अगर आप दिल्ली में जनपथ से मौलाना आजाद रोड की तरफ बढ़ते हैं, तो आपको सड़क के शुरू में ही बायीं तरफ विज्ञान भवन मिलता है। इस सड़क की पहचान इसलिए होती है, क्योंकि इधर विज्ञान भवन और लंबे समय तक देश के उप राष्ट्रपति का आवास हैं। कुछ समय पहले उपराष्ट्रपति भवन यहां से शिफ्ट हो चुका है। ये सड़क किंग एडवर्ड रोड से मौलाना आजाद रोड इसलिए हो गई थी, क्योंकि इसी सड़क के 4 नंबर के बंगले में मौलाना अबुल कलाम आजाद 1947 से 22 फरवरी 1958 को अपनी मृत्यु तक रहे थे। दरअसल जिधर विज्ञान भवन की एनेक्सी है वहां पर ही था मौलाना आजाद का सरकारी बंगला। दूसरे हिस्से में विज्ञान भवन बना।
कौन रहता था मौलाना आजाद के साथ
मौलाना आजाद जब 4 नंबर एडवर्ड रोड में रहते थे तब उनके साथ उनका एक भतीजा नुरूदीन अहमद, जिसे वे अपना पुत्र ही मानते थे, पीए अजमल खान, जो लोधी रोड के अपने घर में भी आते-जाते थे, और कुछ अन्य रिश्तेदार भी रहते थे। जब मौलाना आजाद से हुमायूं कबीर मिलने आते तो नुरुद्दीन अहमद भी आसपास ही होते थे। नुरुद्दीन अहमद के पुत्र फिरोज बख्त अहमद प्रतिष्ठित मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।
कब दिल्ली आ गए थे मौलाना आजाद
मौलाना आजाद कोलकाता से सन 1920 के आसपास दिल्ली आ गए थे। महात्मा गांधी और पंडित नेहरू ने जब उन्हें भारत के स्वाधीनता संग्राम को सशक्त बनाने के लिए यहां रहने के लिए आमंत्रित किया, तब मौलाना आजाद के पास रहने को जगह और देने को किराया नहीं था। मौलाना आजाद के पौत्र फिरोज बख्त अहमद बताते हैं कि उन्हें दिल्ली में रहने के लिए एक घर “हमदर्द दवाखाना” के हकीम अब्दुल मजीद ने दरियागंज में दिया था।
मौलाना आजाद का घर देखते-देखते दिल्ली के दानिशमंदों, लेखकों और नौजवानों का पसंदीदा स्थान बन गया। मौलाना आजाद के घर में किताबों का अंबार था। मौलाना आजाद अपने दोस्तों को भी किताबें भेंट किया करते थे। मौलाना आजाद 4 एडवर्ड रोड में शिफ्ट होने से पहले कांग्रेस के नेता आसफ अली साहब के दिल्ली-6 वाले घर में भी रहे।
कौन मिलता था रात को मौलाना से
यूं तो देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद से उनके 4 एडवर्ड रोड के बंगले में बहुत सारे सामाजिक-राजनीतिक लोग मिलने आते थे, पर वे रात आठ–नौ बजे के बाद नेहरू कैबिनेट के जूनियर मंत्री हुमायूं कबीर (वे आगे चलकर जार्ज फर्नांडीज के ससुर भी बने) से एक खास मकसद से मिलते थे। इन दोनों के मिलने की वजह यह थी कि मौलाना आजाद अपनी किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ के लिए लिखे कुछ पन्नों को हुमायूं कबीर को थमा देते थे। उसके बाद कबीर साहब उनका उर्दू से अंग्रेजी में तर्जुमा किया करते थे।
मौलाना आजाद पर नाटक लिखने और डायरेक्ट करने वाले डॉ.एम.सईद आलम कहते हैं- “इंडिया विन्स फ्रीडम के 30 पन्ने जब 1988 में सामने आए तो एक तरह से एंटी क्लाइमेक्स वाली स्थित पैदा हो गई थी। उम्मीद थी कि उनके सामने आने से देश में राजनीतिक भूचाल आ जाएगा। पर उनमें तो कुछ भी खास नहीं था। उनके कई पेजों में एकाध ही सामान्य सी लाइन लिखी थी। इसलिए यह समझ नहीं आया था कि मौलाना आजाद ने उन 30 पन्नों को सार्वजनिक करने के लिए तीस सालों का वक्त क्यों मांगा था।”
मौलाना आजाद की किताब के वे 30 पन्ने उनकी 22 फरवरी 1988 को 30वीं पुण्य तिथि के बाद सार्वजनिक हुए थे। उस पर तब इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया ने अपने 6- 13 मार्च, 1988 के अंक में आवरण कथा छापी थी।
बंटवारे से दुखी थे मौलाना आजाद
मौलाना आजाद देश के टूटने से बुरी तरह से हिल गए थे। फिरोज बख्त अहमद कहते हैं कि मौलाना आजाद कहते थे कि अगर मुसलमानों के लिए अलग मुल्क बनाना सही है तो यहुदियों के लिए अलग मुल्क बनाना गलत कैसे है। इस संवाद को जब-जब मशहूर एक्टर टाम आल्टर ने डॉ.एम.सईद आलम द्वारा लिखित और निर्देशित एकल नाटक मौलाना आजाद में बोला तो उन्हें दर्शकों की भरपूर तालियां मिलीं।
मौलाना ने 23 अक्टूबर, 1947 को मुसलमानों का आहवान किया था कि वे पाकिस्तान जाने का इरादा छोड़ दें। वे भारत में ही रहें। उन्हें किसी बात की फिक्र करने की कोई वजह नहीं है। भारत उनका है। मौलाना आजाद की तकरीर के बाद दिल्ली के सैकड़ों मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने के अपने इरादे को छोड़ दिया था।
‘गांधी’, फिशर 4 किंग एडवर्ड रोड
कुछ माह पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि गांधी फिल्म की मार्फत दुनिया ने गांधी को जाना। मोदी जी के दावे पर सवाल खड़े किए गए। क्या गांधी फिल्म को देखने के बाद दुनिया ने महात्मा गांधी को करीब से जाना समझा? इस सवाल पर लंबी बहस हो सकती है। गांधी फिल्म की भूमिका तो 1946 में ही लिख दी गई थी।
महान अमेरिकी अमेरिकी लुईस फिशर 25 जून,1946 को दिल्ली आते हैं। वे बापू की जीवनी लिख रहे थे। फिशर गांधी जी से आमतौर पर पंचकुईयां रोड के वाल्मिकी मंदिर में मिलते थे। लुईस फिशर मौलाना आजाद से भी उनके के किंग जॉर्ज रोड वाले बंगले में मिलने जाते थे। यह जानकारी खुद लुईस फिशर ने गांधी जी की जीवनी की प्रस्तावना में लिखी है। वे दिल्ली में आचार्य कृपलानी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, बापू की निजी डॉ. सुशीला नैयर वगैरह से भी मिलते थे गांधी की शख्सियत को समझने के लिए।
रिचर्ड एटिनबर्ग ने महान लेखक लुईस फिशर द्वारा लिखी गांधी जी की जीवनी ‘दि लाइफ आफ महात्मा’ को आधार बनाकर ही गांधी का निर्देशन किया था। जरा सोचिए कि अगर उन्होंने लुई फिशर के काम को ना पढ़ा होता तो क्या गांधी फिल्म बनती।
‘गांधी ’के गांधी बेन किंग्सले ने 1991 में इस नाचीज लेखक को राजधानी के मेरिडियन होटल में कहा था, “मैंने गांधी फिल्म को करने से पहले लुर्इ फिशर द्वारा लिखी बापू की जीवनी को कई बार पढ़ा था। उसे पढ़ने के बाद मैं बापू और उनके सत्य तथा अहिंसा के सिद्धांतों को जान पाया। इसलिए मैं शायद अपने किरदार के साथ न्याय कर सका था। ”
उर्दू गद्य के गालिब थे मौलाना आजाद
मौलाना आजाद को उर्दू और अरबी गद्य का गालिब माना जाता है। उन्होंने इंडिया विन्स फ्रीडम अंग्रेजी में क्यों लिखवाई? वैसे गांधी जी ने भी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ गुजराती में लिखी थी। उसका अंग्रेजी अनुवाद तो बाद में हुआ। पर गांधी जी अंग्रेजी श्रेष्ठ लिखते थे। कहते हैं, मौलाना आजाद अंग्रेजी जानते-समझते तो खूब थे, पर अंग्रेजी में अपने को व्यक्त करने के स्तर पर कुछ कमजोर थे।
मौलाना आजाद की मृत्यु के करीबी दस महीने के बाद इंडिया विन्स फ्रीडम जनवरी 1959 में छपी पर पांडुलिपि के 30 पन्ने नहीं छापे गए क्योंकि वे यही चाहते थे। उन्हें नेशनल आर्किवाइज, दिल्ली और कोलकाता की नेशनल लाइब्रेयरी में रखवा दिया गया ताकि उन्हें मौलाना आजाद की मौत के सन 1988 में तीस साल पूरा होने पर नए एडिशन के साथ जोड़कर छापा जाए।
कितने आत्म मुग्ध मौलाना आजाद ?
मौलाना आजाद इंडिया विन्स फ्रीडम में देश के विभाजन का जिम्मेदार पंडित नेहरू की मह्त्वाकांक्षा, कृष्ण मेनन और तो और गांधी जी को भी ठहराते हैं। वे यहां तक कहते हैं कि क्या पानी का बंटवारा हो सकता है? राजमोहन गांधी ने ‘Patel, a life (पटेल ए लाइफ ’) में लिखा है, “कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर मौलाना आजाद का कार्यकाल छह साल तक खिंच गया। दूसरा विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी वर्किंग कमेटी के जेल में रहने के कारण ऐसा हुआ।” तो लगता यह है कि परिस्थितिवश कांग्रेस का लंबे समय तक अध्यक्ष रहने के चलते वे अपने को लेकर कुछ आत्म मुग्ध हो गए थे।
राममनोहर लोहिया ने अपनी चर्चित किताब Guilty Men of India’s Partition में लिखा है- “कांग्रेस की 7 जंतर-मंतर में हुई तारीखी बैठक दौरान मौलाना आजाद पूरे दो दिनों तक, लोगों से ठसाठस भरे हाल के एक कोने में एक कुर्सी पर बैठे अबाध गति से सिगरेट का धुंआ उड़ाते रहे। एक शब्द भी नहीं बोले। संभव है कि उन्हें ( देश बंटवारे) का सदमा पहुंचा हो। लेकिन उनका यह जताने का प्रयास करना कि वे विभाजन का विरोध करने वाले अकेले थे, हास्यास्पद बात है।”
मौलाना आजाद ने किसकी प्रतिभा को पहचाना?
मौलाना आजाद ने देश के शिक्षा मंत्री के रूप में कई प्रतिभाओं को पहचाना और तराशा। उनमें डॉ. कपिला वात्स्यायन भी थीं। भारत के सामने 1947 के बाद अपनी सांस्कृतिक विरासत को उसका सही स्थान देने की चुनौती थी। उस दौर में मौलाना आजाद ने कपिला वात्स्यायन को अपने साथ जोड़ा। यह बात 1956 की है।
मौलाना आजाद ने देश में संग्रहालयों को लेकर व्यापक नीति बनाने के लिए बैठक बुलाई। उसमें, उन्होंने इस बात पर चिंता जताई कि ब्रिटिश काल के दौरान देश की बहुत सी बहुमूल्य धरोहरें देश से बाहर चली गईं। उन्हें वापस लाने के प्रयास करने होंगे। इसके साथ ही नए संग्रहालयों के निर्माण पर फोकस रखना होगा। उस बैठक में डॉ. कपिला वात्स्यायन भी उपस्थित थीं।
मौलाना आजाद ने उन्हें बैठक के मिन्ट्स बनाने की जिम्मेदारी दी। कपिला वात्स्यायन ने अपने नोट्स का श्रीगणेश यह कहते हुए किया कि “भारत के संग्रहालय अपने आप में श्रेष्ठ हैं। इनमें देश की कला-संस्कृति का खजाना पड़ा हुआ है। पर इनकी स्थिति किसी जंक हाउस (कबाड़ घर) जैसी हो गई है। इनका कायाकल्प करने के लिए बेहतर कैटलॉगिंग तथा डाक्यूमेंटेशन करना जरूरी है।”
कपिला वात्स्यायन के नोट से मौलाना आजद प्रभावित हुए पर पूछा कि “ये जंक हाउस क्या होता ? जाहिर है, मौलाना आजाद की बुलंद शख्सियत के सामने वह जवाब देने की स्थिति में नहीं थी। तब मौलाना आजाद ने उनसे कहा- “ अमेरिका पढ़कर आई हैं ना…अपने नोट्स में अमेरिकन इंग्लिश मत लिखो।”
उन्होंने ये संस्मरण अपनी जीवनी ‘एफ्लोट आन ए लोटस लीफ ‘Afloat on a Lotus Leaf’ में साझा किये है। मौलाना आजाद के विभाग से जुड़े कई आला अफसर, जिनमें कपिला वात्स्यायन भी थीं, इन सभी का 4 किंग एडवर्ड रोड में आना-जाना लगा रहता था।
मौलाना आजाद- 11 नवंबर को होती है जयंती
मौलाना आजाद 22 फरवरी 1958 को अपनी मृत्यु तक इसी बंगले में रहे। उनकी शवयात्रा यहां से ही निकली थी। उनकी 11 नवंबर को जयंती पर उन्हें उनकी मजार पर श्रद्धांजलि देने के लिए करीब एक-डेढ़ दर्जन लोग ही पहुंचते हैं। ये मोटे तौर पर वही लोग होते हैं, जो हर बरस उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर वक्त निकाल कर आते हैं।
अब आप समझ सकते हैं कि मौलाना आजाद की मजार पर सामान्य दिनों में तो कोई भी नहीं आता। तो कहा जा सकता है कि भारत के पहले शिक्षा मंत्री, स्वतंत्रता सेनानी,हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के प्रति दिल्ली का किस तरह का ठंडा रवैया है। कुछ साल पहले तक राष्ट्रपति और दिल्ली के उप राज्यपाल की ओर से मजार पर श्रृद्धा सुमन अर्पित किए जाते थे, मगर वह रिवायत अब टूट चुकी है।
देखा जाए तो अब इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस (आई.सी.सी.आर) ही एक सरकारी संस्था बची है जो 22 फरवरी 1958, आज़ाद की मृत्यु के बाद से उनकी जन्म व पुण्य तिथि पर उन्हें याद कर लेती है, वर्ना उनकी मजार पर सन्नाटा ही रहता है। अब नई पीढ़ी को तो इस तथ्य की कतई जानकारी नहीं है कि मौलाना आजाद देश के शिक्षा मंत्री के रूप में 4 किंग एडवर्ड रोड में रहा करते थे।