महादेवी जी के घर मुझे जो जाने का मौका मिला, इसका श्रेय मैं अपनी बड़ी बहन जैसी विद्वान लेखिका, कवयित्री अनामिका को देती हूं। वर्ना तो सिविल लाइंस यानी बिलकुल पड़ोस में रहकर भी उनका घर देखना मेरे लिए एक सपने का सा ही था। वह शुरुआती ठंढ के दिनों की कोई गुलाबी सुबह थी, जब अनामिका दी के बहाने मैं और युवा कवि केतन आनंद गीतकार यश मालवीय और कहानीकार अनीता गोपेश के साहचर्य और मार्गदर्शन में उनके घर पहुंचे। वहां उनके परिवारजनों और उनके प्रिय पेड-पौधों से मुलाकात संभव हुई। बस नहीं दिख रहे थे तो उनके या फिर उनसे पालतू पशु-पक्षी। हालांकि उन्हें भी मैंने अपनी खयालों में कुलांचे मारते, उनके आगे-पीछे घूमते हुये भर मन बेशक देखा। उनकी पौत्रवधू ने उसी नींबू के पेड़ की पत्तियों से हर्बल चाय बनकर हमें पिलाई, जिससे महादेवी चाय पीती थीं। उनके लगाये गुलाब और अन्य पुष्प पौधे अभी भी जीवित थे और उन्हें हरा-भरा रखने में यह परिवार अभी भी अनवरत जुटा है।
महादेवी के घर खासकर उनके कमरे को कुछ इस तरह रखा गया है, जैसे वे वहीं हों और उठकर कमरे से निमिष मात्र को बाहर निकली हों। उनका घर देखकर कुछ यूं लगता है, जैसे वो उनकी प्रतीक्षा में आज भी पलक पांवड़े बिछाये इंतजार में खड़ा हो। उनका कमरा अभी तक वैसा ही रखा गया है, उनकी किताबें भी। जिसे देख यूं लगता है जैसे वो अभी कहीं बाहर गयी हों और बस अभी आ जानेवाली हों। यहां के एक-एक कोने में कोई कहानी, कोई किस्सा दबा हुआ है उनसे जुड़ा हुआ, हर दीवार किसी महत्वपूर्ण पल की साक्षी है। घर के बाशिंदों की बात तो दीगर है, इस घर के तिनके-तिनके में भी कोई अफसाना घुला हुआ है, जोकि उनसे सम्बद्ध है।

हालांकि ये दीवारें अब पुरानी हो चुकी हैं, दरवाजें जीर्ण। फिर भी उनकी मृत्यु के 38 वर्षों के बाद भी जैसे यह घर हर पल उनकी प्रतीक्षा सा करता दीखता है, जो स्वयं महादेवी जी की ही इन पंक्तियों की स्मृति दिलाता हैं-
‘जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने सँदेश,
पथ में बिछ जाते बन पराग,
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग-भरा उन्माद-राग;
आँसू लेते वे पद पखार !
जो तुम आ जाते एक बार !
हँस उठते पल में आर्द्र नयन
घुल जाता ओठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसंत
लुट जाता चिर-संचित विराग;
आँखें देतीं सर्वस्व वार |’
जो तुम आ जाते एक बार !
अगर हम ‘महादेवी जी की ही शब्दों में कहें तो-‘ प्रतीक्षा तो यूँ भी करुण होती है, लेकिन जब वह किसी ऐसे के लिए की जाती है, जिसका लौटना असंभव है, तब वह करुणतम हो उठती है।’ यह इस इस घर और यहां के लोगों को देखकर जाना जा सकता है।
महादेवी का घर

यूं तो महादेवी वर्मा ने अपना काफी समय इलाहाबाद के रसूलाबाद के अपने किराये के घर में गुजारा, जहां उनके नाम से एक पार्क का निर्माण किया गया है। लेकिन उनका एक घर रामगढ की पहाड़ियों के एक गांव (उत्तराखंड) में हैं, जिसे उन्होंने रवींद्र नाथ टैगोर जी के कहने पर खरीदा था। ‘मीरा कुटीर’ नामक उनका यह घर उनका ग्रीष्मकालीन आवास था, जहां हिंदी साहित्य की मीरा महादेवी रहा करती थीं। यहां तमाम लेखक आते जाते रहते थे और अबाध गति से वहां रहकर अपना लेखन सम्पन्न करते थे। आज वहां एक संग्रहालय है, उनके नाम पर।
लेकिन प्रमुखता से जिसे महादेवी के घर के रूप में जाना जाता है, वह है उनका अशोकनगर वाला यह घर। महादेवी वर्मा का जन्म यूपी के फर्रुखाबाद में २६ मार्च, १९०७ को हुआ था। लेकिन उनका पूरा जीवन इलाहाबाद में बीता। यहीं उनकी पढ़ाई हुई। यहीं उन्होंने अध्यापन का काम किया और इसी शहर में’ उन्होंने अपनी अधिकतम रचनाओं को कागज पर उकेरा।
यही नहीं यहीं रहते हुए वे ‘प्रयाग महिला विद्यापीठ’ में कई वर्षों तक प्रधानाचार्य रहीं और इसी दौर में उन्होंने कई प्रमुख किताबें और संस्मरण लिखे। महादेवी जी कुछ वर्ष तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में प्रवक्ता भी रहीं थीं और 11 सितम्बर 1987 को उनके इसी अशोक नगर स्थित घर में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली थी। उनका अंतिम संस्कार भी इसी शहर में गंगा के घाट पर हुआ तो अस्थियों का विसर्जन गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी संगम की धारा में।
इस इलाहाबाद में रहते हुए ही उन्होंने कविता, संस्मरण और रेखाचित्र जैसी विधाओं से साहित्य जगत को सम्पन्न बनाया। महादेवी वर्मा ने अपनी रचनाओं में इस शहर के विभिन्न इलाकों का वर्णन किया है, जैसे- झूंसी, अलोपी, अशोकनगर, चौक और रसूलबाद जैसी जगहों का जिक्र। इन जगहों का जिक्र उनकी रचनाओं में आता है और बार-बार आता है। और उनके अधिकांश पात्र इसी इलाहाबाद शहर के कोने-कोने से रहे हैं। रामा, भाभी, बिंदा, सबिया, बिट्टो, बालिका मां(दो फूल), घीसा, अलोपी, बदलू, लछमा, भक्तिन, चीनी फेरीवाला, मुन्नू की माई, ठकुरी बाबा सब का नाता इसी शहर और लगभग इसी घर से रहा है। उनके संस्मरणों और रेखाचित्रों को पढ़ने से यहसाफ झलकता है कि यह शहर और यह घर कैसे उनके अंदर रचा बसा था।

उनके ‘गिल्लू’और ‘दुर्मुख खरगोश’ जैसे रेखाचित्र आज भी हमारे सामने कितने जीवंत हैं यह हम तब महसूसते हैं, जब हम किसी गिलहरी या खरगोश को देखते हैं और हठात् हमारे आगे उनके वो चरित्र जीवंत हो जाते हैं। उनके नीलकंठ (मोर), सोना (हिरणी), गौरा (गाय) , नीलू (कुत्ता), निक्की, रोजी और रानी (नेवला, कुतिया और घोड़ी) से जब हम उनके संस्मरणों के द्बवारा मिलते हैं, तब जाकर हम ये जान पाते हैं कि पशु- पक्षियों का प्रेम किस कदर और किस हद तक किसी कहानी के माध्यम से हमारी संवेदनाओं से जुड़ जाता है या फिर जुड़ सकता है। गौरा से विछोह उन्हें नये पशु-पक्षी न लाने के लिए जरूर उत्प्रेरित करता है पर पहले से रहते आये हुये पशु-पक्षियों और उनके संततियों के लिए तब भी वे उतनी ही ममतालु रहीं।
महादेवी वर्मा का पशु पक्षियों से काफी गहरा लगाव था। वो अक्सर नखास जाती थीं और वहां से पक्षियों को खरीदकर लाती थीं। वो किसी अपने पशु-पक्षी-साथी के गुजरने पर व्यथित होतीं, तो अगली बार किसी जानवर को न पालने का प्रण लेतीं। मगर इन तमाम कसमों और वायदों के बाद और बावजूद फिर उनके जीवन में कोई न कोई पात्र ऐसा पात्र आ ही जाता था। फिर लगाव के नये तंतु जुड़ते और एक नयी कहानी फिर से जन्म लेती।
मेरे हिस्से की महादेवी अर्थात महादेवी वर्मा का स्त्री विमर्श

महादेवी वर्मा की गणना हिंदी कविता के छायावादी युग के प्रमुख कवियों सुमित्रानन्दन पंत, जय शंकर प्रसाद और सूर्याकांत त्रिपाठी निराला के संग की जाती है। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी को कोमल और मिठास से भरा बनाया। यूं तो उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये पर मैं अपनी बात कहूं तो एक स्त्री होने के नाते मुझे उनके कवि-रूप से भी ज्यादा प्रिय रहा है उनका स्त्री-चिंतक-रूप। सच कहें तो महादेवी की सन् 1942 में प्रकाशित कृति ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना ही तो है, जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी वर्मा ने अपनी लेखनी धारदार लेखनी चलायी है। नारीवाद की बात अकसर ग्रिम बहनों, जॉन स्टुअर्ड मिल, सीमोन द बउआ, जर्मेन ग्रियर से जोड़ी जाती है। सच्चाई यह है कि जिस समय सीमोन द बउआ फ्रांस में अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ लिख रही थी, उन्हीं दिनों महादेवी वर्मा भारत में ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ को आकार दे रही थी। एक स्त्री-चेता लेखिका के रूप में उनके ये बयान आज भी वरेण्य हैं-
‘यदि स्त्री पग-पग पर अपने आँसुओं से उसका मार्ग गीला करती चले, तो यह पुरुष के साहस का उपहास होगा, यदि वह पल-पल उसे कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य सुझाया करे तो यह उसकी बुद्धि को चुनौती होगी, और यदि वह उसका साहचर्य छोड़ दे तो यह उसके जीवन की रुक्षता के लिए दुर्वह होगा।’
और –
‘भारतीय नारी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राण-प्रवेग से जाग सके, उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं, न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है। किन्तु अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता और कहीं असाधारण विद्रोह है, परंतु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।’ और उनके ये विचार सिर्फ विचार भर नहीं थें, उन्होंने इसे अपने जीवन में रूपांतरित भी किया था। नौ वर्ष की बाल्यावस्था में हुई अपनी शादी से वे वे चुपचाप निकल आई थीं और आजीवन शिक्षा और लेखन के सहारे अपना जीवन उन्होंने व्यतीत किया। यह संघर्ष उस काल और समय को देखते हुये कोई छोटा संघर्ष नहीं था, जिसे महादेवी जी ने जीकर अन्य महिलाओं को भी शिक्षा और स्वालंबन के सहारे जीने राह दिखाई।
महत्वपूर्ण पलों का साक्षी यह घर

महादेवी वर्मा जब तक प्रयागराज रहीं उनके साहित्य से यह नगर समृद्ध होता रहा। कभी हिंदुस्तानी अकादमी ने उनका कार्यक्रम होता तो कभी इलाहाबाद विश्व में।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन, फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, उमाकांत मालवीय, रघुवंश, अमृत राय, सुधा चौहान, कैलाश गौतम, एहतराम इस्लाम जैसी हस्तियां भी इन समारोहों की शोभा होते।
होली पर्व पर एक बार महादेवी के घर जुटे रचनाकारों ने निराला से उनकी ‘राम की शक्ति पूजा’ का पाठ करने का आग्रह किया। इस पर पहले तो उन्होंने मना किया। लेकिन जब आग्रह बढ़ता गया तो निराला ने उसका सस्वर पाठ कर सुनने वालों को एकदम से मंत्रमुग्ध कर डाला। वह ऐतिहासिक दृश्य याद करते हुये आज भी लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
इस घर की होली
महादेवी जी, होली के शुभ मौके पर अपना जन्मदिन मनाती थीं। इसी कारण इस दिन हर कोई उनके इस घर में पहुंचता था। महादेवी अपने घर पर ही होलिका दहन कराती थीं। अगले दिन उसी परिसर में रंगोत्सव मनाया जाता था। घर पर आने वाले समस्त लोगों का राई-नमक से नजर उतारने के बाद वे अबीर लगाती थीं। सबके लिए गुझिया, पापड़ व दही बड़ा के साथ ठंडई अपने हाथों से बनाकर खिलाती-पिलाती थीं। टेसू के फूलों से रंग भी वे स्वयं तैयार करती थीं। हरिवंश राय बच्चन जब क्लाइव रोड स्थित मकान में रहते थे तो वहां से गले में ढोलक डालकर बचाते हुये महादेवी जी के घर आतें और सबके साथ मिलकर ‘रंग-बरसे भीगे चुनर वाली…, ‘होली खेलय रघुबीरा बिरज में… जैसे गीत गाकर माहौल को रंगीन बनाते थे। लोग कहते हैं होली पर महादेवी के अशोक नगर स्थित घर पर साहित्यिक कुंभ के समान भीड़ जुटती थी।
एक बार महादेवी के घर आने से पहले कवि और उनके राखीबंद भाई निराला ने ‘दारागंज’ स्थित अपने घर में ही ठंडई के साथ भांग भी खा लिया था। भांग खाकर वह महादेवी के घर पहुंचे तो कई गुझिया खा गए। ये देखकर महादेवी हंसते हुए बोलीं ‘बस करो भैया अभी और लोग भी हैं। गुझिया कम पड़ जाएगी।’ इस पर मौजूद लोग हंसने लगे। तब निराला बोले, ‘भले कम पड़ जाए, मैं तो भरपेट खाऊंगा। कम पड़ेगी तो फिर बनाना।’
घर को लेकर विवाद

महादेवी जी की जिस तरह इस शहर ने उपेक्षा की उसके लिए महादेवी की ही ये पंक्तियां याद आती हैं-‘ अश्रु यह पानी नहीं है/यह व्ययथा चंदन नहीं है’… जिस इलाहाबाद को महादेवी वर्मा ने एक अलग पहचान दिलाई, उस शहर ने उनकी सांसे थमने के बाद आधुनिक युग की इस साहित्यिक मीरा को वक्त के साथ लगभग भुला दिया। उनके नाम पर कभी कोई बड़ा आयोजन तक नहीं किया गया। कई बार सोचें तो यह लगता है, क्या महादेवी की यह उपेक्षा स्त्री होने होने के कारण हुई या की गयी? क्या उनका लेखक होना स्त्री होने के कारण हमेशा दोयम दर्जे पर रहा या माना गया।
बात इतने तक ही होती या रह जाती तो भी गनीमत होती, लेकिन नगर निगम ने देश की इस महान कवियित्री की मौत के इकतीस साल बाद वो कारनामा कर दिखाया जो नाकाबिले-बर्दाश्त था। वह साल 2018 था, जब हर अखबार , हर न्यूज चैनल में यह खबर प्रमुखता से आई।
ने न सिर्फ साहित्य से जुड़े लोगों को गुस्से में भर दिया है, बल्कि महादेवी के परिवार वालों की आंख में आंसू भर दिए थे।
दरअसल महादेवी वर्मा ने इलाहाबाद के जिस पॉश इलाका अशोक नगर की नेवादा बस्ती के जिस बंगले में अपना पूरा जीवन बिताया, जहां आख़िरी सांस ली, वह उनके अपने ही नाम पर था। जिसे उन्होंने अपने जीवनकाल में ही एक ट्रस्ट को दान भी कर दिया था। साहित्य में थोड़ी भी दिलचस्पी रखने वाले किसी भी शख्स को यह बखूबी पता है कि महादेवी वर्मा अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन शायद महादेवी की कर्मभूमि इलाहाबाद के नगर निगम के अफसरों को यह जानकारी नहीं थी या फिर वह इससे जानबूझकर अंजान बने हुए थे। साल 2018 में नगर निगम के टैक्स डिपार्टमेंट ने उस महादेवी वर्मा को कुर्की की धमकी के साथ बकाये का नोटिस भेजा है, जो इकतीस साल पहले ही दुनिया छोड़ चुकी थीं।
हैरान वाली बात यह भी थी कि जैसा कि ज्ञातव्य है महादेवी ने अपने जीवन में ही यह बंगला एक साहित्यिक ट्रस्ट को दान कर दिया था। ट्रस्ट के प्रमुख लोगों में महादेवी के दत्तक पुत्र ‘रामजी पांडेय’ के परिवार के लोग ही हैं, जोकि इसी बंगले में रहते हैं। इन लोगों का कहना है कि तकरीबन बीस साल पहले ही इन्होंने महादेवी के डेथ सर्टिफिकेट के साथ ट्रस्ट के कागजात नगर निगम दफ्तर में दाखिल कर उसका मालिकाना हक बदलने की अर्जी दी थी, लेकिन कई बार भाग दौड़ के बाद भी यह मकान आज भी नगर निगम के रिकार्ड में महादेवी वर्मा के नाम पर ही दर्ज रहा।
गौर करें तो नगरनिगम के कानून के मुताबिक गैर- व्यावसायिक ट्रस्ट के दफ्तर पर हाउस टैक्स लगता ही नहीं तो फिर यह आदेश आया तो कैसे? खैर शहर के बुद्धिजीवियों के दखल और विरोध से जाकर यह मामला शांत हो सका। पर इस सारे प्रकरण में उनके परिवार के लोगों को काफी मानसिक कष्ट और तकलीफ दिया।
कौन थे डॉ. राम जी पांडेय?
इस सबके बीच एक सवाल जो सबके मन में बार-बार आता है, वह ये है कि कौन थे ये डॉ. रामजी पांडेय?

लेखक, कवि और गीतकार यश मालवीय जोकि रिश्ते में इस परिवार के जामाता हुये (रामजी पांडे के सुपुत्री से इनका विवाह हुआ है) के शब्दों में कहे तो रामजी पांडेय महादेवी जी के श्रवण कुमार थे। एक चलती फिरती किताब जैसा था उनका जीवन। वह हिंदुस्तानी एकेडमी में सहायक सचिव के पद पर काम करते थे, महादेवी जी द्वारा स्थापित साहित्य सहकार न्यास के भी वह सचिव भी थे। वे सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक महादेवी जी के वह साथ होते थे।’ वे कहते हैं -‘मैंने तो मैंने तो एक बार पाण्डेय जी की बीमारी के दौरान महादेवी जी को अपने हाथ से रामजी भाई को खाना खिलाते भी देखा है ,कौर कौर जैसे एक माँ अपने बेटे को खाना खिलाती है , ठीक वैसे ही। पाण्डेय जी की देवकी कंचनपुर गाँव में रहती थीं, महादेवी उनकी यशोदा थीं। रक्त सम्बंध से बहुत बहुत ऊपर था यह रिश्ता, आत्मा के अतल से जुड़ा हुआ। महादेवी जी पर एक बेटे की तरह नाराज़ होने का और डाँट लेने का हक़ भी सिर्फ उन्हें ही मिला था। रामजी की पत्नी रानी से उन्हें पुत्रवधू का सा सुख मिला। रानी आब खुद वयोवृद्ध हो चली हैं, लेकिन मनाही होने पर आधी रात महादेवी जी का फ्रुज से निकाल आइसक्रीम खाने का किस्सा बहुत जीवंतता से बताती हैं।
यह महादेवी जी का वह परिवार था जिसने उन्हें पारिवारिक ज़िन्दगी का सम्पूर्ण सुख दिया। रामजी के बच्चों की वह दादी थीं। महादेवी के कारण ही निराला, सुमित्रानंदन पंत, शिवमंगल सिंह सुमन, रामधारी सिंह दिनकर, फ़ादर कामिल बुल्के, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, बच्चन, भवानी प्रसाद मिश्र, अमृत राय, रघुवंश रामस्वरूप चुतर्वेदी लक्ष्मीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त, केशवचन्द्र वर्मा, उमाकांत मालवीय, गोपी कृष्ण गोपेश, विजयदेव नारायण साही, शिवानी, शान्ति मेहरोत्रा, कपिला वात्सायन, विद्द्यावती कोकिल, विद्याबिन्दु सिंह आदि शीर्ष रचनाकारों के वह चहेते भतीजे थे। इलाचन्द्र जोशी के तो वह दोस्त ही थे। मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, रामेन्द्र त्रिपाठी और मनोहर नायक से भी उनका याराना था।
सुमित्रानंदन पंत के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखी उनकी पुस्तक अपने आप में एक जीवंत दस्तावेज है । महादेवी जी पर ‘ परिचय इतना इतिहास यही ‘ शीर्षक से संपादित अपनी पुस्तक में उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर आरती मालवीय तक के संस्मरण सँजोये हैं। उन्होंने भी कुछ वर्षों तक प्रयाग महिला विद्द्यापीठ में अध्यापन कार्य किया था। वे एक बहुत शानदार शिक्षक भी थे।

