और पूंजी के पेचोखम को समझना अब मुश्किल ही नहीं, तकरीबन नामुमकिन होता जा रहा है। भारत को यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल एड (USAID/यूएसएड) से भारत को मिले अनुदान को लेकर द इंडियन एक्सप्रेस की खबर के बाद जैसा खंडन-मंडन और बवाल मचा हुआ है, ऐसा लगता है कि बाजार में फेंके गए चारे को अपनी-अपनी सुविधानुसार उठाकर हर खेमा अपनी राजनीति साधने की कवायद कर रहा है।
विडम्बना है कि यह सारा बवाल तब खड़ा हुआ है जब ट्रम्प प्रशासन द्वारा यूएसएड की फंडिंग पर अंतरिम पाबंदी लगाए जाने के बाद भारतीय अनुदान के संबंध में कुछ तथ्य अमेरिका से ही आए हैं, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था के तकरीबन हर मोर्चे पर बीते कई दशकों से यूएसएड की सुविधाजनक छाप रही है जो तकरीबन हर पार्टी को स्वीकार्य भी थी।
इस पूरे प्रसंग में अब तक चुनाव के टर्नआउट बढ़ाने से लेकर बांग्लादेश में सरकार बदलने तक दो बड़ी बातें सामने आई हैं, जिन्हें यूएसएड के पैसे से कथित रूप से साधा जाना था। भाजपा ने इंडियन एक्सप्रेस की खबर को आधा-अधूरा बताकर उस पर तथ्यों को छुपाने के लिए निशाना साधा है, तो कांग्रेस इस मसले पर भाजपा की सरकार से श्वेत पत्र की मांग कर रही है। दोनों की सरकारों में ही यूएसएड का पैसा लगातार विभिन्न परियोजनाओं के लिए आता रहा है। ऐसे में किस पार्टी की सरकार यूएसएड का पैसा लेने की दोषी है और क्यों, इसका निर्णय किसी के लिए भी बहुत कठिन हो जाता है। सामान्य नागरिकों के लिए तो यूएसएड और भारत के रिश्ते को समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।
फिर भी, चूंकि प्रसंग चल रहा है और प्रसंगवश कुछ ‘तथ्य’ भी आ रहे हें, तो हम मान सकते हैं कि शायद डोनाल्ड ट्रम्प सच कह रहे होंगे। शायद एलन मस्क भी सच ही कह रहे होंगे। हो सकता है कांग्रेस भी सच कह रही हो और भाजपा भी सच कह रही हो। लेकिन तथ्य, सच नहीं होते। तथ्य, तथ्य होते हैं और सच उससे कहीं बड़ी चीज है जिसे खासकर बहुदलीय संसदीय लोकतंत्रों में सुविधाजनक तथ्यों के माध्यम से इसलिए छुपा लिया जाता है ताकि सत्ता का खेल चलता रहे। सच सामने आने के लिए जरूरी यह है कि उसे कोई बोले। जैसे, हाल में आई सिरीज़ ‘ज़ीरो डे’ में एक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति का किरदार निभा रहे प्रसिद्ध अभिनेता रॉबर्ट डी नीरो।
कहानी सुनाकर मैं यहां उन लोगों का ज़ायका नहीं बिगाड़ना चाहता जिन्होंने यह फिल्म नहीं देखी है। फिर भी, अपने काम की बात इतनी है कि इस कहानी में अमेरिका है, जहां एक दिन एक मिनट के लिए सब कुछ ठप हो जाता है। बिजली, दूरसंचार सेवाएं, ट्रैफिक सिग्नल प्रणाली, डेटा, नेटवर्क, इंटरनेट, सब कुछ। हजारों लोग मारे जाते हैं। सबके शक की उंगली रूस की ओर उठती है, राष्ट्रपति की भी, फिर भी औपचारिकता के लिए पूर्व राष्ट्रपति (डी नीरो) की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बैठा दिया जाता है। फिर, स्पीकर (जो विपक्षी दल का है) की पहल पर जांच आयोग की निगरानी के लिए एक और समिति बनती है जिसकी अध्यक्षता आयोग के अध्यक्ष की सांसद बिटिया के पास है।
देश के नाम पर उस जांच आयोग को सहयोग देने के लिए एक विशाल टेक कंपनी की कारोबारी मालकिन बहुत बेचैन है। इतनी बेचैन, कि उसकी मंशा पर भरोसा कर के आयोग उसको बुलवा भेजता है, लेकिन आयोग के अध्यक्ष की निष्पक्षता और तीखी निगाह से वह नहीं बच पाती। अंतत: सारे साक्ष्य उसी के खिलाफ जाते हैं और षडयंत्र के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। कहानी यहीं खत्म हो जाती और जांच रिपोर्ट भी मुकम्मल, यदि हिरासत में कारोबारी महिला की मौत न हुई होती।
ऐसा लगा कि आयोग का अध्यक्ष संसद में जांच रिपोर्ट पेश करते वक्त इसके पीछे तक नहीं जाएगा, लेकिन वह गया। अंत में यह स्थापित हुआ कि षडयंत्र के पीछे जिस प्रोग्राम का इस्तेमाल किया गया था वह खुद अमेरिका के खुफिया विभाग का बनाया हुआ था और उसे अमेरिका के ही सत्ताधारी व विपक्षी सांसदों के एक द्विपक्षीय धड़े ने टेक कॉरपोरेट को लीक किया था ताकि वह उसे संशोधित कर के एक मिनट के लिए देश को ठप कर सके। जाहिर है, षडयंत्र के सुराग ऊपर तक न जाएं इसलिए टेक मालकिन का जिंदा रहना सबके लिए खतरनाक था।
ये सब क्यों किया गया, इस पर आने से पहले आइए एक काल्पनिक सीन रचते हैं। हमने देखा कि कैसे डोनाल्ड ट्रम्प को राष्ट्रपति बनवाने में टेक कारोबारी एलन मस्क ने कूद-कूद कर अपने धनबल और हर तरह के संसाधन से मदद की। बदले में उन्हें सरकारी सक्षमता विभाग (DOGE) की कमान सौंप दी गई जिसने यूएसएड की सरकारी फंडिंग जाम कर दी। यानी, एक कॉरपोरेट की बनाई सरकार और उसी कॉरपोरेट की मिलीभगत से एक सरकारी विभाग को ठप किया गया है, इस दलील पर कि अमेरिकी करदाताओं का पैसा उसमें अनावश्यक जा रहा है। इसके बाद राष्ट्रपति एक बयान देता है कि कुछ पैसा फलाने-फलाने काम के लिए भारत को जा रहा था। भारत के दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दल इसे अपने-अपने हिसाब से ले उड़ते हैं।
हम नहीं जानते कि एलन मस्क का यूएसएड को ठप करने में क्या हित है, फिर भी फर्ज कर लें कि ट्रम्प चुनाव हार जाते और मस्क को उनका वांछित रिटर्न नहीं मिलता। देश और लोकतंत्र के नाम पर तब मस्क सत्ताधारी दल को सहयोग की पेशकश करते। हो सकता है इस सहयोग के लिए कोई संकट पैदा किया जाता, जैसा ‘ज़ीरो डे’ में एक मिनट के लिए किया गया (या ट्रम्प समर्थकों द्वारा कैपिटल हिल पर हमले में एक दिन के लिए पैदा किया गया था)। जाहिर है, वह संकट न सिर्फ मस्क के लिए, बल्कि विपक्ष के लिए भी आपदा में अवसर बनकर आता। अगर जांच की नजर से मस्क बच जाते तो सबकी बल्ले-बल्ले होती। अगर वे नजर में आ जाते या पकड़े जाते, तो उनका होना ट्रम्प के लिए संकट बन जाता। अभी तो ट्रम्प सत्ता में हैं, तो खुलेआम सब जायज है। विपक्ष में होते तो तस्वीर कुछ और होती।
दोनों ही सूरतों में संकट चाहे जो होता, उसके पीछे की दलील ‘जनता’ पर टिकी होती। जैसे यूएसएड को बंद करने के पीछे जनता की दलील काम कर रही है। जैसे कैपिटल हिल पर हमले के पीछे भी जनादेश की दलील काम कर रही थी। यानी, सत्ताधारी दल हो या विपक्ष का दल, दोनों का केंद्रीय लक्ष्य यह होता है कि वह सामान्य सच लोगों के सामने न आने दिया जाए जिससे द्विपक्षीय/द्विदलीय संतुलन गड़बड़ा जाए और जनता का भरोसा संसदीय प्रणाली पर से उठ जाए। इसीलिए ‘ज़ीरो डे’ में राष्ट्रपति से लेकर विपक्ष के स्पीकर तक सब अंत तक मानकर चलते हैं कि जांच आयोग का अध्यक्ष तथ्यों तक ही खुद को सीमित रखेगा, सच नहीं बोल देगा कि ‘’सब मिले हुए हैं’! सब मने सत्ता, विपक्ष और कॉरपोरेट। फिर भी वह सच बोलता है। फिल्म और सियासत में यही अंतर है। सियासत सच से नहीं चलती। कोई सच बोल दे, तो सियासत फिल्मी हो जाएगी।
यूएसएड के मामले में जिस सरल सच को सबके सामने रखा जाना चाहिए उसे कहने में किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। भले ही उस सच में एकाध तथ्य कम ही क्यों न हों। पहली बात, जवाहरलाल नेहरू के जमाने से ही भारत सरकार और उसकी एजेंसियां, उसकी योजनाएं उसके कार्यक्रम, सब अमेरिकी पैसे पर आश्रित रहे हैं और आज तक हैं, सत्ता में दल चाहे कोई भी आया हो। यह पैसा सीधे अमेरिकी सरकार से, उसके द्वारा अनुदानित यूएसएड जैसी एजेंसियों से, विश्व बैंक से, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से, या अमेरिकी कंपनियों से आता है। उसे लेने वाली भारत सरकार है, भारत के थिंक टैंक हैं, एनजीओ हैं, धर्मार्थ ट्रस्ट हैं, उन्मादी संस्थाएं हैं, एजेंडा चलाने वाले समूह हैं, तो जमीनी आंदोलन भी हैं। सरकार और गैर-सरकारी इकाइयों, दोनों को अमेरिकी डॉलर आपस में जोड़ता है।
दूसरी बात, कौन किस पैसे से क्या कर रहा है इसका हिसाब इतना श्वेत-श्याम नहीं है। उसकी वजह यह है कि पैसा जिस लिखित मद में आता है, वह लिखित मद अनुदान-जगत के अपने खास व्याकरण से तय होता है। मसलन, ‘’युवाओं का सशक्तीकरण’’ एक ऐसा आधिकारिक मद है जिसमें आए पैसे पर आप बांग्लादेश के छात्र आंदोलन द्वारा तख्तापलट से लेकर भारत में बेरोजगारों के (भाजपा विरोधी) आंदोलन तक, कोई भी आरोप लगा सकते हैं। यह बहुत आसान है, लेकिन इतना सरल भी नहीं है। ‘’लोकतंत्र के सशक्तीकरण’’ के नाम पर आया पैसा इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी पिट्ठू सरकार बैठाने के काम भी आ सकता है, भारत में संविधान बचाने (यानी कांग्रेस को सत्ता में लाने) के काम भी आ सकता है। यानी, पैसे का लिखित चरित्र कुछ है और व्यावहारिक उपयोग कुछ और। यह पैसा मांगने वाला भी जानता है कि वह जिस काम के लिए पैसा मांग रहा है, उसे आवेदन में लिखा नहीं जाता। देने वाला भी इसे जानता है। यह एक अलिखित समझौता है।
तीसरी बात, आए हुए पैसे का इस्तेमाल कैसे हुआ, इसकी ऑडिट भी वे ही कंपनियां करती हैं जो अमेरिकी पूंजी से संचालित हैं। मसलन, डिलॉइट, अर्नस्ट ऐंड यंग प्राइसवाटरहाउस कूपर और केपीएमजी जैसी अकाउंटिंग कंपनियां सब की सब अमेरिकी पैसे, अमेरिकी सरकार, वहां की खुफिया एजेंसी और विदेश विभाग के साथ आड़े, तिरछे या सीधे जुड़ी हुई हैं। इन्हें बिग फोर कहते हैं। भारत सरकार के तमाम मंत्रालयों और विभागों तथा राज्य सरकारों में इसी बिग फोर के कर्मचारियों की पूरी फौज बैठती है जो नौकरशाहों के साथ मिलकर इस देश को चलाने की योजनाएं बनाती है और फिर उन्हीं योजनाओं का मूल्यांकन भी करती है। 2017 से 2022 के बीच इन चारों बड़ी कंपनियों ने भारत सरकार से 450 करोड़ रुपये के ठेके हासिल किए। इन चारों के मिलाकर भारत में करीब तीन लाख कर्मचारी हैं। इन कंपनियों के बीच सरकारी ठेकों को लेने की ऐसी होड़ है कि ये मौके बेमौके अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के अफसरों का इस्तेमाल गुप्तचर सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए करती रही हैं।
यानी, यूएसएड की सीधी सी दिखने वाली कथित तथ्यात्मक कथा में छुपा हुआ सच बहुत बड़ा और बेहद धुंधला है, लेकिन नजर साफ हो तो उतना ही सरल भी है। ट्रम्प जैसे निरंतर झूठ बोलने वाले एक बड़बोले नेता के एक बयान को तथ्य मानकर उसके बहाने जो कोई भी किसी पर भी कुछ भी आरोप मढ़ने की कोशिश कर रहा है, वह दरअसल एक ऐसे काले सच को छुपाने की कोशिश कर रहा है जिसका भागीदार वह खुद है। मोटे शब्दों में कहें, तो यह काला सच पूंजी और उसके हितों द्वारा लोकतंत्र को पूरी तरह अगवा कर लिए जाने का है। यह अपहरण दिखाई न दे, इसलिए जनता का नाम लेकर कुछ संकट पैदा किए जाते हैं या लोकतांत्रिक-सी दिखने वाली कुछ संकटकारी कार्रवाइयां रची जाती हैं। यूएसएड का प्रकरण संक्षप में यही है, और कुछ नहीं।