कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने राज्यपाल थावर चंद गहलोत द्वारा उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर मुकदमा दर्ज करने की मंजूरी को चुनौती दी थी। ये आरोप मैसूर शहरी विकास प्राधिकरण (MUDA) द्वारा उनकी पत्नी को भूमि आवंटन से जुड़े थे। तीन निजी व्यक्तियों ने इस भूमि आवंटन को लेकर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, जिसके आधार पर राज्यपाल ने 16 अगस्त को उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दी थी।
हाईकोर्ट ने क्यों खारिज की सिद्धारमैया की याचिका?
न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना ने कहा कि राज्यपाल द्वारा मामलों की सुनवाई की मंजूरी में किसी प्रकार की चूक नहीं पाई गई। उन्होंने स्पष्ट किया कि राज्यपाल द्वारा मंजूरी देने के लिए जो तर्क दिए गए थे, वे फाइलों में दर्ज थे और उन्हें अंतिम आदेश में शामिल करना आवश्यक नहीं था।
न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना ने कहा, राज्यपाल द्वारा स्वतंत्र विवेकाधिकार का प्रयोग करने में कोई खामी नहीं है। निर्णय लेने वाले उच्च पद के अधिकारी की फाइल में कारणों का दर्ज होना पर्याप्त है और वे कारण संक्षेप में आदेश का हिस्सा बनने चाहिए। इसी आधार पर उन्होंने सिद्धारमैया की याचिका खारिज कर दी।
न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना ने कहा, “पहली बार किसी आदेश के कारणों को संवैधानिक अदालत के समक्ष आपत्तियों के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। राज्यपाल के आदेश में सोच-समझकर निर्णय लेने में किसी प्रकार की कमी नहीं है। यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें राज्यपाल द्वारा विवेकाधिकार का अभाव हो, बल्कि निर्णय पूरी तरह से सोच-समझकर लिया गया है।”
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 17 A के तहत मंजूरी देने से पहले सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य नहीं है। यदि संबंधित प्राधिकरण ऐसा करना चाहता है, तो यह उसके विवेक पर निर्भर करता है।
सिद्धारमैया के वकीलों ने तर्क दिया कि राज्यपाल ने 20 दिनों के भीतर मंजूरी दे दी, जबकि कुछ पूर्व बीजेपी मंत्रियों के खिलाफ जांच की मंजूरी दो साल से लंबित थी। इसके बावजूद, हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि राज्यपाल ने कोई जल्दबाजी में निर्णय नहीं लिया है। यह आदेश भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17 A के तहत जांच की मंजूरी तक ही सीमित है, न कि धारा 218 के तहत मुकदमा चलाने की मंजूरी के लिए।
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि टी जे अब्राहम, स्नेहमयी कृष्णा और प्रदीप कुमार जैसे भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं का राज्यपाल से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 17 A के तहत मंजूरी की मांग करना सही था, खासकर 2018 में संशोधित प्रावधानों के तहत।
क्या है मुडा (MUDA) घोटाला?
जुलाई 2023 में तीन भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं — टी जे अब्राहम, स्नेहमयी कृष्णा, और प्रदीप कुमार — ने राज्यपाल से सिद्धारमैया के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की मंजूरी मांगी। इन कार्यकर्ताओं का आरोप था कि मुख्यमंत्री की पत्नी पार्वती को मुडा से अवैध रूप से 14 आवासीय प्लॉट मिले, जिसके बदले मुडा ने 3.16 एकड़ भूमि अधिग्रहित की। यह भूमि 2021 में बीजेपी सरकार के कार्यकाल में अवैध रूप से अधिग्रहित की गई थी, जिससे राज्य को करीब 55.80 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
26 जुलाई को, राज्यपाल ने इस मामले में मुख्यमंत्री को कारण बताओ नोटिस जारी किया। हालांकि, राज्य सरकार के मंत्रिमंडल ने 1 अगस्त को एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें राज्यपाल से इस नोटिस को वापस लेने की सिफारिश की गई थी। बावजूद इसके, राज्यपाल ने 16 अगस्त को सिद्धारमैया के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 और भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत कार्रवाई की मंजूरी दे दी।
मुख्यमंत्री ने मंजूरी को चुनौती क्यों दी?
सिद्धारमैया ने इस मंजूरी को 19 अगस्त को कर्नाटक हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसके बाद अदालत ने उनके खिलाफ सुनवाई पर अस्थायी रोक लगा दी।
मुख्यमंत्री के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. ए एम सिंहवी ने तर्क दिया कि राज्यपाल को राज्य के मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना होता है, जिसमें 1 अगस्त का प्रस्ताव भी शामिल है। उन्होंने आरोप लगाया कि राज्यपाल ने बिना उचित आधार के मंजूरी दी और यह स्पष्ट नहीं किया कि इन आरोपों पर जांच क्यों जरूरी थी।
वकीलों ने यह भी तर्क दिया कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद के निर्णय को पक्षपाती मानकर स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते और उन्हें यह साबित करना चाहिए कि कैबिनेट का फैसला तर्कहीन था।
राज्यपाल के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
राज्यपाल की ओर से मध्य प्रदेश स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2004) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया था कि अगर किसी अधिकारी के खिलाफ रिकॉर्ड पर पर्याप्त सबूत हैं, तो राज्यपाल जांच की मंजूरी दे सकते हैं।
इस मामले में, हाईकोर्ट ने कहा कि आमतौर पर राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी चाहिए, लेकिन इस मामले में मंत्रिपरिषद का निर्णय तर्कहीन था, जबकि राज्यपाल का फैसला ऐसा नहीं था। अदालत ने राज्यपाल की मंजूरी को सही ठहराया।
अब क्या होगा?
इस आदेश के बाद, सिद्धारमैया के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच आगे बढ़ सकती है। माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे। हालांकि, अगर एफआईआर दर्ज होती है, तो विपक्षी भाजपा द्वारा उनके इस्तीफे की मांग तेज हो सकती है। कांग्रेस के कुछ नेता तब तक सिद्धारमैया से इस्तीफा नहीं मांगने के पक्ष में हैं, जब तक कि कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।
हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान टी जे अब्राहम, स्नेहमयी कृष्णा, और प्रदीप कुमार द्वारा बेंगलुरु की एक विशेष अदालत में दायर निजी शिकायतों पर अस्थायी रूप से रोक लगाई थी। हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद अब विशेष अदालत में शिकायतों पर आगे की कार्यवाही का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
यदि विशेष अदालत शिकायतकर्ताओं से कर्नाटक लोकायुक्त जैसी भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी से संपर्क करने को कहती है, तो राज्यपाल द्वारा दी गई मंजूरी के आधार पर सिद्धारमैया के खिलाफ प्राथमिकी (FIR) दर्ज की जा सकती है।
सिद्धारमैया के वकीलों ने अपील दाखिल करने के लिए विशेष अदालत की कार्यवाही पर रोक बढ़ाने का अनुरोध किया था, जिसे न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना ने अस्वीकार कर दिया। हालांकि, उन्होंने यह संकेत दिया कि मामले में अंतिम आदेश जल्द ही उपलब्ध कराया जाएगा।