उर्दू कवि अमीर मीनाई का शेर है,
हुए नामवर बेनिशाँ कैसे-कैसे
जमीं खा गई आसमाँ कैसे-कैसे
अमीर मीनाई ने इस शेर में सांसारिक प्रसिद्धि की क्षणभंगुरता की तरफ इशारा किया है। उर्दू कवि अमीर मीनाई ने कभी सोचा न होगा कि आने वाले वक्त में हिन्दी में एक ऐसा नामवर होगा जिसे न जमीं खा सकेगी, न आसमाँ निगल सकेगा। किसी फौरी कारण से किसी का नाम हो जाना और हिन्दी साहित्य में नामवर हो जाना दो बातें हैं। सच कहें तो पिछले वाक्य का मर्म समझने के लिए भी हिन्दी साहित्य में कम से कम घुटने तक उतरना पड़ेगा। नई हिन्दी की चार किताबें पढ़ने से काम नहीं चलेगा।
आज 28 जुलाई को नामवर सिंह की जयंती है। नामवर जी में भाषा एवं साहित्य की अतुलनीय मर्मज्ञता थी। परम्परा एवं आधुनिकता का मणि-कांचन संयोग नामवर जी की साहित्य दृष्टि की विशिष्ट पहचान थी। उनका लेखन नूतन और पुरातन के बीच सेतु की तरह काम करता है। प्राचीन में क्या बासी हो चुकी है और नूतन में क्या सोना है, क्या पीतल है, इसकी समझ नामवर जी को अपने अन्य समकालीनों से अलग करती थी।
आज जिज्ञासावश फेसबुक सर्च किया तो देखा कि पिछले 24 घण्टे में पत्रकार हेमंत शर्मा, लेखक प्रेम कुमार मणि और आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने नामवर जी की जयंती पर उन्हें याद करते हुए लेख लिखे हैं। इन तीन में दो आधिकारिक तौर पर कभी नामवर जी के शिष्य नहीं रहे। नामवर जी यशस्वी बुद्धिजीवी थे लेकिन किसी भी शिक्षक या विचारक या दार्शनिक का यश स्वयं के अलावा इसपर भी आश्रित होता है कि परवर्ती पीढ़ियों के शिक्षक/विचारक/दार्शनिक उसे कैसे याद करते हैं। प्रेम कुमार मणि ने नामवर जी को शिष्य के बजाय सहचर की तरह याद किया है। बाकी हेमंत जी और जगदीश्वर जी ने शिष्य की तरह याद किया है।
नामवर जी को पहली टिकाऊ नौकरी करीब 49 साल की उम्र में जेएनयू में मिली थी। नया बन रहा विश्वविद्यालय था। पुराने विश्वविद्यालय में पुराने मठ और गढ़ होते हैं तो जेएनयू से पहले नामवर जी जहाँ भी गये टिक नहीं पाये। जेएनयू ‘नॉलेज इज पॉवर’ की विचारधारा से निकला विद्यापीठ था। सरकारी यूनिवर्सिटी होने के नाते सरकारी ईकोसिस्टम की अनुकंपा से होने वाली भर्तियों को छोड़ दें तो जेएनयू के शिक्षकों की पहली खेप में ऐसे कई विद्वान थे जो अपने होने मात्र से ‘नॉलेज इज पॉवर’ का अहसास दिलाते थे। नामवर जी भी उन विद्वानों में से एक थे।
जीवन के आखिरी कुछ सालों में नामवर जी की सर्वाधिक आलोचना उनकी परवर्ती मठाधीशी को लेकर हुई। जाहिर है कि नामवर जी का हाल इस मामले में मुगल वंश जैसा था। मुगलों की सत्ता 1707 में औरंगजेब के निधन के बाद ढह गयी लेकिन उनका नाम लचर वारिसों के सहारे 1857 तक चलता रहा जबतक कि बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने रंगून में दफन न कर दिया।
नामवर जी की बारे में तथ्य कम, गल्प ज्यादा चलते थे। नामवर जी का चरित्र हनन हिन्दी साहित्य के छिछोरे लेखकों का पसन्दीदा टाइमपास था। अभी कुछ समय पहले एक जबरिया कवि ने उनपर कीचड़ उछालने का कुत्सित कृत्य किया। हिन्दी साहित्य की बिसात का लगभग हर प्यादा, ऊँट, हाथी, घोड़ा, वजीर उनसे जुड़ा कोई न कोई दावा ऐसे करता था जैसे वह उसके सामने की बात हो। कई बार कई साल बाद पता चलता था कि वह तो कोरी गप्प थी।
आज नामवर जी नहीं हैं। उनकी देह के साथ ही उनसे जुड़ी मामूली शिकायतें भी समाप्त हो गयीं। उन्होंने अपने नाम का सिक्का बौद्धिक जगत में चलाया और उसके दायरे के बाहर जाकर कभी किसी हुक्मरान से इनाम-इकराम हासिल करने का अतिरिक्त प्रयास नहीं किया। लोकसेवा आयोग की मेंबरी, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषणी या वाइसचांसलरी इत्यादि कभी हासिल नहीं की। उनको हमेशा कांटा-छांटा जाता रहा लेकिन उन्होंने आजीवन ऐसा कोई पद या पुरस्कार प्राप्त नहीं किया जिसे वो डिजर्व नहीं करते थे। सरल शब्दों में कहें तो नामवर जी ने अपने जीवन में 19-20 तो किया लेकिन कभी एक और एक ग्यारह या सोलह दूना आठ नहीं किया। अच्छा-बुरा जो भी था उनका सामाजिक व्यक्तित्व उनके साथ जा चुका है। पीछे रह गया है, उनका बौद्धिक व्यक्तित्व जो विलक्षण है।
आधुनिक भारतीय साहित्य का कोई भी गम्भीर अध्येता नामवर जी को पढ़े बिना विद्वता का दावा नहीं कर सकेगा। अपनी मृत्यु से करीब 10 महीने पहले एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था,
मरेंगे हम किताबों पर,
वरक होगा कफन अपना
किताबों पर मरने वालों को एक अतुलनीय सौभाग्य प्राप्त होता है कि किताबों में जीने वाले उन्हें हमेशा याद करते हैं। जिन बाल-बच्चों के लिए मनुष्य जीवन खपाता है, वह भी दो-तीन पीढ़ी बाद उसे भूल जाती हैं। किताबों में जीने वालों को उनके मानस वंशज हजारों साल बाद भी उन्हें याद करते हैं। उर्दू कवि जौक ने कहा है,
रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक है ‘ ज़ौक़ ‘ ,
औलाद से रहे, यही, दो पुश्त चार पुश्त
विश्व की सर्वश्रेष्ठ रचना महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास ने कहा था, “ऊर्ध्व बाहुर विरोमि एष न च कश्चित् श्रुणोती मे।” मैं दोनों हाथ उठाकर कहता हूँ फिर भी मेरी कोई नहीं सुन रहा! सच तो यह है कि आज कई हजार साल बाद भी व्यास को हम सुन रहे हैं, आज के कई हजार साल बाद भी कोई न कोई उन्हें सुन रहा होगा। उसी तरह जब तक हिन्दी साहित्य है, कोई न कोई नामवर जी को सुन रहा होगा। हिन्दी में नामवर को न जमीं खा सकेगी, न आसमाँ निगल सकेगा।
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।