कहते हैं कि हिन्दी पट्टी में हर कोई जन्मजात इतिहासकार और डाक्टर होता है। किसी भी रोग की चर्चा कीजिए हर किसी के पास उस रोग के दो-चार उपचार होते हैं। हर किसी के पास इतिहास का निजी संस्करण उपलब्ध रहता है। प्रमाणिक इतिहास के प्रति उदासी या लापारवाही हिन्दी समाज की आम प्रवृत्ति प्रतीत होती है। ऐसे समाज में सहज भाषा में प्रमाणिक इतिहास को प्रस्तुत करना बुद्धिजीवियों का जरूरी दायित्व है। प्रोफेसर नयनजोत लाहिड़ी की चर्चित पुस्तक ‘फाइडिंग फारगाटेन सिटीज’ का हिन्दी में अनूदित होना इस दिशा में एक सरहानीय प्रयास है। प्रोफेसर लाहिड़ी प्राचीन भारत के इतिहास एवं पुरातत्व की आधिकारिक विद्वान है। प्रो. लाहिड़ी ने पुस्तक की भूमिका में ही स्पष्ट किया है कि वह यह पुस्तक पुरातत्वविदों के साथ ही आम पाठकों को भी ध्यान में रख कर लिख रही हैं। इसलिए उन्होंने इसे अकादमिक इतिहास की तकनीकी जटिलता से पूर्णतः मुक्त रखा है।
अकादमिक भाषा में कहें तो इस पुस्तक में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्माण और विकास का इतिहास है। हड़प्पा सभ्यता के खोज के पहले तक प्राच्यविदों की दृष्टि में भारतीय सभ्यता की ऐतिहासिकता संदिग्ध थी। भारतीयों के पास अपने प्राचीन सभ्यता होने के कोई ठोस प्रमाण नहीं थे। सिंधु घाटी सभ्यता की खोज के बाद भारतीय उपमहाद्वीप की ऐतिहासिक प्राचीनता अकाट्य रूप से प्रमाणित हुई। यहाँ इसी पुस्तक में उल्लिखित जान मार्शल की 1924 में इस सभ्यता के खोज पर की गई घोषणा ध्यातव्य है, “भारत के लोगों को हमेशा से अपनी प्राचीन सभ्यता पर गर्व रहा है और यह ठीक भी है, और उस विश्वास के साथ कि यह एशिया की किसी भी अन्य सभ्यता से प्राचीन थी, उन्हे लंबे समय से आशा थी कि पुरातत्व विभाग उनके विश्वास को सही साबित करने के लिए निश्चित ही पुरातात्विक साक्ष्य की खोज करेगा। उनकी यह अभिलाषा अब पूरी हुई है…”(पृष्ठ 2)
पुस्तक एलेक्जडेंर कनिंघम के पुरातात्विक खोजों के लिए किए गए संघर्ष के वर्णन से शुरू होती है। कनिंघम ने भारतीय पुरातत्व में गहरी रुचि दिखाई और करीब बीस वर्षाें तक अथक रूप से इस काम में संलग्न रहे। प्रो. लाहिड़ी के शब्दों में कहे तो “कनिंघम ने ही सबसे पहले उस शहर की खुदाई की, जिसे आज सिंधु घाटी के विशालतम शहरों में से एक माना जाता है।“ कनिंघम ने इस पुराशहरों के ऐतिहासिक महत्व को पहचान लिया था। लेकिन इनके सही काल निर्धारण को लेकर वो सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सके क्योंकि कनिंघम हड़प्पा के बौद्ध स्थल होने के पूर्वाग्रह से प्रभावित थे।
कनिंघम के अधूरे काम को पूरा करने का श्रेय एक ऐसे विलक्षण पुरातत्वविद को जाना था जो मात्र पच्चीस साल की उम्र में भारतीय पुरातत्व विभाग का निदेशक बन कर भारत आया था। भारतीय और विश्व इतिहास में अमर उस पुरातत्वविद का नाम जान मार्शल है। जान मार्शल को पुरातत्व विभाग के निदेशक के रूप में लाने में भारत के तात्कालिक वायसराय जार्ज कर्जन की मुख्य भूमिका रही थी। कर्जन भारतीय पुरातत्व और ऐतिहसिक धरोहरों के प्रति अगाध सहानुभूति रखता था। कर्जन के आरंभिक प्रोत्साहन और जान मार्शल तथा उनके सहयोगियों के प्रयास का सुफल है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता दुनिया के सामने आ सकी। भारतीय उपमहाद्वीप के परास जितना ही विशाल इस प्राचीन सभ्यता के उत्खनन का इतिहास है। जाहिर है कई पुरातत्वविदों एवं श्रमिकों के अनवरत श्रम और संघर्ष के पश्चात ही भारतीय पुरातत्व अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। इसलिए इस कथा में कई नायक हैं। लेकिन लेखिका ने कुछ महानायकों को पुस्तक के केन्द्र में रखा है। जिनमें अलेक्जेंडर कनिंघम,जान मार्शल, लुइगी सियो टेसीटेरी और राखालदास बनर्जी प्रमुख हैं।
प्रो. लाहिड़ी ने उत्खनन के दौरान आने वाली आर्थिक दिक्कतें,सरकारी नीतियों के अड़ंगे, पुरातत्व सामाग्रियों के संग्रहण और संरक्षण को लेकर आने वाली परेशानियों को ब्योरेवार ढंग से प्रस्तुत किया है। इन बाधाओं से जूझते हुए कनिंघम, मार्शल और बनर्जी ने भारतीय पुरातत्व की जो अतुलनीय सेवा की उसे पुस्तक पढ़कर ही जाना जा सकता है। प्रो. लाहिड़ी ने ओरिएंटल एवं आक्सीडेंटल के द्वंद्व से खुद को पूरी तरह मुक्त रखा है। इस कहानी के सभी पात्रों के प्रति उन्होंने न्याय किया है। राखालदास बनर्जी के विलक्षण मेधा और अनियंत्रित व्यवहार को स्पष्ट करने में उन्होंने कोई पक्षपात नहीं किया है। इसी तरह उन्होंने जार्ज कर्जन समेत तमाम अन्य अंग्रेज अधिकारियों के रवैए को भी तटस्थतापूर्वक प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक अत्यधिक रुचिकर और सरस है। कहना न होगा कि हिन्दी समाज के इतिहासप्रेमियों के लिए यह एक सुखद उपहार है।
पुस्तक – विस्मृत नगरों की खोज, लेखक- नयनजोत लाहिड़ी, अनुवादक- रजनीश कुमार सिन्हा,मूल्य – रु. 299/